शास्त्रों में गोकर्ण तीर्थ की बड़ी महिमा बतायी गयी है

शुभा दुबे । Jun 28 2016 12:03PM

कहा जाता है कि पाताल में तपस्या करते हुए भगवान रुद्र गोरूप धारिणी पृथ्वी के कर्णरन्ध्र से यहां प्रकट हुए, इसी से इस क्षेत्र का नाम गोकर्ण पड़ा। महाबलेश्वर मंदिर के पास सिद्ध गणपति की मूर्ति है।

बंगलुरु−पूना लाइन पर हुबली से 100 मील दूर समुद्र तट पर छोटी पहाड़ियों के बीच में गोकर्ण नगर है। गोकर्ण में भगवान शंकर का आत्मतत्व लिंग है। शास्त्रों में गोकर्ण तीर्थ की बड़ी महिमा है। यहां के विग्रह को महाबलेश्वर महादेव कहते हैं। मंदिर बड़ा सुंदर है। मंदिर के भीतर पीठ स्थान पर अरघे के अंदर आत्मतत्व लिंग के मस्तक का अग्रभाग दृष्टि में आता है और उसी की पूजा होती है। यह मूर्ति मृगश्रृंग के समान है।

कहा जाता है कि पाताल में तपस्या करते हुए भगवान रुद्र गोरूप धारिणी पृथ्वी के कर्णरन्ध्र से यहां प्रकट हुए, इसी से इस क्षेत्र का नाम गोकर्ण पड़ा। महाबलेश्वर मंदिर के पास सिद्ध गणपति की मूर्ति है, जिसके मस्तक पर रावण द्वारा आघात करने का चिन्ह है। इनका दर्शन करने के अनन्तर ही आत्म तत्व लिंग के दर्शन पूजन की विधि है।

कथा− भगवान शंकर एक बार मृग स्वरूप बनकर कैलास से अन्तर्हित हो गये थे। ढूंढते हुए देवता उस मृग के पास पहुंचे। भगवान विष्णु, ब्रम्हाजी तथा इन्द्र ने मृग के सींग पकड़े। मृग तो अदृश्य हो गया, किंतु देवताओं के हाथ में सींग के तीन टुकड़े रह गये। भगवान विष्णु तथा ब्रम्हाजी के हाथ में आए टुकड़े− सींग का मूल भाग तथा मध्य भाग गोला− गोकर्णनाथ तथा श्रृंगेश्वर में स्थापित हुए। इन्द्र के हाथ में सींग का अग्रभाग था। इन्द्र ने उसे स्वर्ग में स्थापित किया। रावण के पुत्र मेघनाद ने जब इन्द्र पर विजय प्राप्त की, तब रावण स्वर्ग से वह लिंग मूर्ति लेकर लंका की ओर चला।

कुछ विद्वानों का मत है कि रावण की माता कैकसी बालू का पार्थिव लिंग बनाकर पूजन करती थी। समुद्र किनारे पूजन करते समय उसका बालू का लिंग समुद्र की लहरों से बह गया। इससे वह दुःखी हो गयी। माता को संतुष्ट करने के लिए रावण कैलास गया। वहां तपस्या करके उसने भगवान शंकर से आत्मतत्व लिंग प्राप्त किया। दोनों कथाएं आगे एक हो जाती हैं। रावण जब गोकर्ण क्षेत्र में पहुंचा, तब संध्या होने को आ गयी।

रावण के पास आत्मतत्वलिंग होने से देवता चिंतित थे। उनकी माया से रावण को शौचादि की तीव्र आवश्यकता हुई। देवताओं की प्रार्थना से गणेशजी वहां रावण के पास ब्रम्हचारी के रूप में उपस्थित हुए। रावण ने उन ब्रम्हचारी के हाथ में वह लिंग विग्रह दे दिया और स्वयं नित्य कर्म में लगा। इधर मूर्ति भारी हो गयी। ब्रम्हचारी बने गणेशजी ने तीन बार नाम लेकर रावण को पुकारा और उसके न आने पर मूर्ति पृथ्वी पर रख दी।

रावण अपनी आवश्यकता की पूर्ति करके शुद्ध होकर आया। वह बहुत परिश्रम करने पर भी मूर्ति को उठा नहीं सका। खीझकर उसने गणेशजी के मस्तक पर प्रहार किया और निराश होकर लंका चला गया। रावण के प्रहार से व्यथित गणेशजी वहां से चालीस पद जाकर खड़े हो गये। भगवान शंकर ने प्रकट होकर उन्हें आश्वासन दिया और वरदान दिया कि तुम्हारा दर्शन किये बिना जो मेरा दर्शन पूजन करेगा, उसे उसका पुण्यफल प्राप्त नहीं होगा।

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