द्वादश ज्योतिर्लिंगों से जुड़ी यह कथा पढ़िये, भगवान शिव के आशीर्वाद से मनोवांछित फल मिलेगा

lord shiva 12 Jyotirlingas
शुभा दुबे । Oct 8 2020 8:42PM

श्रावण माह में देश भर में ज्योतिर्लिंगों के दर्शन और पूजन के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु उमड़ते हैं। मान्यता है कि भगवान शिव के ज्योतिर्लिंग के दर्शन मात्र से ही सभी कष्ट दूर हो जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है।

शिव पुराण के अनुसार, भगवान शिव लोक कल्याण के लिए लिंग के रूप में वास करते हैं और भगवान शिव के बारह विग्रहों को द्वादश ज्योतिर्लिंग कहा जाता है। भारतवर्ष में यह 12 ज्योतिर्लिंग अलग-अलग स्थानों पर स्थित हैं। इनमें सर्वप्रथम श्री सोमनाथ जी का स्मरण किया जाता है। श्रावण माह में ज्योतिर्लिंगों के दर्शन और पूजन के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु उमड़ते हैं। मान्यता है कि भगवान शिव के ज्योतिर्लिंग के दर्शन मात्र से ही सभी कष्ट दूर हो जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है। आइये एक नजर डालते हैं परम पवित्र 12 ज्योतिर्लिंगों से जुड़ी कथाओं पर।

सोमनाथ ज्योतिर्लिंग− गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में जूनागढ़ के पास वेरावल के समुद्र तट पर एक विशाल मंदिर में श्री सोमनाथ ज्योतिर्लिंग है। कहा जाता है कि यहां भगवान शिवजी ने चंद्रमा को दक्ष प्रजापति के शाप से मुक्त किया था। इसी स्थल पर भगवान श्रीकृष्ण ने एक शिकारी के तीर से अपने तलवे को बिंधवाया था और अपनी सांसारिक लीला समाप्त की थी। सोमनाथ जी का मंदिर अपने वैभव और समृद्धि के लिए भी विख्यात रहा है। इस मंदिर को कई बार देशी−विदेशी हमलावरों ने भी अपना निशाना बनाया। श्री सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के बारे में जो कथा कही जाती है वह इस प्रकार है− ब्रह्मा के पुत्र दक्ष प्रजापति ने अपनी 27 नक्षत्र कन्याओं का विवाह चंद्रमा से एक साथ ही किया था। परंतु चंद्रदेव की पसंद रोहिणी थी। रोहिणी की अन्य बहनें चंद्र देव की ओर से अनदेखी किए जाने से दुखी रहती थीं। जब दक्ष प्रजापति तक यह बात पहुंची तो उन्होंने चंद्र देव को सभी से समान व्यवहार करने के लिए समझाया। लेकिन जब चंद्र देव पर कोई असर नहीं पड़ा तो दक्ष ने चंद्र देव को क्षय रोग से ग्रस्त हो जाने का शाप दे दिया। इससे चंद्र का शरीर निरंतर घटने लगा। संसार में चांदनी फैलाने का उनका काम रुक गया। सभी जीव कष्ट उठाने लगे और दया की पुकार करने लगे। चंद्रदेव ने सभी देवताओं, महर्षियों आदि को अपनी मदद के लिए पुकारा परंतु कोई उपाय नहीं मिला। इससे असहाय देवता चंद्र को लेकर ब्रह्माजी की शरण में पहुँचे। ब्रह्माजी ने चंद्रमा को अन्य देवताओं के साथ प्रभास क्षेत्र में सरस्वती के समुद्र से मिलन स्थल पर जाकर मृत्युंजय भगवान शिव की आराधना करने को कहा। इस पर चंद्रमा ने प्रभास क्षेत्र में देवताओं के साथ जाकर छह मास तक दस करोड़ महामृत्युंजय मंत्र का जाप किया। चंद्र देव की आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शिव और माता पार्वती वहां प्रकट हुए और चंद्र देव को अमरता का वरदान दिया। दक्ष के शाप का असर उन्होंने यह वरदान देकर कम कर दिया कि महीने के पंद्रह दिनों में चंद्र देव के शरीर का थोड़ा−थोड़ा क्षय घटेगा और इन पंद्रह दिनों को कृष्ण पक्ष कहा जाएगा। बाद की पंद्रह तिथियों में रोज चंद्र देव का शरीर थोड़ा−थोड़ा बढ़ते हुए पंद्रहवें दिन पूरा हो जाएगा। इन पंद्रह दिनों को शुक्ल पक्ष कहा जाएगा। इस वरदान से चंद्र देव का संकट टल गया और वह फिर से समूचे जगत पर चांदनी बरसाने लगे। इस दौरान चंद्र देव और अन्य देवताओं ने भगवान शिव से माता पार्वती समेत वहीं वास करने की प्रार्थना की, जिसे भगवान शिव ने स्वीकार कर लिया और वहीं वास करने लगे।

मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग− कर्नाटक के कृष्णा जिले में मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के रूप में महादेव शिव का महादेवी सहित वास है। यह ज्योतिर्लिंग कृष्णा नदी के तट पर श्री शैल पर्वत पर है। धर्म ग्रंथों में कहा गया है कि श्री शैल के दर्शन मात्र से ही सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना से जुड़ी कथा इस प्रकार है− भगवान शिव के दोनों पुत्र श्रीगणेश और स्वामी कार्तिकेय में इस बात पर विवाद हो गया कि पहले किसका विवाह हो। इस पर पिता भगवान शिवजी और माता पार्वती ने कहा कि जो पहले धरती की परिक्रमा करके लौटेगा उसी का विवाह पहले कराया जाएगा। इस पर फुर्तीले कार्तिकेय तुरंत परिक्रमा के लिए निकल गए लेकिन श्रीगणेश चूंकि शरीर से मोटे थे, इसलिए वह उस फुर्ती से नहीं निकल पाए और इसके लिए उन्होंने नया उपाय ढूंढ निकाला। शास्त्रों के अनुसार, माता−पिता की पूजा धरती की ही परिक्रमा मानी जाती है और उसका भी वही फल मिलता है जोकि पूरी धरती की परिक्रमा से मिलता है। इस उपाय के ध्यान में आते ही श्रीगणेश जी ने माता पार्वती और पिता शिव शंकर को आसन पर बिठाकर उनकी पूजा शुरू कर दी। इससे प्रसन्न होकर भगवान शिव शंकर ने उनकी शादी विश्वरूप प्रजापति की दो कन्याओं रिद्धि और सिद्धि से करा दी। इधर जब तक स्वामी कार्तिकेय धरती की परिक्रमा करके माता−पिता के पास पहुंचे तब तक श्रीगणेश जी क्षेम और लाभ नाम के दो पुत्रों के पिता भी बन चुके थे। इस पर कार्तिकेय माता−पिता के पैर छूने के बाद रूठकर क्रौंच पर्वत पर चले गए। माता−पिता बाद में उन्हें मनाने के लिए मल्लिका और अर्जुन के रूप में वहां गए तो उनके आने की खबर सुनते ही कार्तिकेय वहां से भागकर तीन योजन पर चले गए। क्रौंच पर्वत (श्री शैल) क्षेत्र के निवासियों के कल्याण हेतु भगवान शिव शंकर और माता पार्वती वहीं ज्योतिर्लिंग के रूप में बस गए।

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श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग− श्री महाकालेश्वर का स्थान भगवान शिव के ज्योतिर्लिंगों में तीसरा है। यह मध्य प्रदेश की उज्जैन नगरी में स्थित है। उज्जैन में क्षिप्रा नदी से कुछ दूरी पर स्थित मंदिर में ज्योतिर्लिंग विद्यमान है। इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना से जुड़ी कथा इस प्रकार है− उज्जैन में चंद्रसेन नामक शिवभक्त राजा था। श्रीकर नामक एक पांच वर्ष के बालक ने एक बार राजा को शिवलिंग की पूजा करते देखा तो घर आते समय वह एक पत्थर का टुकड़ा घर ले आया और उसी को शिवलिंग मानकर उसकी पूजा करने लगा। यह देखकर उस बालक की माता ने पत्थर उठाकर घर से बाहर फेंक दिया और बालक को घर के अंदर ले जाने लगी तो बालक चीख−पुकार करने लगा और भगवान शिव शंकर को मदद के लिए पुकारते−पुकारते बेहोश हो गया। इस पर भगवान शिव से रहा नहीं गया और जब बालक होश में आया तो उसने देखा कि सामने सोने के दरवाजों वाला विशाल मंदिर है। उसके अंदर उपस्थित ज्योतिर्लिंग रोशनी की अद्भुत छटा बिखेर रहा है। इस पर बालक पहले तो अचरज में डूबा और फिर खुश होकर भगवान शिव की स्तुति करने लगा। जब बालक की माता ने यह सब देखा तो बालक को उठा कर गले से लगा लिया। यह खबर जंगल में आग की तरह फैल गई और राजा चंद्रसेन भी यह चमत्कार देखने को आया और उसने उस बालक की भक्ति की सराहना की। तभी वहां हनुमान जी प्रकट हुए और उन्होंने भी बालक की भक्ति की सराहना की। यही ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप में पूजा जाता है।

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग− मध्य प्रदेश की ही नगरी शिवपुरी में मान्धाता पर्वत पर भगवान शिव ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप में मौजूद हैं। इसकी स्थापना से जुड़ी कथा इस प्रकार है− एक बार विन्ध्य पर्वत ने छह महीने तक ओंकारनाथ की तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिवजी प्रकट हुए और विन्ध्यांचल को वरदान स्वरूप ज्योतिर्लिंग के रूप में वहां पर वास करने का वचन दिया।

केदारनाथ ज्योतिर्लिंग− केदारनाथ ज्योतिर्लिंग हिमालय पर्वत श्रृंखला में केदार नामक पर्वत पर स्थित है। यह पर्वत हमेशा तीन ओर से बर्फ से ढंका रहता है। केदारनाथ तीर्थ की गणना केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री के रूप में चार धामों में की जाती है। कहा जाता है कि बद्रीनाथ के दर्शन करने वाले भक्तों को पहले केदारनाथ के दर्शन करना जरूरी है अन्यथा उनकी तीर्थयात्रा का कोई फल नहीं मिलता। इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना से जुड़ी कथा इस प्रकार है− नर और नारायण नामक दो ऋषि जिनको भगवान श्री विष्णु का अवतार माना जाता है, उन्होंने एक बार अपनी तपस्या से भगवान शिवजी को प्रसन्न कर लिया फिर जब भगवान शिवजी प्रकट हुए तो नर और नारायण की प्रार्थना को स्वीकार करते हुए वहीं ज्योतिर्लिंग के रूप में वास करने का वचन दिया।

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भीमशंकर ज्योतिर्लिंग− भीमशंकर ज्योतिर्लिंग असम में गुवाहाटी के पास ब्रह्मपुत्र पहाड़ी पर स्थित है। इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना से जुड़ी कथा इस प्रकार है− कामरूप देश जोकि असम राज्य ही है, में कामरूपेश्वर नामक एक महाप्रतापी और महान शिवभक्त राजा का राज था। एक बार महाराक्षस भीम वहां आया और धर्म के उपासकों को पूजा छोड़ने की धमकी देने लगा और ऐसा करते−करते वह शिवभक्ति में लीन राजा के पास पहुंचा और उसे ललकारने लगा। इस पर राजा ने उसकी ललकार को अनसुनी कर दिया और शिवभक्ति में लीन रहे। भीम ने राजा को फिर ललकारा और भगवान शिवजी की निंदा करने लगा। जब राजा ने उसे ऐसा करने से मना किया तो वह नहीं माना और उसने राजा पर तलवार से वार कर दिया। तलवार राजा की बजाय शिवलिंग पर लगी तभी भगवान शिवजी तत्काल प्रकट हुए और उन्होंने महाराक्षस का वध कर डाला। इस पर ऋषियों और मुनियों ने भगवान शिव से वहां ज्योतिर्लिंग के रूप में वास करने की प्रार्थना की तो शिवजी मान गए। तभी से उस ज्योतिर्लिंग का नाम भीमशंकर पड़ गया।

विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग− काशी नगरी में श्री विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थित है। कहा जाता है कि प्रलयकाल में भी काशी नगरी का कुछ नहीं बिगड़ता। भगवान शिवजी इसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और फिर सृष्टि की शुरुआत होने पर इसे नीचे उतार देते हैं। इसी स्थल पर भगवान श्री विष्णुजी ने स्रोनिज सृष्टि पैदा करने की कामना लेकर भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए घोर तप किया था। इस दौरान भगवान श्रीविष्णु के सोने पर उनकी नाभि से कमल पर बैठे ब्रह्माजी ने जन्म लिया था जिन्होंने सारे संसार की रचना की थी। कहा जाता है कि यहां प्राण त्याग करने वालों के कान में भगवान शिवजी तारक मंत्र का उपदेश देते हैं जिससे वह प्राणी मोक्ष को पा जाता है। काशी में यह ज्योतिर्लिंग विश्वनाथ मंदिर में प्रतिष्ठापित है।

त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग− महाराष्ट्र के नासिक में त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थित है। यहां एक नहीं तीन छोटे−छोटे लिंग हैं, जिन्हें ब्रह्मा, विष्णु और महेश इन तीन देवों का प्रतीक कहा जाता है। इसी कारण इस ज्योतिर्लिंग को त्र्यम्बकेश्वर कहा गया है। कहा जाता है कि गौतम ऋषि और गोदावरी की प्रार्थना से भगवान शिव ने यहां ज्योतिर्लिंग के रूप में वास करने की कृपा की और त्र्यम्बकेश्वर नाम से विश्व विख्यात हुए।

बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग− झारखंड के देवधर में स्थित है श्री बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग। कहा जाता है कि एक बार राक्षसों के राजा रावण ने कैलाश पर्वत जाकर भगवान शिवजी की तपस्या की और अपने नौ सिर काट कर बारी−बारी से शिवलिंग पर चढ़ा दिए। जब वह अपना दसवां सिर काटने लगा तो भगवान शिवजी प्रकट हुए और रावण से वरदान मांगने को कहा। इस पर रावण ने ज्योतिर्लिंग रूप में भगवान शिवजी से चलकर लंका में रहने का अनुरोध किया तो भगवान शिवजी ने कहा कि यदि ज्योतिर्लिंग मार्ग में भूमि पर रख दिया तो वह वहीं रह जाएगा। रावण ज्योतिर्लिंग लेकर चल दिया चलते−चलते उसे लघुशंका हुई तो वह एक राहगीर को शिवलिंग थमाकर लघुशंका के लिए चला गया। उस राहगीर से जब शिवलिंग का बोझ सहन नहीं हुआ तो उसने उसे वहीं रख दिया। जब रावण लौटकर आया तो उसने देखा कि शिवलिंग मार्ग पर रखा हुआ है, उसने उसे उठाने की भरपूर कोशिश की लेकिन वह नहीं उठा। हारकर रावण लंका चला गया। उसके जाने के बाद ब्रह्मा, विष्णु और अन्य देवतागण वहां पधारे और उन्होंने पूजा−अर्चना के बाद उसी स्थान पर ज्योतिर्लिंग की प्रतिष्ठा कर दी।

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नागेश्वर ज्योतिर्लिंग− नागेश्वर ज्योतिर्लिंग गुजरात के द्वारका के द्वारूकवन में स्थित है। इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना से जुड़ी कथा इस प्रकार है− सुप्रिय नामक एक वैश्य भगवान शिवजी का अनन्य भक्त था। एक बार जब वह नौका पर सवार होकर कहीं जा रहा था तो दारूक नामक राक्षस ने उस पर आक्रमण कर दिया और सुप्रिय तथा उसके साथी यात्रियों को पकड़कर अपनी पुरी ले जाकर जेल में बंद कर दिया। सुप्रिय जेल में भी शिवभक्ति में ही लीन रहता था। इसकी खबर जब दारूक को मिली तो वह वहां आकर सुप्रिय को डांटने और फटकारने लगा। जब सुप्रिय पर इसका कोई असर नहीं पड़ा तो दारूक ने अपने सेवकों से उसकी हत्या करने को कह दिया। इस पर भी सुप्रिय तनिक भी विचलित नहीं हुआ। यह सब जब भगवान शिवजी से नहीं देखा गया तो वह कारागार में ही सोने के चमकते हुए सिंहासन पर ऊंचे ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए। उन्होंने सुप्रिय को अपना पाशुपात नामक अचूक अस्त्र भी दिया और दर्शन देकर अर्न्तध्यान हो गए। सुप्रिय ने इस अस्त्र से राक्षस का वध कर दिया और शिवधाम को चला गया। भगवान शंकर के आदेशानुसार, इस ज्योतिर्लिंग का नाम नागेश्वर ज्योतिर्लिंग रख दिया गया।

रामेश्वर ज्योतिर्लिंग− सेतुबन्ध रामेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्थापना स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने की थी। श्रीराम जब लंका पर चढ़ाई करने के लिए समुद्र तट पर पहुंचे तो वहां पानी पीने लगे। तभी आकाशवाणी सुनाई दी− ''मेरी पूजा किए बगैर जल पीते हो।'' इस वाणी को सुनकर भगवान श्रीराम ने तट की रेत से ही वहीं लिंग मूर्ति बनाई और शिवजी की आराधना करने लगे। तभी भगवान शिवजी प्रसन्न होकर वहां प्रकट हुए तो श्रीरामजी ने रावण पर विजय का आशीर्वाद मांगा, जो शिवजी ने सहर्ष ही दे दिया। श्रीरामजी ने संसार के उपकार के लिए भगवान शंकरजी से ज्योतिर्लिंग के रूप में सदैव वहां वास करने का वचन भी ले लिया। इस प्रकार रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग की स्थापना हुई।

धुष्मेश्वर ज्योतिर्लिंग− महाराष्ट्र के औरंगाबाद में इलोरा गुफाओं के पास स्थित है श्री धुष्मेश्वर ज्योतिर्लिंग। धुष्मेश्वर महादेव के दर्शन से सभी पाप दूर हो जाते हैं और जीवन में सुख ही सुख आ जाता है। इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना से जुड़ी कथा इस प्रकार है− दक्षिण देश में देवागिरि पर्वत के पास सुधर्मा नामक ब्राह्मण अपनी पत्नी सुदेहा के साथ रहता था। दोनों में बहुत प्यार था और दोनों ही सुखपूर्वक रह रहे थे। उन्हें एक ही दुख था कि उनकी कोई संतान नहीं थी। सुधर्मा ज्योतिषी भी था, उसने अपने ज्योतिष गणित से यह पता लगा लिया था कि सुदेहा से उसे संतान सुख नहीं मिलेगा और यह बात उसने सुदेहा को भी बता दी थी। ऐसे में सुदेहा ने अपनी बहन धुश्मा से दूसरा विवाह करने का प्रस्ताव अपने पति के समक्ष रखा तो पहले तो सुधर्मा ने मना कर दिया लेकिन बाद में वह सुदेहा की जिद के आगे मान ही गया। धुश्मा भी अच्छे संस्कारों वाली थी वह नित्य 101 पार्थिव शिवलिंग बनाकर उनका विधिवत पूजन कर उन्हें जल में प्रवाहित करती थी। भगवान शिवजी की कृपा से कुछ ही दिनों में धुश्मा गर्भवती हो गई और उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। पूरा परिवार खुश हो गया लेकिन कुछ दिनों बाद सुहेहा को अपना बांझपन खलने लगा और उसे सौतिया डाह सताने लगी। जैसे−जैसे धुश्मा का पुत्र बड़ा होता गया वैसे−वैसे सुदेहा की जलन भी बढ़ती गई। धुश्मा का पुत्र जवान हो गया और उसका विवाह भी हो गया। सुदेहा अब स्वयं को असुरक्षित मानने लगी। वह सोचती रहती कि धुश्मा का पुत्र और उसकी पत्नी उसकी सारी संपत्ति हड़प लेंगे। एक दिन जब रात में धुश्मा का पुत्र अपनी पत्नी के साथ सो रहा था तभी सुदेहा ने उसे मार डाला और उसका शव उसी तालाब में ले जाकर डाल दिया जिसमें धुश्मा रोज पार्थिव शिवलिंगों को प्रवाहित करती थी। सुबह धुश्मा की बहु ने अपने पति को गायब पाया और बिस्तर पर खून देखा तो वह रोने लगी। लेकिन धुश्मा अपने नित्य कार्यों में लगी रही और उसने 101 पार्थिव शिवलिंग बनाकर उनकी पूजा की और उन्हें तालाब में छोड़ने ले गई। तालाब में शिवलिंगों को प्रवाहित करने के बाद जब वह घर लौटने लगी तो उसने देखा कि तालाब में से उसका पुत्र जीवित होकर बाहर निकल आया। इस सारी घटना को धुश्मा ने भगवान शिव की ही लीला मानी। इस पर प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हुए और उन्होंने धुश्मा से वर मांगने को कहा तो धुश्मा ने कहा कि भगवन् आप यहीं इसी स्थान पर सदा के लिए वास करें मैं आपसे ऐसा वरदान मांगती हूं। तभी ऐसा ही होगा कहकर भगवान शिवजी ज्योतिर्लिंग के रूप में बदल गए और धुश्मा ने उनकी विधिवत प्रतिष्ठा कर दी।

-शुभा दुबे

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