Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-5

Vidur Niti
Prabhasakshi
आरएन तिवारी । Mar 22 2024 2:23PM

विष का रस एक (पीने वाले) को ही मारता है, शस्त्र से एक का ही वध होता है, किंतु मन्त्र का फूटना राष्ट्र और प्रजा के साथ ही राजा का भी विनाश कर डालता है। अत: मंत्रिमण्डल में फूट न पड़े इसका विशेष ध्यान रखना चाहिए।

मित्रो ! आज-कल हम लोग विदुर नीति के माध्यम से महात्मा विदुर के अनमोल वचन पढ़ रहे हैं, तो आइए ! महात्मा विदुर जी की नीतियों को पढ़कर कुशल नेतृत्व और अपने जीवन के कुछ अन्य गुणो को निखारें और अपना मानव जीवन धन्य करें। 

प्रस्तुत प्रसंग में विदुर जी महाराज धृतराष्ट्र को “उचित क्या है और अनुचित क्या है” यह समझाते हुए क्षमा की विस्तृत व्याख्या करते हुए कहते हैं कि---

एकं विषरसो हन्ति शस्त्रेणैकश्च वध्यते ।

सराष्ट्रं स प्रजां हन्ति राजानं मन्त्रविस्रवः ॥ 

विष का रस एक (पीने वाले) को ही मारता है, शस्त्र से एक का ही वध होता है, किंतु मन्त्र का फूटना राष्ट्र और प्रजा के साथ ही राजा का भी विनाश कर डालता है। अत: मंत्रिमण्डल में फूट न पड़े इसका विशेष ध्यान रखना चाहिए।   

एकः स्वादु न भुञ्जीत एकश्चार्थान्न चिन्तयेत् ।

एको न गच्छेदध्वानं नैकः सुप्तेषु जागृयात् ॥ 

अकेले स्वादिष्ट भोजन न करे, अकेला किसी विषय का निश्चय न करे, अकेला रास्ता न चले और बहुत-से लोग सोये हों तो उनमें अकेला न जागता रहे ।। 

एकमेवाद्वितीयं तद्यद्राजन्नावबुध्यसे ।

सत्यं स्वर्गस्य सोपानं पारावारस्य नौरिव ॥ ५२ ॥

राजन् ! जैसे समुद्र के पार जाने के लिये नाव ही एकमात्र साधन है, उसी प्रकार स्वर्ग के लिये सत्य ही एकमात्र सोपान है, दूसरा नहीं, किंतु आप इसे नहीं समझ रहे हैं ॥ आपको सत्य का मार्ग अपनाना चाहिए। 

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एकः क्षमावतां दोषो द्वितीयो नोपलभ्यते ।

यदेनं क्षमया युक्तमशक्तं मन्यते जनः ॥ 

क्षमाशील पुरुषों में एक ही दोष होता है, दूसरे की तो सम्भावना ही नहीं रहती। वह दोष यह है कि क्षमाशील मनुष्य को लोग असमर्थ समझ लेते हैं ॥ 

सोऽस्य दोषो न मन्तव्यः क्षमा हि परमं बलम् ।

क्षमा गुणो ह्यशक्तानां शक्तानां भूषणं तथा ॥ 

किंतु क्षमाशील पुरुष का वह दोष नहीं मानना चाहिये; क्योंकि क्षमा बहुत बड़ा बल है। क्षमा असमर्थ मनुष्यों का गुण तथा समर्थवानों का आभूषण है ॥ 

क्षमा वशीकृतिर्लोके क्षमया किं न साध्यते ।

शान्तिशङ्खः करे यस्य किं करिष्यति दुर्जनः ॥ 

इस जगत में क्षमा वशीकरणरूप है । भला, क्षमा से क्या नहीं सिद्ध होता ? जिसके हाथ में क्षमा और शान्ति रूपी तलवार है, उसका दुष्ट पुरुष क्या कर लेंगे ? ॥ 

अतृणे पतितो वह्निः स्वयमेवोपशाम्यति ।

अक्षमावान्परं दोषैरात्मान्ं चैव योजयेत् ॥ 

जैसे तृण और काष्ठ से रहित स्थान में गिरी हुई आग अपने-आप बुझ जाती है वैसे ही क्षमाहीन पुरुष अपने को तथा दूसरे को भी दोष का भागी बना लेता है ॥ 

एको धर्मः परं श्रेयः क्षमैका शान्तिरुत्तमा ।

विद्यैका परमा दृष्टिरहिंसैका सुखावहा ॥ 

विदुर जी कहते हैं, हे राजन ! केवल धर्म ही परम कल्याणकारक है।  एकमात्र क्षमा ही शान्ति का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। एक विद्या ही परम सन्तोष देनेवाली है और एकमात्र अहिंसा से ही सुख प्राप्त होता है॥ 

द्वाविमौ ग्रसते भूमिः सर्पो बिलशयानिव ।

राजानं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम् ॥ 

बिल में रहने वाले मेढक जैसे जीवों को जिस प्रकार साँप खा जाता है, उसी प्रकार यह पृथ्वी शत्रु से विरोध न करने वाले राजा और परदेश-सेवन न करने वाले ब्राह्मण-इन दोनों को खा जाती है ॥ 

द्वे कर्मणी नरः कुर्वन्नस्मिँल्लोके विरोचते ।

अब्रुवन्परुषं किं चिदसतो नार्थयंस्तथा ॥ 

जो मनुष्य जरा भी कठोर नहीं बोलता और दुष्ट पुरुषों का आदर नहीं करता वह मनुष्य इस लोक में विशेष शोभा पाता है ॥ 

द्वाविमौ कण्टकौ तीक्ष्णौ शरीरपरिशोषणौ ।

यश्चाधनः कामयते यश्च कुप्यत्यनीश्वरः ॥ 

निर्धन व्यक्ति को बहुमूल्य वस्तु की इच्छा नहीं रखनी चाहिए और असमर्थ व्यक्ति को कभी भी क्रोध नहीं करना चाहिए । ये दोनों ही अपने शरीर को सुखा देने वाले काँटों के समान होते हैं ॥ 

द्वावेव न विराजेते विपरीतेन कर्मणा ।

गृहस्थश्च निरारंभः कार्यवांश्चैव भिक्षुकः ॥ 

अपने विपरीत कर्म के कारण ये दो लोग शोभा नहीं पाते, पहला अकर्मण्य गृहस्थ और प्रपञ्च में लगा हुआ संन्यासी । अभिप्राय यह है कि गृहस्थ को कर्मशील होना चाहिए और सन्यासी को प्रपंच से दूर रहना चाहिए।  

द्वाविमौ पुरुषौ राजन्स्वर्गस्य परि तिष्ठतः ।

प्रभुश्च क्षमया युक्तो दरिद्रश्च प्रदानवान् ॥ 

राजन् ! ये दो प्रकार के पुरुष स्वर्ग से भी ऊपर स्थान पाते हैं-शक्तिशाली होने पर भी क्षमा करने वाला और निर्धन होने पर भी दान देने वाला ॥ 

न्यायागतस्य द्रव्यस्य बोद्धव्यौ द्वावतिक्रमौ ।

अपात्रे प्रतिपत्तिश्च पात्रे चाप्रतिपादनम् ॥ 

न्यायपूर्वक उपार्जित किये हुए धन के दो ही दुरुपयोग समझने चाहिये, पहला अपात्र को देना और दूसरा सत्पात्र को न देना ॥ 

द्वावंभसि निवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दृढं शिलाम् ।

धनवन्तमदातारं दरिद्रं चातपस्विनम् ॥ 

जो धनी होने पर भी दान न दे और दरिद्र होने पर भी कष्ट सहन न कर सके ऐसे मनुष्यों को गले में मजबूत पत्थर बाँधकर पानी में डुबा देना चाहिये।  

द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र सुर्यमण्डलभेदिनौ ।

परिव्राड्योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखो हतः ॥ 

हे पुरुषश्रेष्ठ ! ये दो प्रकार के पुरुष सूर्यमण्डल को भेदकर ऊर्ध्वगति को प्राप्त होते हैं- योगयुक्त संन्यासी और संग्राम में लोहा लेते हुए मारा गया योद्धा ॥ 

शेष अगले प्रसंग में ------

श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय । 

- आरएन तिवारी

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