Gyan Ganga: लंका में अंगद के सामने सभी योद्धा सिर नीचा करके क्यों बैठ गये थे?

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Prabhasakshi
सुखी भारती । Sep 15 2023 12:03PM

वीर अंगद बोले! अरे मूर्ख! तू जाकर श्रीराम जी के पावन चरण क्यों नहीं पकड़ता? मेरे चरण पकड़ने में क्या रखा है? यह सुन कर वह मन में संकुचाकर लौट गया। वह ऐसा तेजहीन हो गया, जैसे मध्याह्न में चन्द्रमा दिखाई देता है।

रावण की सभा में वीर अंगद ने, प्रभु श्रीराम जी के आशीर्वाद से, वो पराक्रम किया, जिसे युगों-युगों तक इस धरा का जन-जन गायेगा। वीर अंगद का पराक्रम मात्र यह नहीं था, कि उन्होंने रावण की सभा में निर्भय होकर रावण को ललकारा व फटकारा। बल्कि वीर अंगद का वह प्रण ही विशेष था, जो शायद एक अकेले वीर अंगद ही कर सकते थे। जी हाँ! वीर अंगद ने संपूर्ण लंका के बल व सामर्थ को चुनोती देते हुए दहाड़ मारी, कि हे रावण-

‘जौं मम चरन सकसि सठ टारी।

फिरहिं रामु सीता मैं हारी।।

सुनहु सुभट सब कह दससीसा।

पद गहि धरनि पछारहु कीसा।।’

अरे मूर्ख! यदि तू मेरा चरण हटा सके तो श्रीराम लौट जाएँगे, मैं सीता को हार गया। रावण ने वीर अंगद के यह शब्द सुनें, तो मानों उसे तो पकी पकाई दाल खाने का शुभ अवसर हाथ लग गया था। उसने तत्काल ही आदेश दिया, कि हे मेरे समस्त वीरो! सुनो, और इस बंदर का पैर पकड़कर पुथ्वी पर पछाड़ दो। बस फिर क्या था। सभी अपने-अपने आसनों से उठे, और वीर अंगद जी के चरण पकड़कर, उन्हें पछाड़ने का प्रयास करने लगे। सबको तो यही लगा, कि जैसे वे किसी धनिया के पौधे को उखाड़ने को चले हों। लेकिन उन्हें क्या पता था, कि जिसे वे धनिया का नन्हां पौधा समझ कर झपटने वाले हैं, वह तो निरा बरगद का पेड़ है। जिसे उखाड़ने में समस्त लंका के योद्धाओं का संपूर्ण बल भी कम पड़ने वाला था। इंद्रजीत आदि अनेकों बलवान योद्धा जहाँ तहाँ से हर्षित होकर उठे, और वे पूरे बल से बहुत उपाय करके झपटते हैं। पर वीर अंगद का पैर टलता ही नहीं। तब सिर नीचा करके सभी लंका के योद्धा, फिर अपने-अपने स्थान पर बैठ जाते हैं-

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‘भूमि न छाँड़त कपि चरन देखत रिपु मद भाग।

कोटि बिघ्न ते संत कर मन जिमि नीति न त्याग।।’

जैसे करोड़ों व्याधियां व अड़चने आने पर भी संत का मन नीति को नहीं छोड़ता, वैसे ही वीर अंगद का चरण पृथ्वी को नहीं छोड़ता। यह देखकर शत्रु का मद दूर हो गया। रावण ने जब देखा, कि वीर अंगद का चरण कोई भी नहीं उठा पा रहा है, तो अंत में वह स्वयं उठा। वह जैसे ही वीर अंगद का चरण पकड़ने लगा। तभी वीर अंगद ने अपना चरण पीछे हटा लिया, और बोले-

‘गहसि न राम चरन सठ जाई।

सुनत फिरा तन अति सकुचाई।।

भयउ तेजहत श्री सब गई।

मध्य दिवस जिमि ससि सोहई।।’

वीर अंगद बोले! अरे मूर्ख! तू जाकर श्रीराम जी के पावन चरण क्यों नहीं पकड़ता? मेरे चरण पकड़ने में क्या रखा है? यह सुन कर वह मन में संकुचाकर लौट गया। वह ऐसा तेजहीन हो गया, जैसे मध्याह्न में चन्द्रमा दिखाई देता है। परम आश्चर्य था, कि रावण की सभा में एक भी ऐसा योद्धा नहीं था, जो कि वीर अंगद का चरण हटा सके। विचारणीय तथ्य है, कि क्या सचमुच वीर अंगद का पैर इतना भारी हो गया था? तो इसका स्टीक उत्तर भगवान शिव देते हैं-

‘उमा राम की भृकुटि बिलासा।

होइ बिस्व पुनि पावइ नासा।।

तृन ते कुलिस कुलिस तृन करई।

तासु दूत पन कहु किमि टरई।।’

शिव जी कहते हैं, कि श्रीराम के भौंह के इशारे से विश्व उत्पन्न होता है और फिर नाश का प्राप्त होता हैं। जो तृण को वज्र और वज्र को तृण बना देते हैं। अर्थात अत्यंत निर्बल को महान प्रबल और महान प्रबल को अत्यंत निर्बल कर देते हैं। उनके दूत का प्रण कहो, कैसे टल सकता है? अर्थात वीर अंगद के पैर जम जाने के पीछे श्रीराम जी का ही बल था।

इसके पश्चात वीर अंगद जी अनेको नीतियां व उपदेस दे, लंका से चले गए। हालाँकि रावण को कोई उपदेस भा ही नहीं सकता था। कारण कि रावण का काल जो निकट आ गया था।

लंका काण्ड यहीं पर विराम लेता है---क्रमशः---

-सुखी भारती

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