वंदे मातरम को विभाजित कर पंडित नेहरू ने देश विभाजन के बीज बो दिये थे

narendra modi
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बताया जाता है कि 1937 में जब जिन्ना ने कहा कि “वंदे मातरम् मुसलमानों को चुभता है,” तब कांग्रेस के तत्कालीन नेता जवाहरलाल नेहरू झुक गए थे। उन्होंने राष्ट्रगीत के तीन पैराग्राफ को हटा दिया था। यह पैराग्राफ माँ भारती की महिमा, शक्ति और वैभव का वर्णन करते थे।

“वंदे मातरम्”, यह केवल एक गीत नहीं, यह भारत की आत्मा है। यह वह पुकार थी जिसने गुलामी की बेड़ियाँ तोड़ीं, यह वह मंत्र था जिसने अनगिनत क्रांतिकारियों को शहादत की राह पर भेजा। यह उस भारत माता का जयगान है, जिसने अपने बेटों को आज़ादी की ज्योति दी। लेकिन दुर्भाग्य देखिए, उसी “वंदे मातरम्” को, जिसे गाते हुए लाखों लोगों ने फाँसी के फंदे को चूमा, उसे 1937 में “खंडित” कर दिया गया था और यह किया गया था पंडित जवाहरलाल नेहरू के आदेश पर, सिर्फ़ और सिर्फ़ जिन्ना को खुश करने के लिए। यह था भारत के इतिहास का सबसे बड़ा आत्मघाती तुष्टिकरण।

बताया जाता है कि 1937 में जब जिन्ना ने कहा कि “वंदे मातरम् मुसलमानों को चुभता है,” तब कांग्रेस के तत्कालीन नेता जवाहरलाल नेहरू झुक गए थे। उन्होंने राष्ट्रगीत के तीन पैराग्राफ को हटा दिया था। यह पैराग्राफ माँ भारती की महिमा, शक्ति और वैभव का वर्णन करते थे। तर्क दिया गया था कि ये पैराग्राफ “हिंदू प्रतीकों” से भरे हैं, इसलिए मुस्लिम लीग असहज है। लेकिन सवाल यह है कि क्या आज़ादी का आंदोलन केवल किसी एक मज़हब का आंदोलन था? क्या भारत माता की वंदना किसी मज़हब से टकराती है, या वह इस देश के प्रति समर्पण का प्रतीक है?

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नेहरू ने उस समय “वंदे मातरम्” गीत के शब्दों को ही नहीं काटा था, बल्कि राष्ट्र की आत्मा को भी आघात पहुँचाया था। देखा जाये तो उसी क्षण भारत की राजनीति में “तुष्टिकरण” का बीज बोया गया, जो आगे चलकर विभाजन के रक्तरंजित पेड़ के रूप में पनपा। प्रधानमंत्री मोदी ने आज ठीक यही बात दोहराई कि “वंदे मातरम् का विभाजन ही देश के विभाजन का बीज था।” जब प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि “वंदे मातरम् के टुकड़े किए गए, उसकी आत्मा को तोड़ा गया,” तो यह केवल इतिहास की पुनर्स्मृति नहीं थी, यह उन सभी राजनैतिक शक्तियों को सीधा संदेश था जो आज भी उसी विभाजनकारी मानसिकता को ढो रही हैं। मोदी का यह वक्तव्य एक राजनीतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक घोषणापत्र था— कि भारत अब आत्मगौरव से समझौता नहीं करेगा।

देखा जाये तो आज की कांग्रेस वही गलती दोहरा रही है। राहुल गांधी खुले मंचों पर “वंदे मातरम्” को एक लाइन में सीमित करने की बात करते हैं। यह वही मानसिकता है जिसने कभी जिन्ना को मनाने के लिए भारत की आत्मा को चोट पहुँचाई थी। प्रधानमंत्री मोदी का आज का बयान इस राष्ट्र को याद दिलाने के लिए था कि अगर हम अपनी जड़ों से शर्माएंगे, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें माफ़ नहीं करेंगी।

इसके साथ ही यह भी दुखद है कि आज भी कुछ मुस्लिम नेता “वंदे मातरम्” को इस्लाम-विरोधी कहकर इसका विरोध करते हैं। AIMIM के नेता खुलेआम कहते हैं कि “बंदूक की नली पर भी वंदे मातरम् नहीं बोलेंगे।” सवाल उठता है कि क्या यह आस्था का सवाल है, या अलगाव की राजनीति का नशा? क्योंकि उसी मुस्लिम समाज के भीतर से आने वाले महान नेता मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, रफ़ी अहमद किदवई, और आरिफ़ मोहम्मद ख़ान जैसे विद्वान “वंदे मातरम्” को भारत की आध्यात्मिक एकता का प्रतीक मानते रहे हैं। एआर रहमान ने इसे विश्व मंच पर माँ भारती की वंदना के रूप में प्रस्तुत किया। तो फिर यह विरोध कहाँ से आता है? जवाब साफ़ है— यह धार्मिक नहीं, राजनीतिक विरोध है।

यह वही राजनीति है जो हर बार “भारत माता की जय” या “वंदे मातरम्” को हिंदू बनाम मुसलमान का मुद्दा बना देती है, ताकि तुष्टिकरण की पुरानी दुकान चलती रहे। देखा जाये तो बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने जब “वंदे मातरम्” लिखा था, तब यह किसी पूजा का गीत नहीं था— यह राष्ट्र-भक्ति की साधना थी। इस गीत ने बंगाल से लेकर पंजाब तक, तमिलनाडु से लेकर गुजरात तक आज़ादी की ज्वाला जगाई। श्री अरविंदो ने इसे “देशभक्ति का नया धर्म” कहा था तो गांधीजी ने लिखा था— “मुझे कभी नहीं लगा कि वंदे मातरम् हिंदू गीत है, यह तो भारत की आत्मा की पुकार है।” आज अगर कुछ लोग इसे “मज़हबी” चश्मे से देखते हैं, तो दोष गीत का नहीं, दृष्टिकोण का है।

वंदे मातरम् के विरोध में खड़े लोग यह भूल जाते हैं कि जिन्होंने इसका विरोध किया, वही अंततः पाकिस्तान के निर्माण की मांग लेकर आए। और जिन्होंने “वंदे मातरम्” गाया, वही भारत की अखंडता के रक्षक बने। यह गीत हिंदू या मुस्लिम का नहीं, भारत का है। नेहरू की गलती केवल तीन पदों को हटाने की नहीं थी, बल्कि यह मान लेने की थी कि राष्ट्र की भावना को वोट बैंक के आगे झुकाया जा सकता है। जो लोग आज भी “वंदे मातरम्” से ऐतराज़ रखते हैं, उन्हें यह समझना होगा कि “भारत माता” को प्रणाम करना किसी धर्म की वंदना नहीं, बल्कि उस भूमि के प्रति कृतज्ञता है जिसने हमें जन्म दिया। और जो इस माँ को स्वीकार नहीं करता, वह दरअसल अपने ही अस्तित्व से इंकार कर रहा है। वंदे मातरम्– यही भारत की पहचान है, यही उसकी आत्मा है, और यही उसका भविष्य।

-नीरज कुमार दुबे

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
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