वायु प्रदूषण की समस्या से सरकारें अकेले नहीं निबट सकतीं

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ललित गर्ग । Nov 14 2019 12:25PM

केवल पर्यावरण प्रदूषण ही नहीं, महानगर सामाजिक और सांस्कृतिक प्रदूषण की भी गंभीर समस्या उपजा रहे हैं। लोग अपनों से मानवीय संवेदनाओं से, अपनी लोक परंपराओं व मान्यताओं से कट रहे हैं और यह सब नये-नये खतरों को इजाद कर रहा है।

राजधानी दिल्ली में वायु प्रदूषण को लेकर जिस तरह के इमरजेंसी से बुरे हालात बने हुए हैं, धरती-आसमान एक करते हुए किसानों के माथे पर इसका दोष मढ़ने के प्रयास हो रहे हैं, समस्या की जड़ को पकड़ने की बजाय इस तरह के अतिश्योक्तिपूर्ण आरोपों को किसी भी रूप में तर्कपूर्ण नहीं कहा जा सकता। सबसे दुखद यह है कि प्रदूषण जैसे मुद्दे को भी राजनीतिक रंग दे दिया गया है और इसी पर वोटों की राजनीतिक लाभ की रोटियां सेंकने की कोशिशें की जा रही हैं। असल में देखें तो संकट वायु प्रदूषण का हो या जंगल का, स्वच्छ वायु का हो या फिर स्वच्छ जल का, सभी के मूल में विकास की वह अवधारणा है जिससे शहर रूपी सुरसा सतत विस्तार कर रही है और उसकी चपेट में आ रही है प्रकृति और उसकी नैसर्गिकता। जिसके कारण मनुष्य की सांसें उलझती जा रही हैं, जीवन पर संकट मंडरा रहा है। अगर हमें पूरी समस्या से लड़ना है, तो राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सहित महानगरों के स्तर पर और साथ ही पूरे देश के स्तर पर अपनी कई आदतों को बदलना होगा, विकास के तथाकथित मॉडल पर गंभीर चिन्तन करना होगा। वायु प्रदूषण का कारण पराली एवं सड़क पर दौड़ते निजी वाहनों में खोजने की बजाय हमें महानगरों के अनियोजित शहरीकरण में खोजना होगा।

असल में शहरीकरण के कारण पर्यावरण एवं प्रकृति को हो रहे नुकसान का मूल कारण अनियोजित शहरीकरण है। बीते दो दशकों के दौरान यह प्रवृत्ति पूरे देश में बढ़ी है। लोगों ने दिल्ली एवं ऐसे ही महानगरों की सीमा से सटे खेतों पर अवैध कालोनियां काट लीं। इसके बाद जहां कहीं सड़क बनीं, उसके आसपास के खेत, जंगल, तालाब को वैध या अवैध तरीके से कंक्रीट के जंगल में बदल दिया गया। देश के अधिकांश उभरते शहर अब सड़कों के दोनों ओर बेतरतीब बढ़ते जा रहे हैं। न तो वहां सार्वजनिक परिवहन है, न ही सुरक्षा, न ही बिजली-पानी की न्यूनतम व्यवस्था। यह विडम्बना ही है कि खेती की जमीनों का अधिग्रहण कर-करके बड़े शहर आबाद किये जाते हैं और इनके आबाद हो जाने के बाद उसे ही असभ्य कह कर दुत्कार दिया जाता है। राजधानी दिल्ली के विस्तार की गाथा इसके बीच बसे हुए गांव ही बिन कहे सुनाते रहते हैं। दरअसल स्वतन्त्र भारत के विकास के लिए हमने जिन नक्शे कदम पर चलना शुरू किया उसके तहत बड़े-बड़े शहर पूंजी केन्द्रित होते चले गये और रोजगार के स्रोत भी ये शहर ही बने। शहरों में सतत एवं तीव्र विकास और धन का केन्द्रीकरण होने की वजह से इनका बेतरतीब विकास स्वाभाविक रूप से इस प्रकार हुआ कि यह राजनीतिक दलों के अस्तित्व और प्रभाव से जुड़ता चला गया, लेकिन पर्यावरण एवं प्रकृति से कटता गया। वायु एवं जल प्रदूषण दिल्ली सहित महानगरों की विकराल समस्याएं हैं।

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दिल्ली इन दिनों जानलेवा वायु प्रदूषण की शिकार है, लोग अपने घरों तक में सुरक्षित नहीं हैं। कोलकाता, मुम्बई, पटना जैसे महानगरों में जल निकासी की माकूल व्यवस्था न होना शहर में जल भराव का स्थायी कारण बनता रहा है, वह भी जानलेवा होकर। मुम्बई में मीठी नदी के उथले होने और सीवर की 50 साल पुरानी व्यवस्था के जर्जर होने के कारण बाढ़ के हालात बनना सरकारें स्वीकार करती रही हैं। बेंगलुरू में पांरपरिक तालाबों के मूल स्वरूप में अवांछित छेड़छाड़ को बाढ़ का कारक माना जाता है। शहरों में बाढ़ रोकने के लिए सबसे पहला काम तो वहां के पारंपरिक जल स्रोतों में पानी की आवक और निकासी के पुराने रास्तों में बन गए स्थायी निर्माणों को हटाने का करना होगा। यदि किसी पहाड़ी से पानी नीचे बहकर आ रहा है तो उसका संकलन किसी तालाब में ही करना होगा। विडंबना है कि ऐसे जोहड़-तालाब कंक्रीट की नदियों में खो गए हैं। परिणामतः थोड़े ही बारिश में पानी कहीं बहने को बहकने लगता है और बाढ़ के हालात बन जाते हैं।

शहर के लिए सड़क चाहिए, बिजली चाहिए, जल चाहिए, मकान चाहिए और दफ्तर चाहिए। इन सबके लिए या तो खेत होम हो रहे हैं या फिर जंगल। जंगल को हजम करने की चाल में पेड़, जंगली जानवर, पारंपरिक जल स्रोत सभी कुछ नष्ट हो रहा है। यह वह नुकसान है जिसका हर्जाना संभव नहीं है और यही वायु प्रदूषण का बड़ा कारण है। शहरीकरण यानी रफ्तार और रफ्तार का मतलब है वाहन और वाहन है कि विदेशी मुद्रा भंडार से खरीदे गए ईंधन को पी रहे हैं और बदले में दे रहे हैं दूषित वायु। शहर को ज्यादा बिजली चाहिए यानी ज्यादा कोयला जलेगा, ज्यादा परमाणु संयंत्र लगेंगे। शहर का मतलब है औद्योगिकीकरण और अनियोजित कारखानों की स्थापना, जिसका परिणाम है कि हमारी लगभग सभी नदियां अब जहरीली हो चुकी हैं।

महानगरों की बढ़ती आबादी को सिर छुपाने को मकान चाहिए, जिसके लिये हरीतिमा क्षेत्रों को हम कंक्रीट के जंगल में तब्दील करते जा रहे हैं। नदी थी खेती के लिए, मछली के लिए, दैनिक कार्यों के लिए, न कि उसमें गंदगी बहाने के लिए। गांवों के कस्बे, कस्बों के शहर और शहरों के महानगर में बदलने की होड, एक ऐसी मृग मरीचिका में लगी है, जिसकी असलियत कुछ देर से खुलती है लेकिन जब खुलती है तब तक लोगों का सांस लेना दूभर हो चुका होता है, जीवन पर संकट के बादल मंडराने लगते हैं।

हमारे देश में संस्कृति, मानवता और जीवन का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है। सदियों से नदियों की अविरल धारा और उसके तट पर मानव जीवन फलता-फूलता रहा है। बीते कुछ दशकों में विकास की ऐसी धारा बही कि नदी की धारा आबादी के बीच आ गई और आबादी की धारा को जहां जगह मिली वह बस गई। और यही कारण कि हर साल कस्बे नगर बन रहे हैं और नगर महानगर। बेहतर रोजगार, आधुनिक जनसुविधाएं और उज्ज्वल भविष्य की लालसा में अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़कर शहर की चकाचैंध की ओर पलायन करने की बढ़ती प्रवृत्ति का परिणाम है कि देश में एक लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या लगभग 350 हो गई है जबकि 1971 में ऐसे शहर मात्र 151 थे। यही हाल दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों का है।

वायु प्रदूषण की हर वर्ष विकराल होती समस्या के समाधान की दिशा में एक लंबा रास्ता तय करना है। स्वच्छ वायु पाने के लिए हमें ईंधन खपत के अपने तरीके में व्यापक बदलाव करने होंगे। कोयले के इस्तेमाल को पूरी तरह से बंद करना होगा। हमें बसों, मेट्रो, साइकिल ट्रैक और पैदल पथ में निवेश करके सड़कों पर निजी वाहनों की संख्या में कमी करनी होगी। प्रदूषण फैलाने वाले पुराने वाहनों को उपयोग से हटाना होगा, लेकिन इन उपायों का तब तक ज्यादा लाभ नहीं होगा, जब तक कि हम प्रदूषण के स्थानीय स्रोतों पर लगाम नहीं लगाते। हमें कचरा-कूड़ा जलाने, धूल फैलाने और खाना बनाते समय अनावश्यक धुआं पैदा करने की आदत छोड़नी पडे़गी। दीपावली जैसे अवसरों पर आतिशबाजी पर कठोरता से अंकुश लगाना होगा। इन प्रदूषणों को प्रभावी ढंग से नियंत्रित करना तब तक मुश्किल है, जब तक कि जमीनी स्तर पर प्रयास नहीं किए जाते, जब तक हम इनका विकल्प नहीं खोज लेते। प्लास्टिक और अन्य औद्योगिक-घरेलू कचरे को अलग करना होगा, एकत्र करना होगा और शोधित करना होगा। कचरा कहीं फेंक देना या जला देना समाधान नहीं है। पॉलीथीन, घर-कारखानों से निकलने वाले रसायन और नष्ट न होने वाले कचरे की बढ़ती मात्रा, कुछ ऐसे कारण हैं जो कि शुद्ध वायु के दुश्मन हैं। महानगरों में सीवर और नालों की सफाई भ्रष्टाचार का बड़ा माध्यम है। यह कार्य किसी जिम्मेदार एजेंसी को सौंपना आवश्यक है वरना आने वाले दिनों में महानगरों में कई-कई दिनों तक पानी भरने की समस्या उपजेगी जो यातायात के साथ-साथ स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा होगा। केवल पर्यावरण प्रदूषण ही नहीं, महानगर सामाजिक और सांस्कृतिक प्रदूषण की भी गंभीर समस्या उपजा रहे हैं। लोग अपनों से मानवीय संवेदनाओं से, अपनी लोक परंपराओं व मान्यताओं से कट रहे हैं। जिसके कारण परम्परा एवं संस्कृति में व्याप्त पर्यावरण एवं प्रकृति संरक्षण के जीवन सूत्रों से हम दूर होते जा रहे हैं, ऐसे कारणों का लगातार बढ़ना ही दिल्ली जैसे महानगरों की वायु प्रदूषण और ऐसे ही पर्यावरण प्रदूषण के नये-नये खतरों को इजाद कर रहा है।

-ललित गर्ग

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