स्थानीय भाषाओं को साथ लेकर ही वैश्विक भाषा बन सकती है हिंदी

World Hindi Day
Prabhasakshi

अपनी सफलता की गारंटी स्थानीय बोध को हिंदी पत्रकारिता में पहली बार अमर उजाला ने माना। आगरा से शुरू होने वाला यह पहला अखबार था, जिसने स्थानीय बोध को स्वीकार किया और उत्तर प्रदेश के पहाड़ी इलाकों में अपनी पैठ बढ़ानी शुरू की थी।

आधुनिक खड़ी बोली हिंदी की विकास यात्रा की शुरुआत उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हुई। लेकिन इसे बीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों में ना सिर्फ गति मिली, बल्कि स्तरीयता के संदर्भ में एक मानक स्तर भी हासिल कर लिया। इस दौर में हिंदी जहां परिनिष्ठित होती है, वहीं उसे सौष्ठव पूर्ण बनाने की कोशिश भी शुरू होती है। इसी दौर में देखते हैं कि हिंदी राष्ट्रीय होने की ओर बढ़ती है और इसमें भावी बहुभाषी स्वतंत्र भारत की भाषाओं के बीच सेतु के तौर पर देखा जाता है। ब्रिटिश भारतविद् फ्रांचेस्का आर्सिनी इसी दौर की हिंदी को समूचे भारतीय राष्ट्र के मूल्यों का लोकवृत्त रचयिता के तौर पर देखती हैं। अमृत राय इसी दौर में हिंदी में राष्ट्रवाद के बीज भी देखते हैं। लेकिन जब बीसवीं सदी के उत्तरार्ध को देखते हैं तो हिंदी नए रूप में सामने आती है। विशेषकर हिंदी पत्रकारिता राष्ट्रीयता के स्थानीयता की ओर उन्मुख होती है और राष्ट्रीय से स्थानीय होने की इस यात्रा में वह स्थानीय भाषाओं के तमाम शब्दों को ना सिर्फ स्वीकार करती है, बल्कि उन्हें अपनी प्रवृत्ति के अनुसार ढालकर स्थानीय संपर्क का जीवंत माध्यम बन जाती है।

अंग्रेजी के प्रसिद्ध उपन्यासकार और साहित्यालोचक ईएम फास्टर ने 1927 में ट्रिनिटी कॉलेज लंदन में कुछ व्याख्यान दिए थे। वे व्याख्यान ‘आस्पेक्ट ऑफ नॉलेज’ नाम से पुस्तक रूप में प्रकाशित हैं। हिंदी में इसका अनुवाद भी प्रकाशित है, ‘उपन्यास के पक्ष’। इन्हीं में से एक व्याख्यान में फास्टर ने बड़ी बात कही है। उन्होंने कहा है कि वैश्विक होने के लिए स्थानीय होना जरूरी है। इसके जरिए फास्टर ने यह समझाने की कोशिश की है कि जिसकी जड़ें जितनी मजबूत होंगी, वही वैश्विक स्तर पर प्रभावकारी हो सकता है। भारतीय परंपरा में इसी तथ्य को बरगद के पेड़ के जरिए समझाया जाता है। कहा जाता है कि बरगद का पेड़ इसीलिए ज्यादा बड़ा, छतनार और विशाल होता है, क्योंकि उसकी जड़ें ज्यादा भी होती हैं और मजबूत भी। भारतीय अवधारणा हो या फिर फास्टर की प्रस्थापना, यह ना सिर्फ व्यक्तित्वों पर लागू होती है, बल्कि रचनाओं पर भी यह पूरी तरह फिट बैठती है। फास्टर ने जब यह प्रस्थापना दी थी, तब वैश्वीकरण का दौर नहीं था। भारत में उदारीकरण के बाद जिसे ग्लोबल विलेज यानी वैश्विक ग्राम की जो कल्पना की गई, उसकी कोई सोच भी नहीं थी। हालांकि भारतीय परंपरा इसे दूसरे रूप में हजारों साल पहले स्वीकार कर चुकी थी। ‘उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम’ की अवधारणा नई नहीं है। मध्यकाल में शुरू हुए यूरोपीय उपनिवेशवाद से दुनिया राजनीतिक तौर पर भले ही मुक्त हो गई, लेकिन इस औपनिवेशीकरण के अवशेष बौद्धिक स्तर पर बाकी रह गए।

औपनिवेशीकरण से विकसित मानसिक गुलामी की ही वजह से भारतीय बुद्धिजीवियों में एक प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। उन्हें अपने हर पारंपरिक ज्ञान और सांस्कृतिक दर्शन जहां दकियानूसी लगता रहा है, वहीं आधुनिकता के नाम पर उसी लोक सांस्कृतिक परंपरा जैसी पश्चिम की अवधारणाएं उसे कहीं ज्यादा वैज्ञानिक और ग्राह्य लगती रही हैं। भारतीय बौद्धिकों की औपनिवेशिक गुलामी की इस प्रवृत्ति को समाजवादी विचारक किशन पटनायक ने बखूबी समझा है। 1982 में प्रकाशित अपने एक निबंध में उन्होंने लिखा है, “भारत का बुद्धिजीवी वर्ग अभी मानसिक स्तर पर दोगला ही रहेगा। लेकिन टोलियों में या व्यक्ति के तौर पर बुद्धिजीवी एक नई सभ्यता-निर्माण के लिए प्रतिबद्ध हो सकता है।” आखिर उन्हें यह स्थापना क्यों करनी पड़ी, इसे देखने के लिए बीसवीं सदी के नब्बे के दशक में लिखे उनके निबंध ‘अयोध्या और उससे आगे’ को देखना पड़ेगा। इसमें पटनायक ने लिखा है, “यूरोप के बुद्धिजीवी, खासकर विश्वविद्यालयों से संबंधित बुद्धिजीवी का हमेशा यह रूख रहा है कि गैर यूरोपीय जनसमूहों के लोग अपना कोई स्वतंत्र ज्ञान विकसित न करें। विभिन्न क्षेत्रों में चल रही अपनी पारंपरिक प्रणालियों को संजीवित ना करें, संवर्धित ना करें। आश्चर्य की बात है कि कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों का भी यह रुख रहा, बल्कि अधिक रहा।”साफ है कि चूंकि आधुनिक सभ्यता के सारे वैचारिक उत्स और आर्थिक सिद्धांत पश्चिम से ही अवतरित होते हैं, इसलिए कहा जा सकता है कि फास्टर ने स्थानीयता पर जोर देने का विचार तब दिया था, जब पश्चिम स्थानीय विचारों, संस्कृतियों और आर्थिकी को रौंद रहा था। हालांकि यूरोपीय उपनिवेशवाद के बाद स्थानीय संस्कृतियां और विचार उठने की प्रक्रिया में थीं या उठ खड़ी हुईं थीं।

  

उदारीकरण के तीक्ष्ण विस्तार के दौर में जब बाजार ने जीवन के हर क्षेत्र में अपनी पैठ बनानी शुरू की तो पत्रकारिता ने इसमें भी अपने विस्तार की उम्मीद खोज ली। उसकी उम्मीद बेमानी भी नहीं थी और कालांतर में यह साबित भी हुआ। पत्रकारिता ने भी स्थानीय स्तर पर अपनी पैठ और पहुंच बढ़ानी शुरू की। महानगरों और छोटे शहरों से निकलकर उसने भी अपना विस्तार शुरू किया। विस्तार की इस प्रक्रिया में उसे स्थानीय समुदायों में अपनी पैठ बनाने का सबसे बेहतर तरीका नजर आया स्थानीय संस्कृति को तवज्जो देना। अपने स्वभाव की वजह से पत्रकारिता को हर जगह स्थानीय आवाजों का वाहक बनना होता है। इस प्रक्रिया में उसे स्थानीय संस्कृति, रीति-रिवाज और आर्थिकी को स्वर देना पड़ता है। इस स्वर की साख और स्वीकार्यता तभी बढ़ती है, जब उसके द्वारा प्रयुक्त भाषा में ही उसे अभिव्यक्त किया जाये। यही वजह है कि पत्रकारिता में स्थानीय लोकोक्तियों, मुहावरों और शब्दों का प्रयोग बढ़ा है। कह सकते हैं कि हिंदी पत्रकारिता को संचालित करने वाले हाथों ने अपने गुण सूत्र में हजारों साल से स्थापित वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा के साथ ही ईएम फास्टर के विचार को भी स्वीकार किया। इसका असर भी दिखा। हिंदी के जिन अखबारों की पहुंच गांवों और स्थानीय स्तर पर कम थी, वे लगातार बढ़ते चले गए। उन्होंने जिला स्तर पर अलग पुलआउट ही निकालना शुरू कर दिया।

इस अवधारणा के विरोध में तर्क दिया जाता है कि अखबारों के विस्तार में तकनीक का बड़ा योगदान रहा। संचार क्रांति के चलते स्थानीय स्तर पर त्वरित संपर्क के साधन बढ़े, तेज और सुंदर छपाई की तकनीकें भी बढ़ीं। फिर उदारीकरण में लोगों की खरीद और पठन क्षमता बढ़ी। लिहाजा समाचार पत्रों की मांग बढ़ी। ये सारे तर्क स्वीकार्य हैं। लेकिन यह भी सच है कि अगर कंटेंट पाठकों की रूचि और संस्कृति के अनुरूप नहीं रहेगा तो किसी भी सामग्री की विश्वसनीयता और स्वीकार्यता नहीं बन सकती। अखबार पर भी यही फॉर्मूला लागू होता है।

हालांकि ऐसा नहीं है कि उदारीकरण के दौर में ही स्थानीयताबोध की पत्रकारिता में स्वीकार्यता बढ़ी। साहित्य में तो इसकी शुरुआत उन्नीसवीं सदी के चालीस के दशक में ही हो गई थी। जब आचार्य शिवपूजन सहाय ने ‘देहाती दुनिया’ नाम से उपन्यास लिखा। इस उपन्यास को हिंदी का पहला आंचलिक उपन्यास माना जाता है। बाद के दिनों में केशव प्रसाद मिश्र ने अपनी कहानियों से इस प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया। उऩके उपन्यास ‘कोहबर की शर्त’ में लोक की माटी और लोकभाषा की खुशबू बखूबी महसूस की जा सकती है। इस प्रक्रिया को उच्च स्तर पर पहुंचाया फणीश्वर नाथ रेणु ने। उनके उपन्यास ‘मैला आंचल’, 'परती परिकथा’ और लाल पान की बेगम, पंचलैट जैसी कहानियां आंचलिक कथा का ही प्रतिबिंब नहीं हैं, बल्कि उनमें लोकभाषा, लोक मुहावरों और लोकोक्तियों ने अपनी अद्भुत छाप छोड़ी है। साहित्य के अंगन में लोक का विस्तार तत्कालीन पत्रकारिता में भी नजर आता है। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि तब पत्रकारिता की दुनिया में सक्रिय हस्तियां ज्यादातर साहित्य की ही शख्सियतें थीं। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान भी जो अखबार जनपदों से निकल रहे थे, उनमें भी प्रकाशन और प्रसार क्षेत्रों की भाषिक विशेषता के साथ ही स्थानीय लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रयोग हो रहा था। स्वतंत्रता के पहले मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ से ‘विंध्यवाणी’ और ‘लोकवार्ता’ निकलते थे। उनमें बुंदेली भाषा और संस्कृति से जुड़े शब्दों का भरपूर उपयोग किया जाता था। पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी की जीवनी में इन प्रयोगों का विस्तार से वर्णन है। उदाहरण के लिए उनमें से कुछ प्रस्तुत हैं..

चिलक छोड़ना- कांति आना

चील बटा होना- सिर घुट जाना

उत्तू उड़ना– निर्णायक बुद्धि से काम न लेना...

वैसे भी भाषा और संस्कृति की विशेषता उसके नैरंतर्य में ही है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि हिंदी पत्रकारिता में स्थानीय बोध की नींव उसके शुरुआती दिनों में ही पड़ गई थी। इसे पहले आचार्य रामचंद्र शुक्ल और उद्भट कवि निराला के बीच छायावाद को लेकर हुए विवाद में भी देख सकते हैं। हिंदी का पहला परिष्निष्ठित साहित्यिक इतिहास लिखने वाले रामचंद्र शुक्ल ने जब छायावाद को हिंदी कविता की एक महत्वपूर्ण धारा के तौर पर स्वीकार नहीं किया तो कुपित निराला ने उनका उपहास उड़ाते हुए एक कविता लिखी थी-

बचुआ एफए फेल है..

इसे तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं ने जगह दी थी। अवधी और भोजपुरी क्षेत्र में यूं तो बच्चे को नेह और दुलार से बचुआ और बचवा कहते हैं। लेकिन कई बार बड़े और उम्रदराज लोगों के लिए व्यंजना और लक्षणा में इस शब्द का प्रयोग होता है। जाहिर है कि यह हिंदी का स्थानीय शब्द है। इसकी व्याप्ति पूरे हिंदी समाज में नहीं है। लेकिन इसे स्वीकार किया गया।

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आज वाराणसी भले ही हिंदी का केंद्रक ना हो, लेकिन इसी वाराणसी से निकलने वाले आज अखबार के संपादक बाबूराव विष्णुराव पराड़कर ने हिंदी के लिए ऐसे शब्द गढ़े, जो आज जन-जन में प्रचलित हैं। राष्ट्रपति, संसद, राष्ट्रीय, श्री, सर्वश्री, श्रीमान, श्रीमती, राष्ट्र, स्वराष्ट्र, परराष्ट्र,अंतर्राष्ट्रीय, अंतर्राज्यीय, कार्रवाई, कार्यवाही, सुरंग जैसे सैकड़ों शब्द पराड़कर जी ने गढ़े। इसी तरह आज में कार्यरत रहे रा.र. खाडिलकर जी ने मुद्रास्फीति जैसे शब्द को गढ़ा। इक्कीसवीं सदी में हिंदी की रचनात्मक धुरी रहे जनपदीय केंद्र नहीं रहे। सरकार, राजनीति का केंद्र दिल्ली ही अब हिंदी का भी केंद्र है। यह उलटबांसी ही कही जाएगी कि आजादी के पहले हिंदी के लिए प्रगल्भ और प्रबुद्ध शब्द हिंदी के जनपदीय केंद्र में गढ़े-तराशे गए और अब उन्हीं केंद्रों पर स्थानीय बोध स्वीकार हो रहा है।

अपनी सफलता की गारंटी स्थानीय बोध को हिंदी पत्रकारिता में पहली बार अमर उजाला ने माना। आगरा से शुरू होने वाला यह पहला अखबार था, जिसने स्थानीय बोध को स्वीकार किया और उत्तर प्रदेश के उन पहाड़ी इलाकों में अपनी पैठ बढ़ानी शुरू की, जिन्हें अब अलग उत्तराखंड राज्य के नाम से जाना जाता है। वरिष्ठ पत्रकार और राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश ने अपने एक आलेख में स्वीकार किया है कि हिंदी में स्थानीय बोध को गति देने की प्रेरणा तेलुगू अखबार इनाडु से मिली। इनाडु ने पहली बार जिला स्तरीय संस्करण निकालने शुरू किए और उन संस्करणों में स्थानीय जिलों की भाषा और संस्कृति को फोकस करना शुरू किया। इसका असर यह हुआ कि वह अखबार तेलुगू भाषी हर इलाके के लोगों को अपना लगने लगा। अपनापा बढ़ने का असर उसके प्रसार पर पड़ा। इसकी देखादेखी हिंदी अखबारों ने भी स्थानीय स्तर पर अपनी व्यापक पैठ बनाने की तैयारी की। उदारीकरण के कारण से उपजे बाजार और उसके जरिए कमाई की संभावना नजर आई। स्थानीय बोध के उपयोग के जरिए हिंदी अखबारों का विस्तार बढ़ा।

अमर उजाला की तर्ज पर दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, दैनिक जागरण और हिंदुस्तान तक ने अपनी पहुंच उन इलाकों तक में बनाई, जहां पारंपरिक तौर पर उनकी कोई पहचान तक नहीं थी। इसके लिए उन्होंने हर क्षेत्र के लिए शब्दों, लोकोक्तियों और मुहावरों को अपनी प्राथमिकता बनाई। अमर उजाला को ही उदाहरण के तौर पर लेंगे तो उसके हर संस्करण में एक जैसी भाषा नजर नहीं आएगी। अमर उजाला अपने जम्मू संस्करण में जिस हिंदी का प्रयोग करता है, वह अपने नैनीताल संस्करण में नहीं करता। इसी तरह उसके वाराणसी संस्करण की भाषा और कई बार शाब्दिक विन्यास भी अलग हैं। जैसे जम्मू-कश्मीर, पंजाब आदि में निकलने वाले हिंदी अखबार ऐतवार, वीरवार, शनिचरवार का प्रयोग करते हैं, लेकिन उन्हीं अखबारों का संस्करण अगर दिल्ली, ग्वालियर या वाराणसी में है तो उसकी जगह वे रविवार, गुरुवार या बृहस्पतिवार और शनिवार शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। नैनीताल और उत्तराखंड के इलाकों में हिंदी अखबार मां के लिए ईजा शब्द का इस्तेमाल कर लेते हैं, लेकिन उसी अखबार के पूर्वी उत्तर प्रदेश वाले संस्करण कई बार माई शब्द का इस्तेमाल करते हैं। भोजपुरी में क्रियापद को बदलने की परंपरा है। इसका असर पूर्वी उत्तर प्रदेश के अखबारों में भी दिखता है। वहां अगर अपराधी पकड़ा जाता है तो वे अपने शीर्षक तक में धराए, पकड़ाए जैसे क्रियापदों का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन उसी अखबार का पश्चिमी उत्तर प्रदेश का संस्करण उसी खबर को धरे गए, पकड़े गए लिखता है। भोजपुरी में एक क्रिया है गर्दा मचाना..यानी कमाल कर देना..इसका उपयोग भी भोजपुरीभाषी इलाके में प्रकाशित होने वाले अखबार खूब करते हैं। भोजपुरी का शब्द भौकाल इन दिनों सिनेमा के जरिए मीडिया में भी स्थान बना चुका है, जैसे भौकाल टाइट है। इसी तरह किसी को टालने के लिए भोजपुरी और मैथिली में टरकाना शब्द का इस्तेमाल होता है। इन शब्दों को भी स्थानीय स्तर पर पत्रकारिता ने ग्राह्य कर लिया है। भोजपुरी के एक शब्द चिरकुट का पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर इतना इस्तेमाल करते थे कि उसे हिंदी अखबारों तक ने स्वीकार किया। मैथिली का एक शब्द है अंडबंड, इसे सिर्फ स्थानीय स्तर पर नहीं, बल्कि केंद्रीय स्तर पर भी हिंदी ने अपना लिया है। इसी तरह जहर-माहुर आदि शब्द भी स्वीकार्य हो चुके हैं। हिंदी में अपुन शब्द एक दौर में खूब चला। इसे प्रभाष जोशी ने अपने संपादन वाले अखबार जनसत्ता में चलाया। जनसत्ता में उन्होंने मालवा इलाके में स्वयं या खुद के लिए इस्तेमाल होने वाले इस शब्द का जमकर इस्तेमाल किया और देखते ही देखते यह शब्द समूची हिंदी पत्रकारिता में इस्तेमाल होने लगा। हालांकि सुदूर स्थानीय इलाकों में इस शब्द के इस्तेमाल से बचा जाता है।

हिंदी की पत्रकारिता का जैसे-जैसे विस्तार होता गया है, वैसे-वैसे उसने स्थानीय शब्दों को अपनी अंजुरी में भरकर उसे अपना बना लिया है। झारखंड में नमस्कार को जोहार कहा जाता है। झारखंड इलाके के हिंदी अखबार इसका ही ज्यादा प्रयोग करते हैं। विस्तार के दौर में हिंदी पत्रकारिता ने बंगाल, महाराष्ट्र और गुजरात तक में अपने पैर पसारे हैं। जाहिर है कि उन जगहों पर भी उसने वहां के स्थानीय शब्दों को स्वीकार किया है। जैसे महाराष्ट्र में निकलने वाले अखबार नवभारत और लोकमत समाचार में आप देखेंगे कि आलू के लिए बटाटा, प्याज के लिए कांदा, बड़ा पाव, आदि शब्दों को इस्तेमाल किया है। वैसे हिंदी पत्रकारिता ने चालबाज और चलताऊ के लिए जिस चालू शब्द को स्वीकार कर लिया है, वह भी मराठी का ही है। इसी तरह हिंदी में जो योजनाएं लागू की जाती हैं, यह लागू करना भी मराठी से आया है। अब तो पूरे देश में स्ट्राइक या विरोधस्वरूप कामबंदी के लिए हड़ताल शब्द का प्रयोग हो रहा है। लेकिन यह शब्द भी गुजराती मूल का है और वहीं से हिंदी में आया है। डोसा, इडली और सांभर ने जिस तरह अपनी पहचान पूरे भारत में बनाई है, उसी तरह दक्षिण में भी हिंदी की पत्रकारिता बढ़ चली है। राजस्थान पत्रिका के बेंगलुरू और चेन्नई तक संस्करण निकल रहे हैं तो हैदराबाद से स्वतंत्र वार्ता और मिलाप पहले से ही निकल रहे हैं। दक्षिण की भाषाओं के भी कुछ शब्द हिंदी पत्रकारिता ने स्वीकार किए हैं, जैसे पिल्ला, पायस आदि...। पिल्ला शब्द जहां तेलुगू का मूल शब्द है, वहीं पायस मलयालम से आया है। इन शब्दों का इस्तेमाल खासतौर उन्हीं इलाकों की हिंदी पत्रकारिता करती है।

हिंदी के टेलीविजन में स्थानीय शब्दों खासकर मुहावरों और लोकोक्तियों के इस्तेमाल के जरिए खुद को ज्यादा संप्रेषणीय बनाया है। हिंदी के समाचार टेलीविनज चैनल, अंगूठा दिखाना, अपना उल्लू सीधा करना, अपने पांव कुल्हाड़ी मारना, अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना, आटे दाल का भाव मालूम होना, कांटा निकालना, कान पर जूं न रेंगना, दांत खट्टे करना, खिल्ली उड़ाना, गिरगिट की तरह रंग बदलना, तिल का ताड़ बनाना, डींग हांकना, जैसे तमाम मुहावरों और लोकोक्तियों का उपयोग करके अपनी भाषा को ना सिर्फ चुटीला बनाते हैं, बल्कि उसके जरिए आम लोगों के बीच अपनी पैठ और पहुंच बढ़ाते हैं। 

-उमेश चतुर्वेदी

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं

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