चौथाई सदी में कितना बदला धान का कटोरा

Chhattisgarh
ANI

एक नवंबर के दिन छत्तीसगढ़ की उम्र चौथाई सदी पूरी कर चुकी है। इस राज्य के जन्म के लिए धरनारत रहे उस व्यक्ति का नाम लोग भूल चुके हैं। राजनेताओं की लंबी फेहरिस्त राजनीतिक क्षितिज पर अपनी अच्छी-बुरी उपलब्धियों के साथ चमक रही है। लेकिन दाऊ आनंद अग्रवाल का संघर्ष कहीं खो गया है।

इक्कीसवीं सदी की आहट सुनाई देने लगी थी..उन दिनों इन पंक्तियों का लेखक मध्य प्रदेश-राजस्थान के एक बड़े अखबार का दिल्ली में संवाददाता था..उस दिन खबरों का सूखा था..उसे दूर करने की नीयत से इन पंक्तियों का लेखक धरनों के लिए विख्यात जंतर-मंतर पर जा पहुंचा...वहां जाकर देखा, मध्य प्रदेश से अलग करके छत्तीसगढ़ राज्य बनाने की मांग को लेकर साधारण-सा व्यक्ति धरने पर बैठा था..साथ में गिनती के विश्वासपात्र ही बैठे थे..पता चला कि धरनारत उस व्यक्ति के पास खाने तक के पैसे नहीं थे..उनसे पता चली कि रात को रोजाना अपनी क्षुधा शांत करने के लिए पास ही स्थित गुरूद्वारा बंगला साहिब या फिर रकाब जाते और वहां के लंगर से अपनी भूख शांत करते थे..उनके साथियों का भी यही हाल था..वनोपज और प्राकृतिक संसाधनों से युक्त राज्य का धरना और उसे सहारा लंगर का..मर्म को छूने वाली वह खबर थी..खबर लिखी भी, ‘लंगर के सहारे चलता अलग राज्य का धरना’. खबर छपते ही रायपुर और उसके आस-पास हलचल मच गई। तब आज की तरह फोन नहीं थे..लेकिन लोग उस धरना देने वाले व्यक्ति का पता पूछने और उन तक अपनी श्रद्धा रकम पहुंचाने की जैसे होड़ लग गई..

एक नवंबर के दिन छत्तीसगढ़ की उम्र चौथाई सदी पूरी कर चुकी है। इस राज्य के जन्म के लिए धरनारत रहे उस व्यक्ति का नाम लोग भूल चुके हैं। राजनेताओं की लंबी फेहरिस्त राजनीतिक क्षितिज पर अपनी अच्छी-बुरी उपलब्धियों के साथ चमक रही है। लेकिन दाऊ आनंद अग्रवाल का संघर्ष कहीं खो गया है। पता नहीं छत्तीसगढ़ के लोगों, विशेषकर प्रबुद्ध लोगों को उनका नाम याद है भी या नहीं। उन दिनों छत्तीसगढ़ के एक प्रमुख दैनिक के दिल्ली ब्यूरो प्रमुख रहे विनोद वर्मा बताते हैं कि दाऊ के एक वक्त का भोजन अखबारों के प्रमुख दफ्तर आईएनएस बिल्डिंग की कैंटीन में होता था..जिसका खर्च विनोद वर्मा उठाते थे। यहां बता दें कि विनोद वर्मा बाद के दिनों में छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के राजनीतिक सलाहकार रहे।

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आनंद अग्रवाल को ही क्यों, बहुत लोगों को पवन दीवान की भी याद नहीं होगी। पवन दीवान बुनियादी रूप से समाजवादी नेता थे। यह बात और है कि उन्होंने बाद में राजनीतिक दलों में खूब आवाजाही की। कभी बीजेपी के कमलधारक बने तो कभी कांग्रेस के हाथ का साथ लिया। लेकिन छत्तीसगढ़ को अलग राज्य बनाने के लिए बड़ा आंदोलन उन्होंने किया था। दिल्ली के जंतर-मंतर पर उन्होंने बड़ा प्रदर्शन भी किया था। छत्तीसगढ़ अब अलग राज्य के रूप में फल-फूल रहा है। लेकिन उसे मध्य प्रदेश से अलग राज्य बनाने की पहली बार ठोस मांग करने वाले खूबचंद बघेल के नाम को कितने लोग याद करते हैं, पता नहीं। पिछली सदी के साठ के दशक के आखिरी वर्षों में उन्होंने छत्तीसगढ़ भ्रातृ संघ बनाया था और अलग राज्य की उन्होंने मांग को पहली बार ताकतवर सुर दिया था। जिन्होंने भी छत्तीसगढ़ को अलग राज्य बनाने की मांग रखी, उनकी मांग का आधार था छत्तीसगढ़ के प्राकृतिक संसाधन, वनोपज और खूबसूरत नजारे। सबका मानना था कि अपने प्राकृतिक सौंदर्य, वनोपज और खनिजों की वजह से छत्तीसगढ़ कहीं ज्यादा समृद्ध है, लेकिन उसका फायदा उसके निवासियों को नहीं मिल रहा है। उस पर कब्जा राज्य के दूसरे इलाके के लोगों और राजनीतिक वर्चस्व वाली ताकतों को मिल रहा है। वैसे छत्तीसगढ़ को अलग राज्य बनाने की मांग 1924 में रायपुर में हुई थी। लेकिन तब देश गुलाम था, अंग्रेजी दासतां से मुक्ति तब पहला उद्देश्य था। लिहाजा यह मांग सिरे से परवान नहीं चढ़ पाई।  

दिलचस्प यह है कि जिन्होंने अलग राज्य की मांग रखी, राजनीतिक रूप से उनका आज कोई अस्तित्व ही नहीं है। इसे बिडंबना कहें कि कुछ और, यह स्थिति छत्तीसगढ़ के साथ बने उत्तराखंड राज्य की भी है। उत्तराखंड को उत्तर प्रदेश से अलग राज्य बनाने की मांग को लेकर सबसे जोरदार आंदोलन उत्तराखंड क्रांति दल ने चलाया, उसकी कीमत भी चुकाई। मुजफ्फरनगर कांड उस कीमत की चरम परिणति कही जा सकती है। लेकिन उत्तराखंड में आज उत्तराखंड क्रांति दल हाशिए पर है।

छत्तीसगढ़ से जुड़ा एक और वाकया याद आ रहा है। छत्तीसगढ़ में पहली बार विधानसभा चुनाव 2003 में हो रहा था। उसकी तैयारी भारतीय जनता पार्टी ने एक साल पहले ही शुरू कर दी थी। उन दिनों केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार थी। उस सरकार में रमन सिंह इस्पात राज्य मंत्री थे। बीजेपी ने तय किया कि उन्हें चुनावी तैयारी के लिए छत्तीसगढ़ भेजा जाए। रमन सिंह छत्तीसगढ़ जाना नहीं चाहते थे। दिल्ली के ललित होटल के एक कार्यक्रम में दबी जुबान से बीजेपी के इस फैसले का विरोध भी जताया था। शायद उन्हें अपने भावी किस्मत का पता नहीं था। भारी मन से वे छत्तीसगढ़ गए, लेकिन विधानसभा चुनावों में उनकी अगुआई में भारी जीत मिली। मुख्यमंत्री बने और लगातार तीन कार्यकाल तक मुख्यमंत्री रहने का उन्हें स्वर्णिम मौका मिला। 

छत्तीसगढ़ ने तब से लेकर अब तक लंबी यात्रा कर ली है। छत्तीसगढ़ की पच्चीस साल की इस यात्रा में सत्रह साल तक बीजेपी का शासन रहा है, जबकि महज आठ साल कांग्रेस की सरकार रही। छत्तीसगढ़ जब अलग हुआ था तो उसका बजट महज पांच हजार सात सौ करोड़ का था। आज राज्य का बजट एक लाख 65 हजार सौ करोड़ तक पहुंच गया है। राज्य की मौजूदा विष्णुदेव साय सरकार इसे गति यानी सुशासन, त्वरित अवसंरचना, प्रौद्योगिकी और औद्योगिक विकास की थीम पर आधारित बजट बता रही है। छत्तीसगढ़ राज्य जब बना तो वहां सिर्फ एक मेडिकल कॉलेज था, वहां एकमात्र मेडिकल कॉलेज पंडित जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल मेडिकल कॉलेज, रायपुर था। यह कॉलेज 1963 में स्थापित किया गया था और इसे रायपुर मेडिकल कॉलेज के नाम से भी जाना जाता है। लेकिन छत्तीसगढ़ में आज 14 मेडिकल कॉलेज हैं, जिनमें 11 सरकारी, एक एम्स और 3 निजी कॉलेज शामिल हैं। इसके अतिरिक्त, राज्य में 4 नए सरकारी मेडिकल कॉलेजों के निर्माण की घोषणा की जा चुकी है। ये कॉलेज बन गए तो उनकी संख्या 18 हो जाएगी। कह सकते हैं कि राज्य ने मेडिकल के क्षेत्र में बड़ी छलांग लगा ली है।

छत्तीसगढ़ को लेकर एक छवि यह है कि वह छोटा राज्य है। लेकिन हकीकत ऐसा नहीं है। उसे छोटा मानने की वजह उसकी अपेक्षाकृत कम जनसंख्या है। साल 2011 की जनगणना के अनुसार, राज्य की जनसंख्या दो करोड़ 55 लाख से ज्यादा है। अनुमान है कि इन दिनों राज्य की जनसंख्या तीन करोड़ आठ लाख के करीब है। आम धारणा है कि छत्तीसगढ़ बिहार से भी छोटा है। बिहार की जनसंख्या करीब तेरह करोड़ से कुछ ज्यादा है। लेकिन हकीकत यह है कि छत्तीसगढ़ रकबा के लिहाज से बिहार से डेढ़ गुना बड़ा राज्य है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के सलाहकार पंकज झा कहते हैं कि छोटा राज्य होने की छवि के चलते छत्तीसगढ़ को भारतीय राजनीति का ज्यादातर हिस्सा उसे कमतर आंकता है। इस छवि को तोड़ना उनकी सरकार की प्राथमिकता है। 

जब छत्तीसगढ़ बना था, तब उसके हिस्से मध्य प्रदेश के 16 जिले आए थे। लेकिन आज छत्तीसगढ़ में 33 जिले हैं। खूबसूरत झरने, प्राकृतिक जंगलों और खूबसूरत पहाड़ों के प्रदेश छत्तीसगढ़ में कोयला, लोहा और टिन का प्रचुर खनिज भंडार है। देश का तीसरा सबसे बड़ा वनाच्छादित राज्य छत्तीसगढ़ है, जिसका कुल 44.24 प्रतिशत हिस्सा जंगलों से ढंका पड़ा है। जाहिर है कि इनकी वजह से जहां पर्यावरण की रक्षा हो रही है, वहीं जंगल पर आधारित जनजातियों के जीवन स्तर को बेहतर बनाया जा रहा है। छत्तीसगढ़ एक नए राज्य के रूप में अपनी स्थापना के बाद से, शिक्षा, स्वास्थ्य, बुनियादी ढांचे और अर्थव्यवस्था जैसे कई क्षेत्रों में महत्वपूर्ण बदलाव से गुजरा है। राज्य की प्रति व्यक्ति आय में लगभग 10 गुना वृद्धि हुई है, राज्य की जीडीपी 21,000 करोड़ डॉलर से बढ़कर लगभग अब करीब 5 लाख करोड़ डॉलर की हो गई है। कभी यहां आने में बैंक हिचकते थे, लेकिन अब यहां बैंकों का जाल है। राजमार्ग और रेलवे का नेटवर्क भी राज्य में बहुत बढ़ा है। मध्य प्रदेश से अलग होते वक्त राज्य में महज चार विश्वविद्यालय थे, जिनकी संख्या बढ़कर अब 25 हो चुकी है। पहले नक्सल प्रभावित इलाकों में स्कूलों की भारी कमी थी। लेकिन अब यहां नए स्कूल खोले गए हैं और पोटाकेबिन, आश्रम और छात्रावास जैसी पहल शुरू की गई हैं। बस्तर में सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल का निर्माण किया गया है, हालाँकि यह अभी अधूरा है। नक्सलवाद के चलते यहां परिवहन ढांचा सुदृढ़ नहीं था। लेकिन अब उसमें भी बदलाव आया है। राज्य में राष्ट्रीय राजमार्गों और रेल लाइनों की लंबाई दोगुनी हो गई है। पहले राज्य की राजधानी रायपुर से सिर्फ छह उड़ानों की सुविधा थी, जो अब बढ़कर 76 हो गई है। बस्तर और सरगुजा में भी हवाई अड्डे बनाए गए हैं। जगदलपुर में साप्ताहिक आधार पर उड़ीसा और आंध्र प्रदेश के लिए विमान सेवाएं जारी हैं। राज्य की शुरूआत में जहां बैंक शाखाओं की संख्या 1500 थी, वह अब बढ़कर 6500 हो गई है। छत्तीसगढ़ को उसकी धान की उपज के लिए धान का कटोरा कहा जाता था। अलग राज्य बनने के बाद राज्य में जहां धान की खरीद 5 लाख मीट्रिक टन थी, वह अब बढ़कर 1.5 करोड़ मीट्रिक टन हो गई है। इसी तरह राज्य में बिजली उत्पादन 7300 मेगावाट से बढ़कर 18000 मेगावाट तक पहुंच गया है। राज्य के वनोपज में तेंदूपत्ता का प्रमुख स्थान है। सरकारी स्तर पर तेंदूपत्ता संग्रहण मूल्य को ₹2500 से बढ़ाकर ₹4000 प्रति मानक बोरा कर दिया गया है। 

कभी लोहा, कोयला और धान के लिए विख्यात छत्तीसगढ़ अब ऊर्जा, गारमेंट, न्यू डेटा सेंटर और फार्मा के राज्य के रूप में भी उभर चुका है। निश्चित तौर पर इसके लिए राज्य की दोनों प्रमुख पार्टियों की सरकारों का योगदान रहा है। आज छत्तीसगढ़ महिला कल्याण, संस्कृति और किसान कल्याण योजनाओं ने भी राज्य की तसवीर बदलने में बड़ी भूमिका निभाई है। अलग राज्य बनने से पहले राज्य की सिंचाई क्षमता 13.28 लाख हेक्टेयर थी, वह अब बढ़कर 21.76 लाख हेक्टेयर पहुंच गई है।राज्य की सालाना कृषि विकास दर 7.8 प्रतिशत हो गई है। पिछले पच्चीस सालों में रायपुर, भिलाई, कोरबा और रायगढ़ राज्य के बड़े औद्योगिक इलाके के रूप में विकसित हुए हैं। कभी जहां बंदूकों की आवाज गूंजती थी, वहां अब विकास की नई इबारत लिखी जा रही है। राज्य में चहुंओर बदलाव दिख रहा है। अपेक्षाकृत सहज माने जाने वाला राज्य का बहुसंख्यक आदिवासी समुदाय भी मुख्यधारा में नजर आ रहा है। गुरूद्वारे के लंगर के सहारे जिस अलग राज्य की मांग राजधानी दिल्ली में परवान चढ़ी थी, वह राज्य अब नई कहानियां लिख रहा है। राजनीतिक तौर पर राजनीतिक नैरेटिव के हिसाब से सवाल हो सकते हैं। लेकिन उन सवालों के बावजूद एक तथ्य समान है, वह कि राज्य ने चौथाई सदी में बहुत कुछ हासिल किया है। इसका यह मतलब नहीं कि और कुछ हासिल किया जाना बाकी नहीं है। राज्य के पास जैसी संपदा है, जिस तरह के प्राकृतिक स्थल हैं, उनकी वजह से वहां विकास की अनंत संभावनाएं हैं। पर्यटन की दिशा में अब भी बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है। केरल से कम सुंदर नहीं है छत्तीसगढ़। उस प्राकृतिक सौंदर्य के सैलानी नजरिये से दोहन की काफी गुंजाइश है। उम्मीद की जानी चाहिए कि राज्य इस दिशा में जरूर आगे बढ़ेगा। 

-उमेश चतुर्वेदी

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
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