भागवत के विचारों को अपनाएँ तो सांप्रदायिकता अपने आप भाग खड़ी होगी

Mohan Bhagwat

मोहन भागवत के इस विचार का विरोध कौन कर सकता है कि भारत में बंधुत्व ही सच्चा हिंदुत्व है। यह विचार इतना उदार, इतना लचीला और इतना संविधानसम्मत है कि इसे सभी जातियों, सभी पंथों, सभी संप्रदायों, सभी भाषाओं के लोग मानेंगे।

हर विजयदशमी को याने दशहरे के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया नागपुर में विशेष व्याख्यान देते हैं, क्योंकि इस दिन संघ का जन्म-दिवस मनाया जाता है। इस बार संघ-प्रमुख मोहन भागवत का भाषण मैंने टीवी चैनलों पर देखा और सुना। सबसे पहले तो मैं इस बात से प्रभावित हुआ कि उनकी भाषा याने हिंदी इतनी शुद्ध और सारगर्भित थी कि दिल्ली में तो ऐसी आकर्षक हिंदी सुनने में भी नहीं आती और वह भी तब जबकि खुद मोहनजी हिंदीभाषी नहीं हैं। वे मराठीभाषी हैं। हमारी सभी पार्टियों, खास तौर से भाजपा, जदयू, राजग, सपा, बसपा के नेता वैसी हिंदी या उससे भी सरल हिंदी क्यों नहीं बोल सकते ? उस भाषण में जो राजनीतिक और सैद्धांतिक मुद्दे उठाए गए, उनके अलावा भारत के नागरिकों को अपने दैनिक जीवन में क्या-क्या करना चाहिए, ऐसी सीख हमारे नेता लोग भी क्यों नहीं देते ? 

इसे भी पढ़ें: भागवत ने साक्षात्कार में जो कहा वह सामान्य बातें नहीं, राष्ट्र के भविष्य का रोडमैप हैं

कुछ नेताओं को लत पड़ जाती है कि वे टीवी चैनलों पर राष्ट्र को गाहे ब गाहे संबोधित करने का बढ़ाना ढूंढ़ निकालते हैं या कुछ खास दिवसों पर अफसरों के लिखे भाषण पढ़ डालते हैं। इन नेताओं को आज पता चला होगा कि भारत के सांस्कृतिक और सैद्धांतिक सवालों पर सार्वजनिक बहस कैसे चलाई जाती है।

मोहन भागवत के इस विचार का विरोध कौन कर सकता है कि भारत में बंधुत्व ही सच्चा हिंदुत्व है। यह विचार इतना उदार, इतना लचीला और इतना संविधानसम्मत है कि इसे सभी जातियों, सभी पंथों, सभी संप्रदायों, सभी भाषाओं के लोग मानेंगे। हिंदुत्व की जो संकीर्ण परिभाषा पहले की जाती थी और जो अब तक समझी जा रही है, उस छोटी लकीर के ऊपर मोहनजी ने एक लंबी लकीर खींच दी है। उनके हिंदुत्व में भारत के सारे 130 करोड़ लोग समाहित हैं। पूजा-पद्धति अलग-अलग हो जाने से कोई अ-हिंदू नहीं हो जाता। अ-हिंदू वह है, जो अ-भारतीय है। याने हिंदू और भारतीय एक ही है। मोहन भागवत के इस विचार को संघ का प्रत्येक स्वयंसेवक और प्रत्येक भारतीय आत्मसात कर ले तो सांप्रदायिकता अपने आप भारत से भाग खड़ी होगी।

इसे भी पढ़ें: संघ प्रमुख मोहन भागवत का हिंदुत्व भी सर्वसमावेशी बन गया है

मोहन भागवत ने कोरोना महामारी, कृषक नीति, शिक्षा नीति और पड़ोसी नीति आदि पर भी अपने विचार प्रकट किए। शिक्षा नीति पर बोलते हुए यदि वे राज-काज, भर्ती और रोजगार से अंग्रेजी को हटाने की बात करते तो बेहतर होता। मातृभाषा में शिक्षा की बात तो उत्तम है लेकिन जब रोजगार और वर्चस्व अंग्रेजी देती है तो मातृभाषा में कोई क्यों पढ़ेगा ? इसी प्रकार पड़ोसी देशों को एक सूत्र में बांधने में दक्षेस (सार्क) विफल रहा है। यह महान कार्य राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों के बस का नहीं है। उनकी औपचारिक महिमा सिर्फ तब तक है, जब तक वे कुर्सी पर हैं। संपूर्ण आर्यावर्त्त (अराकान से खुरासान तक) को एक करने का कार्य इन देशों की जनता को करना है। जनता को जोड़ने का काम समाजसेवी संगठन ही कर सकते हैं।

-डॉ. वेदप्रताप वैदिक

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़