मोदी या ट्रंप... कौन रुकवायेगा रूस-यूक्रेन युद्ध? अमेरिकी 'शोर' पर भारी पड़ेगी भारत की 'शांत' कूटनीति

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यह महज़ संयोग नहीं है कि पुतिन ने ट्रंप से मुलाकात के पहले और बाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से फोन पर बातचीत की। इसके तुरंत बाद जेलेंस्की ने भी मोदी से वार्ता की। इस साल के अंत में पुतिन भारत आने वाले हैं और उससे पहले मोदी–जेलेंस्की मुलाकात की भी संभावना है।

युद्ध से थकी हुई यूरोप की राजनीति, वैश्विक आर्थिक अस्थिरता और अंतरराष्ट्रीय तनाव यह संकेत दे रहे हैं कि अब रूस-यूक्रेन संघर्ष के शांतिपूर्ण समाधान की खोज बहुत जरूरी हो गयी है। इस बीच दो घटनाएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। पहली, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की अलास्का में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से मुलाकात और दूसरी, भारत–यूक्रेन तथा भारत-रूस के बीच ऊँचे स्तर का बढ़ता कूटनीतिक संवाद, जिसमें राष्ट्रपति पुतिन और राष्ट्रपति जेलेंस्की की संभावित भारत यात्रा सबसे अहम है।

यह भी महज़ संयोग नहीं है कि पुतिन ने ट्रंप से मुलाकात के पहले और बाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से फोन पर बातचीत की। इसके तुरंत बाद जेलेंस्की ने भी मोदी से वार्ता की। इस साल के अंत में पुतिन भारत आने वाले हैं और उससे पहले जेलेंस्की भी भारत आ सकते हैं। यही नहीं, मोदी-पुतिन मुलाकात जल्द ही चीन में होने वाले एससीओ सम्मेलन में होगी तो दूसरी ओर सितंबर में न्यूयॉर्क में मोदी-जेलेंस्की मुलाकात होने की भी पूरी-पूरी संभावना है। साफ़ है कि कूटनीति के मौन गलियारों में भारत एक ऐसा ध्रुव बन चुका है, जिसके इर्द-गिर्द युद्धविराम की संभावनाएँ गढ़ी जा रही हैं।

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एक तरफ अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपनी शैली के अनुरूप मीडिया के सामने रोज़ यह दावा करते हैं कि वह युद्ध समाप्त करवा सकते हैं। लेकिन उनका यह दृष्टिकोण ज़्यादातर चुनावी और जनमत-निर्माण की राजनीति से जुड़ा है। इसके विपरीत, नरेंद्र मोदी का रुख़ ज्यादा व्यावहारिक और संतुलित है। वह रूस और यूक्रेन, दोनों से गहन संवाद बनाए हुए हैं और “यह युद्ध का युग नहीं है” की अपनी उद्घोषणा को अब ठोस प्रयासों से सार्थक बना रहे हैं।

भारत की यह भूमिका ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। हम आपको याद दिला दें कि शीतयुद्ध के दौर में भारत ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन के जरिये वैश्विक तनाव को संतुलित करने का प्रयास किया था। आज, वही भूमिका भारत एक जिम्मेदार शक्ति की तरह निभा रहा है। पश्चिम को यह स्पष्ट हो रहा है कि ट्रंप की घोषणाओं से अधिक असरदार है मोदी की “शांत डिप्लोमेसी”, जो न तो शोर मचाती है और न ही श्रेय लेने की होड़ में रहती है।

देखा जाये तो अंतरराष्ट्रीय राजनीति में असली कूटनीति अक्सर सुर्ख़ियों के पीछे घटित होती है। रूस और यूक्रेन दोनों के साथ समान स्तर पर संवाद बनाए रखने की भारत की क्षमता इस बात का प्रमाण है कि नई दिल्ली न केवल इस युद्ध के समाधान की कुंजी रखती है, बल्कि एक नई विश्व व्यवस्था के निर्माण में भी केंद्रीय भूमिका निभा सकती है। इसके अलावा, जहाँ ट्रंप युद्ध समाप्त करवाने के लिए कभी वार्ता तो कभी धमकी देने तथा कभी पेनल्टी के रूप में टैरिफ बढ़ाने पर जोर दे रहे हैं वहीं मोदी चुपचाप रूस-यूक्रेन युद्ध के समापन की वास्तविक ज़मीन तैयार कर रहे हैं।

देखा जाये तो रूस-यूक्रेन युद्ध को समाप्त करवाने की दिशा में चल रहे प्रयासों को देख रही दुनिया के मन में इस समय यही सवाल है कि कौन-सा नेता निर्णायक भूमिका निभा सकता है— डोनाल्ड ट्रंप या नरेंद्र मोदी?

ट्रंप की भूमिका को देखें तो अमेरिका ऐतिहासिक रूप से यूक्रेन का सबसे बड़ा समर्थक रहा है। आर्थिक मदद, हथियार आपूर्ति और कूटनीतिक समर्थन तीनों ही स्तरों पर अमेरिका यूक्रेन की मदद कर रहा है। डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति बनने के बाद रूस से नज़दीकी साधने की कोशिश की, लेकिन अमेरिका की आंतरिक राजनीति और नाटो की सुरक्षा प्रतिबद्धताओं के कारण वह रूस और यूक्रेन के बीच निष्पक्ष मध्यस्थ की भूमिका नहीं निभा पा रहे हैं। आज भी ट्रंप के प्रयास सीमित हैं क्योंकि अमेरिका का घोषित रुख रूस के प्रति शत्रुतापूर्ण है। इसके अलावा, नाटो की रणनीतिक अनिवार्यता ट्रंप को संतुलित मध्यस्थ नहीं रहने देती। इसके अलावा, पुतिन पर अमेरिकी प्रतिबंध और सैन्य दबाव किसी भी “विश्वसनीय संवाद” की संभावना को कमज़ोर करते हैं।

दूसरी ओर, भारत का रुख शुरुआत से ही अलग रहा है। मोदी ने न युद्ध का समर्थन किया, न किसी पक्ष का खुला विरोध किया। भारत ने बार-बार “संवाद और कूटनीति” की वकालत की है। इससे मोदी की स्थिति विशिष्ट बनती है। भारत-रूस की “Special and Privileged Strategic Partnership” दशकों पुरानी है। रक्षा, ऊर्जा और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सहयोग के कारण पुतिन मोदी की बातों को गंभीरता से लेते हैं। साथ ही मोदी ने ज़ेलेंस्की से भी निरंतर संपर्क बनाए रखा है। ज़ेलेंस्की की संभावित भारत यात्रा इस बात का प्रमाण है कि यूक्रेन भी भारत को भरोसेमंद मध्यस्थ मानता है।

हम आपको यह भी बता दें कि भारत का जी-20 अध्यक्षता काल दिखा चुका है कि भारत पश्चिम और पूर्व, दोनों खेमों के बीच पुल का काम कर सकता है। भारत न तो नाटो का हिस्सा है, न रूस का विरोधी गुट। यही तटस्थता उसे “सच्चा मध्यस्थ” बनाती है। जहां तक यह सवाल है कि रूस-यूक्रेन युद्ध समाप्त करवाने की दिशा में मोदी कैसे ट्रंप से अधिक अहम साबित हो सकते हैं? तो इसका जवाब यह है कि पुतिन ट्रंप को एक प्रतिद्वंद्वी राष्ट्र के नेता के रूप में देखते हैं, जबकि मोदी को रणनीतिक साझेदार और मित्र के रूप में देखते हैं। साथ ही ट्रंप केवल यूक्रेन या नाटो के दबाव में नहीं हैं, बल्कि अमेरिकी राजनीति से बंधे हैं। वहीं मोदी दोनों पक्षों से बिना पूर्वाग्रह बातचीत कर सकते हैं। इसके अलावा, भारत की ऊर्जा ज़रूरतें, आर्थिक क्षमता और भू-राजनीतिक स्थिति उसे युद्धविराम के बाद की “शांति संरचना” में भी महत्वपूर्ण बनाती है। साथ ही मोदी की “लीडर-टू-लीडर” डिप्लोमेसी— चाहे ट्रंप हों, पुतिन हों या ज़ेलेंस्की, व्यक्तिगत विश्वास कायम करती है, जो युद्ध सुलझाने में निर्णायक होता है।

बहरहाल, जहाँ ट्रंप की भूमिका अमेरिका की सामरिक अनिवार्यताओं और नाटो की सीमाओं में बंधी है, वहीं मोदी एक “तटस्थ लेकिन प्रभावशाली” नेता के रूप में उभरे हैं। यदि ज़ेलेंस्की की भारत यात्रा होती है और वर्ष के अंत में पुतिन भी नई दिल्ली आते हैं, तो भारत दुनिया का इकलौता ऐसा मंच बन सकता है जहाँ दोनों नेताओं का संवाद संभव हो। इसलिए रूस-यूक्रेन युद्ध समाप्त करवाने की दिशा में डोनाल्ड ट्रंप से कहीं अधिक नरेंद्र मोदी की भूमिका निर्णायक और ऐतिहासिक साबित हो सकती है।

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
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