वैश्विक राजनीति की बिसात पर ट्रंप को मोदी ही देंगे मात, अमेरिकी विशेषज्ञों ने कही है यह बात

हम आपको यह भी बता दें कि अमेरिकी मीडिया में चीन में आयोजित एससीओ (SCO) शिखर सम्मेलन को लेकर व्यापक कवरेज हुआ और कई विशेषज्ञों ने अफसोस जताया कि ट्रंप की कठोर नीति भारत को रूस और चीन के और निकट धकेल रही है।
भारत-अमेरिका संबंधों पर हाल के घटनाक्रम गहरे द्वंद्व और भ्रम को उजागर करते हैं। एक ओर अमेरिकी रणनीतिक समुदाय के प्रभावशाली वर्ग, जैसे- जेक सुलिवन, मेरी किसल और एडवर्ड प्राइस बार-बार इस सच्चाई को रेखांकित कर रहे हैं कि चीन का प्रभाव अकेले अमेरिका की क्षमताओं से नियंत्रित नहीं किया जा सकता और इसके लिए भारत की साझेदारी अनिवार्य है। वहीं दूसरी ओर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का व्यवहार इस साझेदारी को कमजोर करने वाला दिखाई देता है।
देखा जाये तो ट्रंप प्रशासन की ओर से भारत पर 50 प्रतिशत टैरिफ लगाने की धमकी और इसे रूस से कच्चा तेल खरीदने से जोड़ना, रणनीतिक विवेक से अधिक राजनीतिक सनक का परिणाम प्रतीत होता है। एडवर्ड प्राइस की आलोचना इस संदर्भ में सार्थक है कि यह नीति न केवल अर्थशास्त्र और कूटनीति की गलत समझ दर्शाती है, बल्कि भारत को रूस और चीन के और निकट धकेलने का खतरा भी उत्पन्न करती है, जो अमेरिका की दीर्घकालिक विदेश नीति के लिए घातक परिणाम ला सकती है।
जेक सुलिवन का आरोप
इस परिदृश्य को और जटिल बनाता है अमेरिका के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन का वह आरोप जिसमें उन्होंने कहा है कि ट्रंप परिवार के पाकिस्तान में कारोबारी हितों के चलते भारत-अमेरिका संबंधों को बलि चढ़ाया जा रहा है। यदि इसमें सच्चाई का अंश भी है, तो यह अमेरिकी कूटनीति के लिए गंभीर संकट का संकेत है। ऐसे समय में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शंघाई सहयोग संगठन (SCO) जैसे मंचों पर रूस और चीन दोनों से सक्रिय संवाद कर रहे हैं, वाशिंगटन की असंगत नीतियां भारत के विकल्पों को और मजबूत करती हैं। हम आपको बता दें कि जेक सुलिवन भारत-अमेरिका संबंधों के एक प्रमुख वास्तुकार रहे हैं। ऐसे में उनका यह आरोप बेहद गंभीर है कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पाकिस्तान में अपने पारिवारिक कारोबारी हितों के चलते नई दिल्ली के साथ रिश्तों को नुकसान पहुँचाया है। हम आपको बता दें कि पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन, जिन्होंने राष्ट्रपति जो बाइडेन, बराक ओबामा और हिलेरी क्लिंटन के तहत पिछले एक दशक में कार्य किया है और जिनकी ज़िम्मेदारी में भारत से संबंध भी शामिल थे, उन्होंने सोमवार को पॉडकास्ट Meidastouch में कहा कि ट्रंप ने “भारत के साथ रिश्तों को किनारे कर दिया है” क्योंकि पाकिस्तान ट्रंप परिवार के साथ कारोबारी समझौते करने को तैयार है।
इसे भी पढ़ें: ट्रंप के अहंकार को भारत के साथ रणनीतिक संबंधों को नष्ट करने की अनुमति नहीं दी जा सकती: अमेरिकी सांसद
सुलिवन का इशारा ट्रंप परिवार के उस संबंध की ओर था जो ज़ैक विटकॉफ़ से जुड़ा है। हम आपको बता दें कि ज़ैक विटकॉफ़ वर्ल्ड लिबर्टी फाइनेंशियल (WLFI) के सह-संस्थापक हैं, जिसने अप्रैल 2025 में पाकिस्तान क्रिप्टो काउंसिल के साथ एक समझौता किया था ताकि पाकिस्तान में क्रिप्टो विकास और डिजिटल वित्तीय परिवर्तन को बढ़ावा दिया जा सके। माना जाता है कि ट्रंप के बेटे डोनाल्ड ट्रंप जूनियर और एरिक ट्रंप, तथा दामाद जैरेड कुश्नर इस कंपनी में बड़ा हिस्सा रखते हैं। हम आपको यह भी बता दें कि ज़ैक, स्टीव विटकॉफ़ के बेटे हैं, जो ट्रंप के पुराने मित्र और दुनिया के विभिन्न हॉटस्पॉट क्षेत्रों (खाड़ी से लेकर रूस-यूक्रेन तक) में उनके सलाहकार रहे हैं। यह माना जा रहा है कि इसी क्रिप्टो डील के चलते ट्रंप ने पाकिस्तान के सैन्य शासक आसिम मुनीर को व्हाइट हाउस आमंत्रित किया था, ठीक कुछ सप्ताह बाद जब ज़ैक ने इस्लामाबाद में उनसे मुलाकात कर अपना क्रिप्टो उपक्रम प्रस्तुत किया।
अमेरिका के पूर्व एनएसए जेक सुलिवन ने इसे “ट्रंप की विदेश नीति की सबसे कम रिपोर्ट की गई कहानियों में से एक” बताते हुए कहा कि भारत से संबंध तोड़ना “एक बड़ा रणनीतिक नुकसान” है। उनके अनुसार, इससे जर्मनी, जापान और कनाडा जैसे सहयोगी देशों का भरोसा भी डगमगा सकता है, क्योंकि अमेरिका पर भरोसा नहीं किया जा सकेगा और वह मान सकते हैं कि अगला नंबर उनका है। उन्होंने कहा, “हमारा वचन ही हमारा बंधन होना चाहिए। हमारे मित्रों को हम पर भरोसा कर पाना चाहिए। भारत के साथ जो कुछ हो रहा है उसका असर केवल द्विपक्षीय संबंधों पर ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में हमारे साझेदारियों पर भी पड़ेगा।”
हम आपको यह भी बता दें कि अमेरिकी मीडिया में चीन में आयोजित एससीओ (SCO) शिखर सम्मेलन को लेकर व्यापक कवरेज हुआ और कई विशेषज्ञों ने अफसोस जताया कि ट्रंप की कठोर नीति भारत को रूस और चीन के और निकट धकेल रही है। इसे कुछ विश्लेषकों ने “अशांति की नई धुरी” तक कहा। हालाँकि, अमेरिकी वित्त मंत्री स्कॉट बेसेंट ने SCO बैठक को “ज्यादातर दिखावटी” करार देते हुए कहा कि भारत के मूल्य अमेरिका से कहीं अधिक मेल खाते हैं, चीन या रूस से नहीं। उन्होंने कहा, “भारतीयों ने रूसी तेल खरीदकर और उसे दोबारा बेचकर यूक्रेन युद्ध को वित्तीय मदद दी है। लेकिन अंततः, दो महान राष्ट्र इस समस्या का समाधान कर लेंगे।”
व्हाइट हाउस के व्यापार सलाहकार पीटर नवारो ने भी भारत पर अपनी आलोचना को थोड़ा नरम करते हुए तियानजिन में हुए SCO शिखर सम्मेलन का हवाला देते हुए कहा, “मोदी को शी जिनपिंग और पुतिन के साथ देखना अफसोसजनक था… हमें उम्मीद है कि वे समझेंगे कि उन्हें हमारे साथ होना चाहिए, न कि रूस के साथ।” फिर भी, कई विश्लेषकों का मानना है कि नुकसान हो चुका है और संबंधों को बहाल करना कठिन होगा। न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के वरिष्ठ शोधकर्ता एडवर्ड प्राइस ने बताया, “भले ही भारत और अमेरिका अंततः टैरिफ पर कोई समझौता कर लें, लेकिन भरोसा खो चुका है।” उन्होंने चेतावनी दी, “यदि चीन, रूस और भारत किसी भी आर्थिक या आंशिक सैन्य गठबंधन में एकत्रित हो जाते हैं, तो अमेरिका के लिए 21वीं सदी में प्रतिस्पर्धा करना असंभव हो जाएगा। बेहतर होगा कि हम घर चले जाएँ।''
मैरी किसेल का बयान
वहीं, अमेरिका की पूर्व सलाहकार मैरी किसेल ने कहा है कि इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव का अकेले अमेरिका मुकाबला नहीं कर सकता और इसके लिए भारत की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। उन्होंने जोर देकर कहा कि वाशिंगटन को बीजिंग की बढ़ती ताकत का सामना करने के लिए नई दिल्ली का सहयोग चाहिए। हम आपको बता दें कि किसेल पूर्व विदेश मंत्री माइक पोम्पियो की वरिष्ठ सलाहकार रह चुकी हैं। उन्होंने फॉक्स न्यूज को दिये साक्षात्कार में आर्थिक तनावों के बीच भारत-अमेरिका साझेदारी की मजबूती पर बल दिया। उन्होंने कहा कि यह तनाव वाशिंगटन द्वारा भारतीय आयात पर लगाए गए 50 प्रतिशत टैरिफ और रूस से कच्चा तेल खरीदने पर अतिरिक्त 25 प्रतिशत शुल्क के कारण और बढ़ा है। किसेल ने कहा, “यदि हम सचमुच साम्यवादी चीन को अमेरिका और हमारी जीवनशैली के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते हैं, तो हमें भारत की ज़रूरत है। यह सच्चाई है। हम एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अकेले उनसे नहीं लड़ सकते।” किसेल ने यह भी कहा कि SCO शिखर सम्मेलन में भारत की सक्रिय भूमिका ट्रंप प्रशासन के लिए चीन की आक्रामकता से निपटने में बड़ी चुनौती साबित हो सकती है। उन्होंने कहा, “हमें केवल ऑस्ट्रेलिया या जापान जैसे मित्रों की ही नहीं, बल्कि भारत की भी ताकत चाहिए। मेरा मानना है कि यह बैठक ट्रंप प्रशासन के सामने एक बड़ी चुनौती को उजागर कर रही है।”
एडवर्ड प्राइस का साक्षात्कार
इसके अलावा, एक स्वतंत्र विदेश नीति विश्लेषक एडवर्ड प्राइस ने भी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की भारत-नीति पर कड़ी आलोचना की है और चेतावनी दी है कि हालिया व्यापारिक विवाद उस साझेदारी को कमजोर कर सकते हैं जिसे उन्होंने “21वीं सदी की सबसे महत्वपूर्ण साझेदारी” बताया। एडवर्ड प्राइस न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में सहायक प्राध्यापक हैं। उन्होंने एक समाचार एजेंसी को दिये साक्षात्कार में कहा कि भारत पर ट्रंप के टैरिफ़ लगाने की धमकियाँ अर्थशास्त्र और कूटनीति, दोनों की बुनियादी समझ की कमी को दर्शाती हैं। उन्होंने कहा, “मैं पहले सोचता था कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को अर्थशास्त्र और कूटनीति की बहुत खराब समझ है। अब मुझे एहसास हुआ कि मैं ग़लत था। असल में राष्ट्रपति ट्रंप को अर्थशास्त्र और कूटनीति की कोई समझ ही नहीं है।” देखा जाये तो यह आलोचना उस समय आई है जब ट्रंप ने ओवल ऑफिस में अपने बयान में भारत द्वारा अमेरिकी कंपनियों पर लगाए गए टैरिफ़ का उल्लेख किया, जबकि उसी समय उन्होंने यह भी कहा कि अमेरिका का भारत से “बहुत अच्छा तालमेल” है।
एडवर्ड प्राइस का कहना था कि भारत की टैरिफ़ नीतियाँ न्यायोचित हैं क्योंकि वह एक विकासशील अर्थव्यवस्था है। उन्होंने कहा कि युद्धोत्तर अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था ने विशेष रूप से विकासशील देशों को विकसित देशों की तुलना में अधिक टैरिफ़ लगाने की छूट दी थी। उन्होंने तर्क दिया कि ट्रंप की नीति रणनीतिक रूप से उलटी साबित हो रही है और भारत को चीन और रूस के करीब धकेल सकती है। उन्होंने कहा कि यह वही परिणाम है जिसे अमेरिकी विदेश नीति हमेशा टालना चाहती रही है। एडवर्ड प्राइस ने कहा कि हालिया तस्वीरें, जिनमें चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग, रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी साथ दिखाई दिए, उसने इस संभावित उभरते गठबंधन को लेकर चिंता बढ़ा दी है।
एडवर्ड प्राइस ने कहा, “ऐसा लगता है कि उन्होंने भारत को रूस और चीन के करीब ला दिया है।” हालाँकि, उन्होंने यह भी चेताया कि इन देशों के बीच ऐतिहासिक तनावों के कारण यह गठजोड़ स्थायी न होकर सामरिक हो सकता है। उन्होंने मोदी की चीन और रूस से सहभागिता को वॉशिंगटन के लिए एक सोची-समझी याद दिलाने की रणनीति बताया कि भारत के पास विकल्प मौजूद हैं। उन्होंने कहा, “मोदी समझदार हैं। मोदी अपने पत्ते खेल रहे हैं। वह अमेरिका को याद दिला रहे हैं कि उनके पास चुनाव का विकल्प है।” प्राइस ने यह भी कहा कि भारत का ऐतिहासिक झुकाव गुटनिरपेक्षता की ओर रहा है, जो शीतयुद्ध के दौरान गुटनिरपेक्ष आंदोलन में उसकी नेतृत्वकारी भूमिका से स्पष्ट है। इसलिए संभावना है कि नई दिल्ली महाशक्तियों की प्रतिस्पर्धा में स्थायी रूप से किसी एक पक्ष को न चुने।
पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन के उस आरोप पर कि पाकिस्तान में ट्रंप के व्यावसायिक हितों ने नीति को प्रभावित किया है, एडवर्ड प्राइस ने कहा कि राष्ट्रपति के सक्रिय वित्तीय हित चिंताजनक हैं जिन्हें अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने परंपरागत रूप से टाला है। साक्षात्कार में ट्रंप समर्थक पीटर नवारो की उस विवादित टिप्पणी पर भी चर्चा हुई जिसमें उन्होंने यूक्रेन युद्ध को “मोदी का युद्ध” कहा था। एडवर्ड प्राइस ने नवारो की विश्वसनीयता को खारिज करते हुए कहा कि ऐसी बयानबाज़ी “अजीब” है और ज़ोर देकर कहा कि यह “पुतिन का युद्ध है, मोदी का नहीं।” प्राइस ने तर्क दिया कि 21वीं सदी में निर्णायक भूमिका भारत की होगी। अमेरिका और चीन के बीच शक्ति-संघर्ष के नतीजे का निर्धारण भारत की स्थिति से होगा।
प्राइस ने मौजूदा तनावों को उलटने के लिए दो ठोस कदम सुझाए। भारत पर लगाए गए 50% टैरिफ़ की धमकी को खत्म कर शून्य टैरिफ़ लागू करना और औपचारिक रूप से माफी माँगना। उन्होंने कहा, “मैं समझ नहीं पा रहा कि अमेरिका का राष्ट्रपति, जब चीन से टकराव और रूस से युद्ध की स्थिति में है, तब भारत पर 50% टैरिफ़ लगाने की बात क्यों करेगा।” देखा जाये तो यह आकलन विदेश नीति विशेषज्ञों के बीच इस चिंता को रेखांकित करता है कि यदि भारत-अमेरिका व्यापारिक तनाव यूँ ही जारी रहे, तो दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतंत्रों के बीच दीर्घकालिक रणनीतिक सहयोग पर गहरा असर पड़ सकता है।
इसके अलावा, कूटनीतिक वास्तविकता यह है कि भारत हमेशा से रणनीतिक स्वायत्तता और गुटनिरपेक्षता पर जोर देता आया है। मोदी का रूस और चीन के साथ संवाद इसी परंपरा का विस्तार है, न कि किसी स्थायी धुरी का निर्माण। किंतु यह भी सच है कि अमेरिका का असंगत और टकरावपूर्ण रवैया भारत को यह स्मरण कराने का अवसर देता है कि उसके पास विकल्प मौजूद हैं। अब प्रश्न यह है कि क्या अमेरिका इस साझेदारी की वास्तविक अहमियत समझ पाएगा। यदि वह सचमुच चीन को अपनी सबसे बड़ी चुनौती मानता है, तो उसे भारत के साथ व्यापारिक और कूटनीतिक रिश्तों में विश्वास बहाली करनी होगी।
बहरहाल, भारत आज 21वीं सदी की शक्ति-समीकरण का निर्णायक खिलाड़ी है। ऐसे में अमेरिका को यह भूलना नहीं चाहिए कि संबंध केवल बयानों से नहीं, बल्कि भरोसे और दीर्घकालिक प्रतिबद्धता से बनते हैं। यदि अमेरिका इस बुनियादी तथ्य की अनदेखी करता है, तो उसकी एशिया-प्रशांत रणनीति महज खोखला नारा बनकर रह जाएगी।
-नीरज कुमार दुबे
अन्य न्यूज़













