नीरज चोपड़ा ने भारत की खेल प्रतिभा का दुनियाभर में लोहा मनवा दिया है

Neeraj Chopra
ANI
ललित गर्ग । Aug 30 2023 2:25PM

नीरज चोपड़ा जैसे खिलाड़ी हमारे यहां कम नहीं हैं। खिलाड़ियों को समुचित माहौल, प्रशिक्षण और सुविधाएं मिलें, तो वे पदकों का ढेर लगा सकते हैं, नये कीर्तिमान एवं रिकार्ड बना सकते हैं। रिकार्ड सदैव टूटने के लिए होते हैं और टूटना ही प्रगति का प्रतीक है।

देश को लगातार मिल रही खुशीभरी खबरों एवं कीर्तिमानों के बीच एक और कीर्तिमान नीरज चोपड़ा ने जड़ दिया। चार दशक में पहली बार विश्व एथलेटिक्स चैंपियनशिप में किसी भारतीय का देश की झोली में एक दुर्लभ स्वर्ण पदक डालना वाकई नया इतिहास रचने से कम नहीं है। नीरज चोपड़ा का जेवलिन थ्रो प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीतना सूखे में बरसात की बूंदों के समान ही माना जाएगा। इस रोशनी के एक टुकड़े ने देशवासियों को प्रसन्नता का प्रकाश दे दिया है, संदेश दिया है कि देश का एक भी व्यक्ति अगर दृढ़ संकल्प से आगे बढ़ने की ठान ले तो वह शिखर पर पहुंच सकता है। विश्व को बौना बना सकता है। पूरे देश के निवासियों का सिर ऊंचा कर सकता है। इस ऐतिहासिक एवं यादगार उपलब्धि की खबर जब अखबारों में छपी तो सबको लगा कि शब्द उन पृष्ठों से बाहर निकलकर नाच रहे हैं।

नीरज की एक खिलाड़ी होने की यात्रा अनेक संघर्षों, झंझावातों एवं चुनौतियों से होकर गुजरी है। चंद बरस पहले वह बढ़ते वजन से परेशान एक युवा थे। 13 साल की उमर में उनका वजन 80 किलोग्राम हो गया था जिसकी वजह से उनकी उम्र के दूसरे बच्चे उन्हें चिढ़ाते थे। वहां से शुरू करके नीरज ने न सिर्फ अपने शरीर को साधा बल्कि अपने मन को अनुशासित कर इस तरह से केंद्रित किया कि लगातार आगे बढ़ते रहे, कीर्तिमान गढ़ते रहे। लेकिन उनके पांव जमीन पर हैं और तभी वह भाला फेंकते हैं तो दूर तक जाता है और एक स्वर्णित इतिहास रचता है। तभी अब तक कोई भी एथलीट देश को जो गौरव नहीं दिला पाया था, वह नीरज ने दिलाया है। लेकिन बात सिर्फ इस एक गोल्ड की नहीं है। उनकी इस उपलब्धि के साथ ऐसी कई बातें जुड़ी हैं जो उन्हें खास बनाती हैं। उनको खास बनाने में जहां उनकी लगन, परिश्रम, निष्ठा एवं खेलभावना रही, वहीं साल 2018 में एशियाई खेल और फिर कॉमनवेल्थ गेम्स में गोल्ड, 2020 में तोक्यो ओलिंपिक्स में गोल्ड, 2022 में वर्ल्ड चैम्पियनशिप में सिल्वर, 2022 में ही डायमंड लीग में गोल्ड और 2023 में वर्ल्ड चैंपियनशिप में गोल्ड लाने का उनका करिश्मा तो बहुत कुछ कहता ही है, सबसे बड़ी बात यह है कि इस दौरान वह अपने प्रदर्शन में लगातार निखार लाते रहे। उन्होंने भारतीय खेलों को भी दुनिया में शीर्ष पर पहुंचाया है। इस उपलब्धि भरी सुहानी फिजां में सबसे अहम सवाल यह है कि दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश खेलों में वह मुकाम हासिल क्यों नहीं कर पाया जिसका वह हकदार है? क्या हमारे यहां खेल का माहौल नहीं है या फिर सुविधाओं के अभाव में खिलाड़ी आगे नहीं बढ़ पाते। या खेल भी राजनीति के शिकार हैं? ये सवाल इसलिए उठते हैं क्योंकि विश्व एथलेटिक्स चैंपियनशिप में अब तक पदक पाने वाले देशों की सूची में भारत बहुत पीछे है। महज पांच करोड़ की आबादी वाला देश केन्या 65 स्वर्ण पदक के साथ दूसरे स्थान पर पहुंच गया है। वहीं एक करोड़ की आबादी वाला देश क्यूबा विश्व चैंपियनशिप में 22 स्वर्ण पदक अपनी झोली में डाल चुका है। ओलम्पिक खेलों की बात की जाए तो वहां भी भारत का प्रदर्शन निराशाजनक ही रहा है।

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ओलम्पिक खेलों के 127 साल के इतिहास में हॉकी के अलावा हमें अब तक दो स्वर्ण पदक ही मिले हैं। इनमें एक नीरज चोपड़ा व दूसरा अभिनव बिन्द्रा के नाम ही है। ऐसा नहीं है कि आजादी के बाद देश ने विकास की रफ्तार नहीं पकड़ी हो। हर क्षेत्र में भारत ने प्रगति की नई ऊंचाइयों को छुआ है। विज्ञान हो या अंतरिक्ष, देश ने दुनिया में अलग पहचान बनाई है। इस समय हम दुनिया की पांचवीं आर्थिक महाशक्ति बन गए हैं। छह दिन पहले ही चांद पर तिरंगा लहराया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कारण विश्व में भारत की बात को महत्त्व दिया जाता है। इन तमाम उपलब्धियों के बीच सवाल यही उठता है कि हम खेलों में पीछे क्यों हैं? क्या इसके लिए खेल संघ जिम्मेदार हैं? खेल संघों पर वर्षों से कब्जा जमाए बैठे राजनेता और नौकरशाह खेल की विकास यात्रा में बाधक तो नहीं बन रहे?

ऐसे समय जब चांद के दक्षिण ध्रुव के पास चंद्रयान उतार कर भारतीय वैज्ञानिक स्पेस एक्सप्लोरेशन के क्षेत्र में अपना झंडा बुलंद कर चुके हैं और शतरंज में प्रग्नानंदा जैसे यंग टैलंट नई उम्मीदें दिखा रहे हैं, नीरज चोपड़ा की यह उपलब्धि न केवल देशवासियों के मनोबल को और ऊंचा करती है बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी निरंतर बेहतर करने का विश्वास और प्रेरणा देती है और आजादी के अमृतकाल को अमृतमय करने का हौसला देती है। नीरज ने 88.17 मीटर की दूरी पर भाला फेंक कर कीर्तिमान स्थापित किया और साबित कर दिया कि भारत की मिट्टी में जन्मे खेलों को यदि खुद भारतवासी ही इज्जत की नजर से देखें तो यह देश कमाल कर सकता है। यदि सच पूछा जाये तो नीरज चोपड़ा भारतीय मूल के खेलों के ‘महानायक’ बन चुके हैं। उनसे पहले यह रूतबा कुश्ती के पहलवान गुलाम मुहम्मद बख्श उर्फ ‘गामा’ को ही प्राप्त हुआ है या ओलम्पिक खेलों में शामिल हाकी के खिलाड़ी मेजर ध्यान चन्द के नाम रहा है।

नीरज चोपड़ा का योगदान इसलिए बड़ा एवं महान है कि उन्होंने ग्रामीण एवं देशी खेल को विश्व प्रतिष्ठा प्रदान की है। भले ही आर्थिक एवं चकाचौंध वाली सोच के कारण भारत में क्रिकेट का खेल अधिक लोकप्रिय हो, लेकिन खेल की वास्तविक भावना उसमें कहां रही? उसके मुकाबले भाला फेंक जैसे खेल के प्रति अपना जीवन समर्पित करके नीरज ने भारत की नई पीढ़ी को नई दिशा एवं नया मुकाम देने का काम किया और सन्देश दिया कि भारतीय यदि चाहें तो ग्रामीण खेल कहे जाने वाली स्पर्धाओं को भी विश्व पटल तक पहुंचा सकते हैं।

नीरज चोपड़ा जैसे खिलाड़ी हमारे यहां कम नहीं हैं। खिलाड़ियों को समुचित माहौल, प्रशिक्षण और सुविधाएं मिलें, तो वे पदकों का ढेर लगा सकते हैं, नये कीर्तिमान एवं रिकार्ड बना सकते हैं। रिकार्ड सदैव टूटने के लिए होते हैं और टूटना ही प्रगति का प्रतीक है। नीरज शिखर पर हैं तो उसको छूने के प्रयास रुके नहीं। ऊंचा उठने के लिए असीम विस्तार है। हमारे खेलों में जब कोई खिलाड़ी अपनी काबिलियत के दम पर शिरकत करता है तो वह न हिन्दू होता है और न मुसलमान बल्कि हिन्दुस्तानी या भारतीय नागरिक होता है। भारत की एकता की ताकत दिखाने के लिए भी हमारे खेल और खिलाड़ी भी एक नमूना हैं। अतः मजहब या धर्म का वजूद हमारे लिए पक्के तौर पर निजी मामला ही है। नीरज चोपड़ा से कुछ पीछे पिछली बार भी पाकिस्तान का खिलाड़ी अरशद नदीम रहा था और इस बार भी यह खिलाड़ी रजत पदक जीतने में सफल रहा। नीरज एवं अरशद की दोस्ती पर कटाक्ष करने वाले खेलों को भी साम्प्रदायिक रंग देने की कुचेष्टा करते हैं।

जब भी कोई नीरज भाला उठाता है तो अनूठी दूरी तय करता है, या कोई अर्जुन धनुष उठाता है, निशाना बांधता है तो दो सौ अस्सी करोड़ हाथ तन जाते हैं, एक सौ चालीस करोड़ों के मन में एक संकल्प, एक एकाग्रता का भाव जाग उठता है और कई नीरज पैदा होते हैं। अपने देश में हर बल्ला उठाने वाला अपने को गावस्कर-सचिन समझता है, हर बॉल पकड़ने वाला अपने को कपिल समझता है। हॉकी की स्टिक पकड़ने वाला हर खिलाड़ी अपने को ध्यानचंद, हर टेनिस का रेकेट पकड़ने वाला अपने को रामानाथन कृष्णन समझता है। और भी कई नाम हैं, मिल्खा सिंह, पी.टी. उषा, प्रकाश पादुकोन, गीत सेठी, जो माप बन गये हैं खेलों की ऊंचाई के। नीरज भी आज माप बन गया है और जो माप बन जाता है वह मनुष्य के उत्थान और प्रगति की श्रेष्ठ स्थिति है। यह अनुकरणीय है। जो भी कोई मूल्य स्थापित करता है, जो भी कोई पात्रता पैदा करता है, जो भी कोई सृजन करता है, जो देश का गौरव बढ़ाता है, जो गीतों में गाया जाता है, उसे सलाम। नीरज के भाले को सलाम! उसके संकल्प को नमन्!! उसके विश्वास का अभिनन्दन!!!

-ललित गर्ग

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)

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