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कांग्रेस की सावरकर विरोधी मुहिम से गरमाई उत्तर प्रदेश की सियासत
- अजय कुमार
- जनवरी 21, 2021 13:12
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पिक्चर गैलरी का अनावरण करते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने महिमा गान करते हुए कहा कि सावरकर का व्यक्तित्व सभी देशवासियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इस पर कांग्रेस की ओर से कड़ा एतराज जताया गया।
किसी राष्ट्र का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि देश को आजादी दिलाने वाले नायकों पर ही सियासत शुरू हो जाए। देश को आजाद कराने के लिए दिए गए उनके बलिदान को थोथा साबित कर दिया जाए और यह सब इसलिए किया जाए जिससे कुछ लोगों की न केवल सियासत चमकती रहे बल्कि उनके पूर्वजों का कद भी ऊंचा रहे, जिन्होंने कभी भी आजादी की लड़ाई में अपना योगदान देने की बात बढ़-चढ़कर प्रचारित-प्रसारित करने का कोई मौका नहीं छोड़ा। यहां तक की इतिहास तक पलट दिया गया। यही वजह है जिन्होंने आजादी के पूरे आंदोलन के दौरान कभी जेल की हवा नहीं खाई, गोरे सिपाहियों ने जिन पर लाठी नहीं चलाई वह ताल-तिकड़म से आजादी के महानायक बन गए और जिन्होंने दस वर्षों तक सेलुलर जेल में काला पानी की सजा काटी, उन्हें कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। ऐसे ही देश के महान सपूत वीर सावरकर आजकल कांग्रेस की आंख की किरकिरी बने हुए हैं। कांग्रेस एक तरफ देश भर में आजादी के नायक वीर सावरकर के खिलाफ जहर उगलती फिरती है वहीं दूसरी तरफ महाराष्ट्र में उस शिवसेना सरकार का हिस्सा बन जाती है जो महान स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर को अपना नायक मानती है।
खैर, वीर सावरकर (विनायक दामोदर सावरकर) से कांग्रेस का दुराव पुराना है। वीर सावरकर को लेकर कांग्रेस और भाजपा के बीच भी तलवारें खिंची रहती हैं। दरअसल, बीजेपी आजादी की लड़ाई में वीर सावरकर को नेहरू जैसे तमाम नेताओं से बड़ा और सच्चा नायक मानती है। इसीलिए योगी सरकार ने उत्तर प्रदेश विधान परिषद की नवसृजित पिक्चर गैलरी में जैसे ही महान स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर का चित्र लगाया तो कांग्रेस बिफर गई। परिषद में पार्टी के दल नेता दीपक सिंह ने सभापति रमेश यादव को पत्र लिखकर सावरकर के कार्यों को देश विरोधी बताया और फोटो हटाकर भाजपा के संसदीय कार्यालय में लगाने की मांग की है। पूर्व सपा नेता और सभापति रमेश यादव, जिनका कार्यकाल इस माह के अंत में खत्म हो रहा है, ने भी सियासी गोटियां बिछाते हुए प्रमुख सचिव को तथ्यों की जांच करने के निर्देश देने में देरी नहीं लगाई।
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दरअसल, हाल ही में उत्तर प्रदेश विधान परिषद का सुंदरीकरण कराने के साथ ही वहां पिक्चर गैलरी बनाई गई है, जिसमें तमाम स्वतंत्रता सेनानियों, क्रांतिकारियों के चित्र लगाए गए हैं। इनमें वीर सावरकर की तस्वीर भी शामिल है। पिक्चर गैलरी का अनावरण करते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने महिमा गान करते हुए कहा कि सावरकर का व्यक्तित्व सभी देशवासियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इस पर कांग्रेस की ओर से कड़ा एतराज जताया गया। कांग्रेस के विधान परिषद सदस्य दीपक सिंह ने सभापति को पत्र लिखकर कहा कि स्वतंत्रता सेनानियों और क्रांतिकारियों के बीच सावरकर का चित्र लगाना उन महापुरुषों का अपमान है। अंग्रेजों से माफी मांगने वाले, उनके साथ मिलकर देश के विरुद्ध लड़ने वाले, मोहम्मद अली जिन्ना की तरह दो राष्ट्र की मांग उठाने वाले को सिर्फ भाजपा की स्वतंत्रता सेनानी मान सकती है। विधान परिषद में प्रशिक्षण-भ्रमण पर आने वाले अधिकारी और छात्र यहां से क्या प्रेरणा लेंगे। कांग्रेस ने मांग की कि सावरकर के चित्र को विधान भवन के मुख्य द्वार से हटाकर भाजपा के संसदीय कार्यालय में लगा दिया जाए।
बहरहाल, कांग्रेस की सोच जो भी हो लेकिन वीर सावरकर को लेकर देश की बड़ी आबादी की सोच कांग्रेस से बिल्कुल इत्तेफाक नहीं रखती है। एक तरफ भारतीय जनता पार्टी वीर सावरकर को भारत रत्न देने की बात कर उन्हें महान देशभक्त बताती है, तो दूसरी तरफ कांग्रेस उन्हें अंग्रेजों का पिट्ठू करार देकर लगातार विरोध करती रहती है। हालांकि तमाम किन्तु-परंतुओं के बीच यह जान लेना भी जरूरी है कि एक समय ऐसा भी था जब कांग्रेस और वीर सावरकर एक-दूसरे के प्रबल समर्थक हुआ करते थे। वीर सावरकर ने एक समय कांग्रेस को आजादी की मशालवाहक तक करार दिया था। और तो और वीर सावरकर के जेल से छूटने के बाद कांग्रेस के कई नेताओं ने कई शहरों में वीर सावरकर के स्वागत में कार्यक्रम तक रखे थे, लेकिन समय के साथ काफी कुछ बदल गया और कांग्रेस ने वीर सावरकर से दूरी बनाकर उन्हें अपमानित करना भी शुरू कर दिया।
वीर सावरकर से कांग्रेस का विरोध जगजाहिर है, लेकिन इतने मात्र से सावरकर का कद छोटा नहीं हो जाता है। आधुनिक भारत में हिंदुत्व राष्ट्रवाद के पुरोधा माने जाने वाले सावरकर का बाल गंगाधर तिलक, दादा भाई नौरोजी, महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस और नरीमन जैसे नेता भी समय-समय पर तारीफ करते रहे थे। वीर सावरकर हमेशा गोरी सरकार की आंख की किरकिरी बने रहे थे। इसीलिए उन्हें ब्रिटिश सरकार ने काला पानी की सजा देकर सेलुलर जेल में बंद कर दिया था। 1920 में गांधी, वल्लभभाई पटेल और तिलक ने ब्रिटिश शासकों से सावरकर को बगैर शर्त छोड़ जाने की मांग रखी थी, लेकिन इस सबके बावजूद वीर सावरकर और कांग्रेस एक घटना को लेकर इस तरह आमने-सामने आए कि दोनों के बीच दुश्मनी की दीवार खड़ी हो गई।
हुआ यह कि नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रॉविन्स में कुछ हिंदू युवतियों का अपहरण हो गया। इस अपरहरण कांड को लेकर तमाम तरह की खबरें फैल रही थीं। इसी में एक खबर यह भी थी कि कुछ स्थानीय नेताओं जिसमें डॉ. खान साहिब के नाम से मशहूर अब्दुल जफ्फार खान का भी नाम शामिल था, ने अगवा की गई युवतियों को वापस मुस्लिम अपहरणकर्ताओं को सौंपे जाने की मांग की थी। उनकी इस मांग का कांग्रेस के नेताओं ने अपनी सभा में समर्थन किया था। इससे क्रोधित वीर सावरकर ने कांग्रेसी नेताओं को कथित रूप से ‘राष्ट्रीय हिजड़े’ ही उपाधि दे दी। इसके बाद कांग्रेस और वीर सावरकर एक-दूसरे के कट्टर दुश्मन बन गए। उस समय कांग्रेस ने वीर सावरकर का विरोध करते हुए कहा था कि वह जिस घटना को आधार बनाकर कांग्रेस पर लांछन लगा रहे हैं, वह घटना काल्पनिक है।
इस पूरे प्रसंग का उल्लेख करते हुए वैभव पुरंदरे ने अपनी पुस्तक ‘सावरकर द ट्रू स्टोरी ऑफ फादर ऑफ हिंदुत्व’ में लिखा कि उक्त प्रकरण के बाद पुणे में सावरकर के जेल से छूटने के बाद होने वाले स्वागत कार्यक्रम के प्रभारी कांग्रेसी नेता एनवी गाडगिल ने स्वागत प्रभारी पद छोड़ दिया और सावरकर पर आरोप लगाया कि उन्होंने (सावरकर) जिस खबर पर कड़ी प्रतिक्रिया दी, वही झूठी थी। पुरंदरे ने अपनी किताब में लिखा कि गाडगिल ने कहा था कि डॉ. खान साहिब के नाम से मशहूर अब्दुल जफ्फार खान ने ऐसा कोई बयान नहीं दिया कि लड़कियां अपहरणकर्ताओं को सौंपी जानी चाहिए। अब्दुल गफ्फार खान सीमांत गांधी के नाम से मशहूर गफ्फार खान के भाई थे। ये उनके नाम से छपा जरूर था। गाडगिल के इस बयान के बाद रिपोर्टिंग को लेकर सवाल खड़े हुए थे।
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गाडगिल के इस कदम के बाद सावरकर ने कहा कि अगर खान साहिब के नाम से छपा ये बयान वास्तविक नहीं हुआ तो मुझसे ज्यादा खुशी किसी और को नहीं होगी। पुरंदरे लिखते हैं कि सावरकर ने इस मुद्दे पर कई तरह से सफाइयां दीं और कांग्रेस के साथ कई किस्म की बातचीत हुई, लेकिन सावरकर को कांग्रेस ने ब्लैकलिस्ट में डाल दिया। सावरकर का जो भी कार्यक्रम होता, वहां कांग्रेसी काले झंडे लेकर विरोध प्रदर्शन करने पहुंच जाते थे। इस पूरे घटनाक्रम के बाद सावरकर और कांग्रेस के बीच फिर कभी बात नहीं बनी। सावरकर भी बाबा साहेब आंबेडकर को छोड़ नेहरू, गांधी और सभी प्रमुख कांग्रेसी नेताओं की समय-समय पर आलोचना करते रहे। उधर, कांग्रेस भी पूरी ताकत से सावरकर के विरोध में खड़ी होकर सावरकर को धीरे-धीरे भारतीय राजनीति से दरकिनार करती चली गई। वीर सावरकर की ऐसी छवि बना दी गई मानो वह हिन्दू राष्ट्र के पक्षधर हों। सावरकर के बारे में कांग्रेस ने अनर्गल प्रचार करके उनकी छवि धूमिल करने का कभी कोई मौका नहीं छोड़ा और यह सिलसिला आज तक जारी है। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी तो वीर सावरकर को लेकर निम्न स्तर की सियासत पर उतर आते हैं।
-अजय कुमार
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- रमेश ठाकुर
- फरवरी 27, 2021 12:55
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नवीन गाइडलाइन्स के मुताबिक सोशल तंत्र केंद्र सरकार को भड़काऊ मैसेज भेजने वालों की पूरी डिटेल देगा। इसके लिए उनको अपना नोडल अधिकारी नियुक्त करना होगा। थोड़ा संदेह होता है कि क्या कंपनियां अपने विभिन्न प्लेटफॉर्म को रेगुलेट करेंगी ?
वर्षों पहले जब सोशल मीडिया का दायरा धीरे-धीरे बढ़ा। पहले शहरी क्षेत्रों में जड़ें फैलीं, फिर गांव-देहातों में विस्तार हुआ। तब लोगों को जन संचार के इस नए रूप के फायदे ही फायदे दिखे। सूचनाओं के आदान-प्रदान के हिसाब से कई क्षेत्रों के लिए फ़ायदेमंद है भी। पर, शायद किसी ने सोचा नहीं होगा एक दिन इसकी समूची दुनिया आदी हो जाएंगे। कमोबेश, वैसा हो भी गया। हाल के वर्षों में देखते ही देखते इन जन संचार माध्यमों का दुष्प्रचार इस कदर बढ़ा है, जिससे शासन क्या, प्रशासन को भी मुसीबत में डाल दिया। सोशल मीडिया का बढ़ता प्रभाव अब सीधे व्यक्तिगत हो गया है। साथ ही निजता पर अटैक करने लगा है। साइबर कानून के पूरे सिस्टम ने इसके बढ़ते अपराधों को समेटने में घुटने टेक दिए हैं क्योंकि हर किस्म के अपराध में सोशल मीडिया सक्रिय है। नेशनल क्राइम ब्यूरो के ताजा आंकड़े डरावने हैं। आंकड़ों के मुताबिक अपराध से जुड़ा प्रत्येक पांचवां मामला किसी न किसी रूप में सोशल मीडिया से जुड़ा है।
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ये थ्योरी भी समझनी जरूरी है कि केंद्र सरकार क्यों इस पर नकेल कसना चाहती है? दरअसल, अब बात उन पर भी बन आई है। किसान आंदोलन हो या दूसरे विरोध-प्रदर्शन, सरकार के खिलाफ चिंगारियां सभी सोशल मीडिया के माध्यम से हो रही हैं। अधिकृत न्यूज़ चैनल और प्रिंट अखबार सभी तो सरकार के नियंत्रण में है। पर, सोशल मीडिया पर लगाम नहीं है। वहां सरकार के खिलाफ विरोध का समुद्र उफान मार रहा है। देश-विदेश में छवि खराब की जा रही है। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर केंद्र सरकार ने सोशल मीडिया के क्रुप्रभाव को रोकने की पहल की है। वैसे, निर्णय स्वागतयोग्य है, सरकार का नियंत्रण होना भी चाहिए। क्योंकि बिना चालक के वाहन से खतरे ही खतरे होते हैं। वह खतरे न सिर्फ सरकार के लिए होते हैं, बल्कि समाज के लिए एक जैसे ही होते हैं।
ग़ौरतलब है कि बीते चार-पांच सालों में केंद्र सरकार के पास सोशल मीडिया से संबंधित करीब चौबीस लाख शिकायतें मिलीं। इतनी शिकायतों का पतंग बनाकर उड़ाया भी नहीं जा सकता। कोरोना संकट की शुरुआत से ही केंद्र सरकार में मंथन जारी है कि कैसे बढ़ते सोशल जंजाल को रोका जाए। काफी मनन-मंथन हुआ, तब आखिरकार पच्चीस तारीख मुकर्रर हुई और सोशल मीडिया पर बंदिश लगाने का ऐलान केंद्र सरकार की ओर से एक नहीं बल्कि दो-दो मंत्रियों ने किया। उनके ऐलान के साथ ही समाज में बहस भी छिड़ गई। बहस दो धड़ों में विभाजित है। एक पक्ष में है तो दूसरा विपक्ष में। विपक्षी धड़े का मानना है, ये सब केंद्र सरकार ने अपने खिलाफ उठते सुर और दिल्ली में तीन महीनों से जारी किसान आंदोलन को रोकने और उनके खिलाफ उठते जनाक्रोश को समेटने के लिए किया।
वहीं, पक्षधरों का तर्क है कि सोशल मीडिया के जहरीले समुद्र में युवा पीढ़ी चौबीस घंटे गोते लगा रही है, डूबने से बचने के लिए सरकार ने कदम उठाया है। ये बात सच है कि एकाध सालों में सोशल मीडिया का लोगों ने बेजा इस्तेमाल किया है। तभी सूचना का यह तंत्र बेलगाम हुआ। इनका न कोई संपादक है और न कोई पहरेदार। ऐसे उदाहरण अनगिनत हैं जब एक व्यक्ति का दूसरे के प्रति दुर्भावना रखने पर उसकी इज्जत सोशल मीडिया पर पलक झपकते ही नीलाम की गयी हो। बेवजह की परेशानी से कइयों ने अपनी जानें भी दीं। ऐसे मामलों को देखकर लगता है कि सरकार की सोशल बंदी पर लिया फैसला अच्छा ही है। बहरहाल, कई बातों को ध्यान में रखकर केंद्र सरकार ने सोशल मीडिया और ओटीटी प्लेटफॉर्म पर नई गाइडलाइन्स जारी की है।
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नवीन गाइडलाइन्स के मुताबिक सोशल तंत्र केंद्र सरकार को भड़काऊ मैसेज भेजने वालों की पूरी डिटेल देगा। इसके लिए उनको अपना नोडल अधिकारी नियुक्त करना होगा। थोड़ा संदेह होता है कि क्या कंपनियां अपने विभिन्न प्लेटफॉर्म को रेगुलेट करेंगी? जानकारी कुछ ऐसी है कि केंद्र सरकार आईटी-एक्ट के सेक्शन-79 में संशोधन करेगी। साथ ही आईटी एक्ट इंटरमीडियटरी रुल्स-2021 भी लाएगी, जिसका आईटी मंत्रालय अगले एकाध दिनों में ड्राफ्ट भी नोटिफाई करेगी। मंत्रियों की मानें तो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को अपने कंटेंट को सरकार के कहने पर 24 घंटे में हटाना होगा और अलग 72 घंटे में कार्रवाई भी करनी होगी। मुझे लगता है ये सब कुछ कंपनियों पर ही छोड़ देना, ज्यादा तर्कसंगत नहीं होगा। इसमें सरकार को सक्रिय होना होगा।
केंद्र के निर्णय से नोटबंदी-लॉकडाउन की तरह भूचाल आया हुआ है। क्योंकि सोशल मीडिया आज लोगों की जिंदगी का अहम हिस्सा है। कइयों को इसके बिना जीवन अधूरा लगता है। समूचे हिंदुस्तान में तकरीबन 53 करोड़ वॉट्सएप यूज़र हैं। चालीस करोड़ के आसपास फेसबुक इस्तेमाल करते हैं। तो वहीं एक करोड़ के करीब ट्विटर पर मौजूद हैं। इनमें से वॉट्सएप का दुरुपयोग सबसे ज्यादा हो रहा है। हैदराबाद का एक मामला जिसमें कुछ शरारती तत्वों ने प्राइमरी स्कूल की एक टीचर का फोटो एडिट करके गंदी फिल्म में डाल दिया। उसके बाद वॉट्सएप ग्रुप बनाकर पूरे शहर में वायरल कर दिया। महिला टीचर ने बदनामी से अपनी जान दे दी। ये केस मात्र बानगी है। वरना ऐसे मामलों की देशभर में भरमार है।
सोशल मीडिया के दंश से सबसे ज्यादा भुक्तभोगी सफ़ेदपोश और नौकरशाह हैं। संशय इस बात का है। कहीं मौजूदा गाइड लाइन भी सफेद हाथी जैसी साबित न हो। क्योंकि इससे पहले भी कई मर्तबा बंदिशें लगी हैं। सुप्रीम कोर्ट भी ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर डाले जाने वाले कंटेंट को लेकर गाइड लाइन जारी कर चुका है। जिसका न समाज ने पालन किया और न ही केंद्र और राज्य सरकारों ने? इसलिए मौजूदा नकेल कसने की बातों पर ज्यादा इत्तेफ़ाक नहीं होता। इसके लिए बहुत कुछ करना होगा। एक अलग तंत्र और सिस्टम पीछे लगाना होगा। जो चौबीसों घंटे सोशल मीडिया के प्लेटफार्मों पर कड़ी निगरानी रख सके। जद में आने वाले किसी को नहीं बख्शा जाना चाहिए। फिर चाहे कोई आम हो या खास?
सरकार का ये कदम सोशल मीडिया को सुधारने के लिए है। प्रेस काउंसिल जैसा कोड बनेगा, उल्लंघन करने वालों पर आईटी का नया कानून लागू होगा। सवाल एक ये भी उठता है कि क्या ट्विटर और फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म सरकार की बात को मानेंगे? क्या उनके कहने से आपत्तिजनक कंटेंट हटाएँगे? ये बड़ा सवाल है। फेसबुक की आस्ट्रेलिया जैसे मुल्कों के साथ कैसी ठनी हुई है, ताजा उदाहरण हमारे पास है। फिलहाल इसका तोड़ केंद्र सरकार ने खोजा है। मैसेज का एनक्रिप्शन सरकार सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को देगी। उसके बावजूद भी बात नहीं मानी तो संचार के संपूर्ण माध्यम को सरकार को रोकना पड़ेगा। जिसे सरकार आसानी से कर सकती है। सरकार ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर आसानी से नकेल कस सकती है। इसमें बस ईमानदारी से इच्छाशक्ति की जरूरत है और कुछ नहीं? केंद्र सरकार ने बहुत सोच समझकर निर्णय लिया है। सोशल मीडिया पर नियंत्रण सरकार की नहीं, बल्कि वक्त की जरूरत है?
-डॉ. रमेश ठाकुर
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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- ललित गर्ग
- फरवरी 26, 2021 14:56
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ममता बनर्जी एक जुझारू एवं जमीन से जुड़ी नेता हैं। उनका एक राजनीतिक वजूद है, जनता पर उसकी पकड़ है। उसकी स्वतंत्र सोच है, जीत किस तरह सुनिश्चित की जा सकती है, यह गणित उन्हें भलीभांति आता है। उन्हें परास्त करना एक बड़ी चुनौती है।
आज पश्चिम बंगाल के चुनाव का मुद्दा राष्ट्रीय चर्चा एवं चिन्ता की प्राथमिकता लिये हुए है। संभवतः आजादी के बाद यह पहला चुनाव है जो इतना चर्चित, आक्रामक होकर राष्ट्रीय अस्मिता एवं अस्तित्व का प्रश्न बन गया है। इसलिये जरूरी है कि अब पश्चिम बंगाल पर औपचारिक या राजनीतिक लाभ वाले भाषण नहीं हों। जो कुछ हो वह साफ-साफ हो। एक राय का हो। पश्चिम बंगाल की अखण्डता, लोकतांत्रिक समाधान और उसे शांति एवं समृद्धि की ओर ले जाना देश की प्राथमिकता की सूची में पहले नम्बर पर होना चाहिए। देश के अल्पसंख्यक क्यों भूल जाते हैं कि पश्चिम बंगाल सुरक्षित नहीं तो वे कैसे सुरक्षित रह सकते हैं, उनका मौन बहुत बड़ा अहित कर रहा है।
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मजबूत संकल्प शक्ति के कारण जम्मू-कश्मीर की फिजा बदली है। उनकी राष्ट्रीयता एवं उसे मजबूती देने का संकल्प उनका सबसे बड़ा राजनीतिक गुण है और यह बात आम मतदाता को आसानी से समझ भी आती है। निस्संदेह, हर इंसान की कुछ न कुछ चाहत होती है, लेकिन उसे कामयाबी तभी मिलती है, जब उसकी इच्छाशक्ति मजबूत हो। आज पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र के सशक्तीकरण एवं राजनीतिक परिवर्तन की अपेक्षा सभी कोई महसूस कर रहे हैं। इसी अपेक्षा के रथ पर भारतीय जनता पार्टी ने सवार होकर इसे एक चुनौती के रूप में लिया है और इसी अनुरूप चुनावी संकल्पों की संरचना एवं रणनीति बनाने में वह जुटी है। इसी कारण पश्चिम बंगाल ऐसे ही संकल्पों का रणक्षेत्र बन गया है। भाजपा ने जिस तरह से इसे कुरुक्षेत्र का मैदान बना दिया है, यहां परिवर्तन लाना और ममता बनर्जी का राजनीतिक नियंत्रण खत्म करना भाजपा का सबसे बड़ा लक्ष्य है। यही कारण है कि गृहमंत्री एवं पार्टी के चाणक्य माने जाने वाले सबसे कद्दावर नेता अमित शाह लम्बे समय से अपनी सारी शक्ति, सोच एवं ऊर्जा पश्चिम बंगाल में खपा रहे हैं। निश्चित ही उनके हर दिन के प्रयत्न पार्टी में कुछ नया उत्साहपूर्वक परिवेश बना रहे हैं, पार्टी की जीत को सुनिश्चित कर रहे हैं। बावजूद इसके पार्टी नेतृत्व जानता है कि ममता को कमतर आंकना उसकी भूल साबित होगी। ममता बनर्जी एक जुझारू एवं जमीन से जुड़ी नेता हैं। उनका एक राजनीतिक वजूद है, जनता पर उसकी पकड़ है। उसकी स्वतंत्र सोच है, जीत किस तरह सुनिश्चित की जा सकती है, यह गणित उन्हें भलीभांति आता है। उन्हें परास्त करना एक बड़ी चुनौती है।
भाजपा ने स्वल्प समय में सफलता के नये कीर्तिमान गढ़े हैं, नरेन्द्र मोदी ने तो अपनी राजनीतिक दूरदर्शिता, नेतृत्व क्षमता एवं कौशल से अनेक अनूठे एवं राजनीतिक कीर्तिमान गढ़े ही हैं। लेकिन जब अमित शाह भाजपा के अध्यक्ष बने थे, तभी उन्होंने संकल्प व्यक्त किया था कि भाजपा को अखिल भारतीय पार्टी बनाना एवं गैरभाजपा प्रांतों में भाजपा की सरकारें बनाना उनका सपना है। उन्होंने साफ-साफ कहा था कि पूर्व और दक्षिण में भाजपा कमजोर है, जिसे मजबूत बनाने की तरफ ध्यान दिया जाएगा। आज पूर्वोत्तर तक में पार्टी पहुंच गई है, जबकि दक्षिण में कर्नाटक में उसका झंडा लहरा रहा है। ऐसे में, स्वाभाविक तौर पर उनकी नजर पश्चिम बंगाल पर है, जो राजनीतिक रूप से संवेदनशील और सांस्कृतिक रूप से बेहद उर्वर राज्य है।
असम में भाजपा की सरकार है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने असम में एक रैली को संबोधित करते हुए संकेत दिया कि मार्च 2021 के पहले हफ्ते में चुनाव आयोग वहां चुनाव तारीखों की घोषणा कर सकता है। बहरहाल, असम के साथ ही पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी में भी चुनाव होने वाले हैं और इनकी धमक काफी पहले से सुनाई दे रही है। भाजपा ने चुनाव चाहे नगरपालिका के हों या पंचायतों के, विधानसभा के हो या लोकसभा के, उसे जहां पहली बार अपनी सहभागिता करनी थी एवं जहां जीत का परचम फहराना था, वहां उसके लिये कोई चुनाव छोटा या गैरमामूली नहीं होता। हैदराबाद के नगरपालिका चुनावों पर भी भाजपा की हफ्तों चहल-पहल हमने हाल में देखी है। लोकतंत्र के लिए निश्चित रूप से यह एक अच्छी बात है, इस सदाबहार चुनावी गहमागहमी की अगुआई भाजपा कर रही है। उसी ने इसको शुरू किया और वही आगे भी बढ़ा रही है।
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इस बार चुनाव तो पांच विधानसभाओं के होने वाले हैं लेकिन दो राज्यों से ज्यादा ही चुनावी उग्रता एवं गहमागहमी की खबरें आ रही हैं। असम, जहां बीजेपी सत्ता में है और पश्चिम बंगाल, जहां वह पहली बार सत्ता की दौड़ में शामिल है। केरल में वाम मोर्चे की सरकार को चुनौती कांग्रेस की तरफ से है जबकि तमिलनाडु में मुख्य लड़ाई एआईएडीएमके और डीएमके के बीच है। पुडुचेरी में बीजेपी का कोई निर्वाचित विधायक नहीं है लेकिन तीन मनोनीत विधायकों के जरिये वहां विधानसभा में उसकी उपस्थिति बनी हुई है। केरल में मेट्रोमैन ई. श्रीधरन के भाजपा में आने और पुडुचेरी में छह विधायकों के इस्तीफे के कारण नारायण सामी सरकार गिरने के बाद कहा जाने लगा है कि इन राज्यों के चुनाव में भी भाजपा का दखल निर्णायक रहेगा। एक कमाल की बात इधर यह हुई है कि ‘प्यार और जंग में सब जायज है’, वाले सूत्रवाक्य में चुनाव में भी सब जायज ही जायज है, भले श्रीधरन की उम्र 80 हो। चुनाव में राजनीतिक दबाव बनाने के लिये सभी तरीकों को आजमाया जाना भी सभी आदर्श की बातों को किनारे कर देता है, बंगाल में भाजपा की सरकार का दावा किया जा रहा है और यह हकीकत बन भी सकता है क्योंकि ममता का पूरा ध्यान चुनाव में जीत पर केन्द्रित है और इसके चलते वह बंगाल के लिए कुछ ठोस करने में विफल साबित हुई हैं। यही वजह है कि आज भाजपा विकास की बात करते हुए साम-दाम-दंड-भेद, हर नीति को अपना रही है। उदाहरण मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी के घर पर सीबीआई टीम का पहुंचना है। घोटाले के हर आरोप की स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच होनी ही चाहिए, लेकिन जांच एजेंसियों की इस तेजी को चुनावों से जोड़कर देखने के लिए किसी अतिरिक्त प्रयास की जरूरत नहीं है।
भाजपा एवं तृणमूल कांग्रेस के बीच राजनीतिक धमासान छिड़ा हुआ है, नरेंद्र मोदी और ममता बनर्जी दोनों के लिये यह चुनाव राजनीतिक प्रतिष्ठा का चुनाव है, इसलिये येन-केन-प्रकारेण जीत को सुनिश्चित करना दोनों का लक्ष्य है। इसके लिये ‘जैसे को तैसा’ का राजनीतिक दांव चला जा रहा है। एक आरोप उधर से उठता है, तो दूसरे यहां से लगाए जाते हैं। हालांकि, दोनों राजनीतिक योद्धाओें में समानताएं भी खूब हैं। दोनों जमीनी नेता हैं और उन्हें विरासत में राजनीति नहीं मिली। दोनों को राजनीति में महारत हासिल है और दोनों लोकप्रिय भी खूब हैं- मोदी देश में, तो ममता राज्य में। ऐसे में, पूरा चुनाव मोदी बनाम ममता बन गया है। हालांकि, ममता के सामने मोदी को खड़ा करना भाजपा की मजबूरी भी है, क्योंकि राज्य में उसका कोई चेहरा नहीं है। देखा जाए, तो यही भाजपा की सबसे बड़ी चुनौती भी है।
पांच चुनावों में सबसे आक्रामक चुनाव बंगाल का होने जा रहा है। इस चुनाव में राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का स्तर एवं भाषा में जबर्दस्त गिरावट देखने को मिल रही है, तू-तू, मैं-मैं हो रही है। दोनों दल एक-दूसरे को सीधे-सीधे टक्कर दे रहे हैं। दोनों के लिये सिद्धान्त से अधिक अहमियत सत्ता की है। लेकिन बंगाल के लिये ज्यादा जरूरी अराजकता एवं अस्थिरता मिटाने के लिये सक्षम एवं प्रभावी नेतृत्व की है, जो भी दल आये उसकी नीति एवं निर्णय में निजता से अधिक निष्ठा की जरूरत है।
-ललित गर्ग
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- डॉ. वेदप्रताप वैदिक
- फरवरी 25, 2021 11:52
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वर्तमान कानून लंबी बहस और सैंकड़ों संशोधनों के बाद पारित हुआ है। यह नये फ्रांसीसी इस्लाम की स्थापना कर रहा है। इस कानून का मुख्य उद्देश्य फ्रांस के मुसलमानों को यह समझाना है कि तुम सबसे पहले फ्रांस के नागरिक हो। अफ्रीकी, अरब, तुर्क, ईरानी या मुसलमान बाद में।
फ्रांस की संसद ने ऐसा कानून पारित कर दिया है, जिसे लेकर इस्लामी जगत में खलबली मच गई है। कई मुस्लिम राष्ट्रों के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तथा मुल्ला-मौलवी उसके खिलाफ अभियान चलाने लगे हैं। उन्होंने फ्रांस के विरुद्ध तरह-तरह के प्रतिबंधों की घोषणा कर दी है। सबसे पहले हम यह जानें कि यह कानून क्या है और इसे क्यों लगाया गया है ?
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इस सख्त कानून को लाने का उद्दीपक कारण वह घटना है, जो पिछले साल अक्टूबर में फ्रांस में घटी थी। सेमुअल पेटी नामक एक फ्रांसीसी अध्यापक की हत्या अब्दुल्ला अजारोव ने इसलिए कर दी थी कि उसने अपनी कक्षा में पैगंबर मुहम्मद के कार्टून दिखा दिए थे। वह छात्रों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पाठ पढ़ा रहा था। फ्रांसीसी पुलिस ने अब्दुल्ला की भी हत्या कर दी थी। अब्दुल्ला के माता-पिता रूस के मुस्लिम-बहुल प्रांत चेचन्या से आकर फ्रांस में बसे थे। इस घटना ने पूरे यूरोप को प्रकंपित और क्रोधित कर दिया था। इसके पहले 2015 में ‘चार्ली हेब्दो’ नामक पत्रिका पर इस्लामी आतंकवादियों ने हमला बोलकर 12 फ्रांसीसी पत्रकारों को मौत के घाट उतार दिया था। ऐसी खूनी घटनाओं के पक्ष-विपक्ष में होनेवाले कई प्रदर्शनों में दर्जनों लोग मारे गए और भारी तोड़-फोड़ भी हुई।
इसी कारण फ्रांस के राष्ट्रपति इमेनुएल मेक्रों यह सख्त कानून लाने के लिए मजबूर हुए। उनके गृहमंत्री ने घोषणा की थी कि हमारे ‘‘गणराज्य के दुश्मनों को हम एक मिनिट भी चैन से नहीं बैठने देंगे।’’ फ्रांसीसी नेताओं के इन सख्त बयानों पर प्रतिक्रिया करते हुए तुर्की के राष्ट्रपति तय्यब एरदोगन ने कहा था कि फ्रांस के राष्ट्रपति अपनी दिमागी जांच करवाएं। कहीं वे पागल तो नहीं हो गए हैं। राष्ट्रपति मेक्रों ने सारे यूरोप के क्रोध को अब कानूनी रूप दे दिया है और फ्रांसीसी संसद के निम्न सदन ने पिछले सप्ताह स्पष्ट बहुमत से उस पर मुहर लगा दी है।
इस कानून में कहीं भी इस्लाम शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। इस कानून को अलगाववाद-विरोधी कानून नाम दिया गया है। इसमें सिर्फ धार्मिक या मजहबी कट्टरवाद की भर्त्सना है, किसी इस्लाम या ईसाइयत की नहीं। इस कानून में फ्रांसीसी ‘लायसीती’ याने पंथ-निरपेक्षता के सिद्धांत पर जोर दिया गया है। यह सिद्धांत 1905 में कानून के रूप में इसलिए स्वीकार किया गया था कि सरकार को चर्च के ईसाई कट्टरवाद और दादागीरी को खत्म करना था। इसी कानून के चलते सरकारी स्कूलों में किसी छात्र, छात्रा और अध्यापक को ईसाइयों का क्रॉस, यहूदियों का यामुका (टोपी) या इस्लामी हिजाब आदि पहनने पर पाबंदी लगा दी गई थी। मजहबी छुट्टियां यानि ईद और योम किप्पूर की छुट्टियां भी रद्द कर दी गई थीं।
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वर्तमान कानून लंबी बहस और सैंकड़ों संशोधनों के बाद पारित हुआ है। यह नये फ्रांसीसी इस्लाम की स्थापना कर रहा है। इस कानून का मुख्य उद्देश्य फ्रांस के मुसलमानों को यह समझाना है कि तुम सबसे पहले फ्रांस के नागरिक हो। अफ्रीकी, अरब, तुर्क, ईरानी या मुसलमान बाद में। यदि तुम्हें फ्रांस का नागरिक बनकर रहना है तो पहले तुम अलगाववाद छोड़ो और पहले फ्रांसीसी बनो। 7 करोड़ के फ्रांस में इस समय लगभग 60 लाख मुसलमान हैं, जो अफ्रीका और एशिया के मुस्लिम देशों से आकर वहां बस गए हैं। उनमें से ज्यादातर फ्रांसीसी रीति-रिवाजों को भरसक आत्मसात कर चुके हैं लेकिन ज्यादातर मुस्लिम नौजवान वर्तमान कानून के भी कट्टर विरोधी हैं।
इस कानून में कहीं भी इस्लाम के मूल सिद्धांतों की आलोचना नहीं की गई है लेकिन कई अरबी रीति-रिवाजों का विरोध किया गया है। जैसे कोई भी औरत हिजाब या नक़ाब आदि पहनकर सावर्जनिक स्थानों पर नहीं जा सकती है। क्रॉस, यामुका और हिजाब सरकारी दफ्तरों और विश्वविद्यालयों में भी नहीं पहने जा सकते हैं। पहले उन पर सिर्फ स्कूलों में प्रतिबंध था। मुसलमान लड़कियों को शादी के पहले अक्षतयोनि होने का जो डॉक्टरी प्रमाण पत्र देना होता था, वह नहीं देना पड़ेगा। एक से ज्यादा औरतों से शादी करने पर 13 लाख रुपए जुर्माना होगा। यदि कोई व्यक्ति किसी को मजहब के नाम पर डराता है या धमकी देता है तो उसे 65 लाख रुपए का जुर्माना देना होगा। किसी भी सरकारी कर्मचारी या सांसद के विरूद्ध किसी को यदि कोई मजहबी आधार पर भड़काता है तो उसे सख्त सजा मिलेगी। इस्लामी मदरसों में बच्चों को क्या पढ़ाया जाता है, सरकार इस पर भी नजर रखेगी। 3 साल की उम्र के बाद बच्चों को स्कूलों में दाखिल दिलाना जरूरी होगा। मस्जिदों को मिलने वाले विदेशी पैसों पर सरकार कड़ी नजर रखेगी। खेल-कूद के क्षेत्र, जैसे स्विमिंग पूल वगैरह आदमी और औरतों के लिए अलग-अलग नहीं होंगे। इस तरह के कई प्रावधान इस कानून में हैं, जो फ्रांस के सभी नागरिकों पर एक समान लागू होंगे, वे चाहें मुसलमान हों, ईसाई हों, यहूदी हों या हिंदू हों।
फ्रांस और यूरोप के कई गोरे संगठन और राजनेता भी इस कानून के इन प्रावधानों को बेहद नरम और निरर्थक मानते हैं। वे मुसलमानों को रोजगार देने और मदरसों के चलते रहने के विरोधी हैं। वे मस्जिदों पर ताले ठुकवाना चाहते हैं। वे धर्म-परिवर्तन के खिलाफ हैं। वे इस्लाम, कुरान और पैगंबर मुहम्मद की वैसी ही कड़ी आलोचना करते हैं, जैसे कि वे ईसा और मूसा तथा बाइबिल की करते हैं। लेकिन यूरोपीय लोग यह ध्यान क्यों न रखें कि वे जिन बातों को पसंद नहीं करते हैं, उन्हें न करें लेकिन व्यर्थ कटु निंदा करके वे दूसरों का दिल क्यों दुखाएं ? इसी तरह दुनिया के मुसलमानों को भी सोचना चाहिए कि इस्लाम क्या छुई-मुई का पौधा है, जो किसी का फोटो छाप देने या किसी पर व्यंग्य कस देने से मुरझा जाएगा ? वे इस्लाम की उस क्रांतिकारी भूमिका पर गर्व करें, जिसने अरबों की जहालत को मिटाने में अदभुत योगदान किया है।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
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