देश में बढ़ती आत्महत्याओं की प्रवृति को रोकना होगा

परिवार व पड़ोस में सुख-दुख को बांटकर, अपने परिश्रम पर पूरा भरोसा करते हुए जीवन में आई चुनौतियों का डटकर मुकाबला करके तथा सफल लोगों की असफलताओं से सीख लेकर ही आत्महत्या के बढ़ते रुझान पर काबू पाया जा सकता है।

हमारे देश में शायद ही कोई दिन ऐसा बीतता होगा जब किसी न किसी इलाके से गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, बेरोजगारी, कर्ज जैसी तमाम आर्थिक तथा अन्य सामाजिक दुश्वारियों से परेशान लोगों के आत्महत्या करने की खबरें न आती हों। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने हाल ही में दुनियाभर में होने वाली आत्महत्याओं को लेकर एक रिपोर्ट जारी की है, जिसके मुताबिक दुनिया के तमाम देशों में हर साल लगभग आठ लाख लोग आत्महत्या करते हैं, जिनमें से लगभग 21 फीसदी आत्महत्याएं भारत में होती है। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट खुलासा करती है कि विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों के लोग अधिक आत्महत्या कर रहे हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि विकसित देशों में महिलाओं के मुकाबले पुरुषों में आत्महत्या की दर अधिक है, परन्तु विकासशील देशों में महिलाओं की आत्महत्या की दर अधिक पाई गई है। आंकड़े बताते हैं कि दुनिया में हर 40 सेकेंड में एक व्यक्ति आत्महत्या करता है और हर साल आठ लाख लोग खुदकुशी से मरते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े यह भी खुलासा करते हैं कि आबादी के प्रतिशत के लिहाज से गुयाना, उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया के हालात ज्यादा चिंताजनक हैं जहां एक लाख की आबादी पर आत्महत्या की दर क्रमश: 44.2, 38.5 व 28.9 रही। रिपोर्ट के मुताबिक आत्महत्या के मामले में भारत की स्थिति भी चिंताजनक है। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े बताते हैं कि 2012 में भारत में 258075 लोगों ने आत्महत्या की। हैरत की बात यह है कि इनमें 1.58 लाख से अधिक पुरुष और एक लाख के करीब महिलाएं थीं। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के तुलनात्मक आंकड़े भी बताते हैं कि भारत में आत्महत्या की दर विश्व आत्महत्या दर के मुकाबले बढ़ी है। भारत में पिछले दो दशकों की आत्महत्या दर में एक लाख लोगों पर 2.5 फीसद की वृद्धि हुई है। आज भारत में 37.8 फीसद आत्महत्या करने वाले लोग 30 वर्ष से भी कम उम्र के हैं। दूसरी ओर 44 वर्ष तक के लोगों में आत्महत्या की दर 71 फीसद तक बढ़ी है। 

भारत के प्रांतीय स्तर पर आत्महत्या से जुड़े नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के आंकड़े देखने से पता लगता है कि दक्षिण भारत के केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के साथ पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में आत्महत्या की कुल घटनाओं का 56.2 फीसद रिकार्ड किया गया। शेष 43.8 फीसद घटनायें 23 राज्यों और सात केंद्र शासित प्रदेशों में दर्ज हुईं। उत्तर भारत के राज्यों- पंजाब,

 उत्तर प्रदेश, बिहार तथा जम्मू कश्मीर में एक लाख लोगों पर आत्महत्या की दर मात्र पांच फीसद आंकी गई है। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि उत्तर भारत के मुकाबले दक्षिण के राज्यों में आत्महत्या की दर अधिक होने के साफ संकेत मिल रहे हैं। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्ययन में यह भी पाया गया है कि भारत में नौ फीसद लोग लंबे समय से जीवन में निराशाजनक स्थिति से गुजर रहे हैं। खास बात यह है कि भारत जैसे धार्मिक व आध्यात्मिक देश में आबादी के एक तिहाई से भी अधिक लोग तो गंभीर रूप से हताशा की स्थिति में हैं। पिछले ही दिनों केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट में भी कहा गया था कि देश के साढ़े छह करोड़ मानसिक रोगियों में से 20 फीसद लोग अवसाद के शिकार हैं। ऐसी भी आशंका है कि 2020 तक अवसाद दुनिया की सबसे बड़ी बीमारी के रूप में उभरकर सामने आएगा। 2014 के आंकड़ों के अनुसार देश में हर घंटे 15 लोगों ने आत्महत्या की। 2014 में कुल 1,31,666 आत्महत्याएं हुईं। आत्महत्याओं की दृष्टि से महाराष्ट्र का स्थान प्रथम है उसके बाद तमिलनाडु और पं. बंगाल का स्थान है है। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक यह भी एक चौंकाने वाला तथ्य है कि भारत में आत्महत्या करने वालों में बड़ी तादाद तादाद 15 से 29 साल की उम्र के लोगों की है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के ताजा आंकड़ों के मुताबिक 2014 में 1,36,666 लोगों ने आत्महत्या कर ली थी। गौरतलब है कि इसमें 18 से 30 आयुवर्ग के लोगों की संख्या सर्वाधिक 44,870 थी। जबकि 14-18 वर्ग के बीच आत्महत्या करने वाले किशोरों की संख्या 9,230 थी। कुल मिलाकर देखा जाए तो आत्महत्या के उक्त आंकड़ों में नवयुवक-युवतियों का अनुपात 40 है। यह सच्चाई उस राष्ट्र की है, जो अपने 35 करोड़ युवाओं के बल पर इठला रहा है। विडंबना यह है कि अपनी उपयोगिता साबित करने की बजाय युवा अनुचित मार्ग अपनाकर अपना जीवन निरुद्देश्य समाप्त करने पर तुले हैं। यह विडंबनात्मक स्थिति हमारे समाज, सरकार और लोगों को मिलने वाले संस्कार पर सवाल उठाती है। भारत जैसे गौरवशाली व सांस्कृतिक विविधता से सम्पन्न देश में नागरिकों की अपने जीवन के प्रति यह लापरवाही कई सवाल खड़े करती है।

देश के कई हिस्सों में गरीब किसानों के द्वारा की जाने वाली खुदकुशी की घटनाएं भी किसी से छिपी नहीं हैं। महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र तो इसके लिए कुख्यात है ही, देश के अन्य हिस्सों के कर्ज में डूबे गरीब व निर्धन किसान भी आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं। असलियत तो यह है कि देश में किसी भी व्यक्ति द्वारा की गई आत्महत्या इस सामाजिक व्यवस्था पर एक करारा तमाचा है। देश के किसानों में आत्महत्या की प्रवृत्ति रुकने का नाम ही नहीं ले रही है। 

केंद्र सरकार के आंकड़े बताते हैं कि 2016 के शुरुआती 3 महीने में ही 116 किसानों को आत्महत्या करनी पड़ी है। बीते वर्ष खुदकुशी के कारण देश ने 3000 किसानों को खोया था। जबकि पिछले 20 सालों में असंख्य किसानों ने अपना जीवन त्याग दिया। वर्तमान में देश में सूखे से जूझते एक दर्जन राज्यों में विपदा ग्रस्त किसानों का आत्महत्या के प्रति झुकाव बढ़ सकता है। वे किसान, जो अन्नदाता हैं, अपनी मेहनत से देश की सवा अरब जनसंख्या के पेट की आग बुझाते हैं, वे आज अपने पेट की आग नहीं बुझा पा रहे हैं। प्राकृतिक प्रकोप और ऊपर से सरकारी उदासीनता के कारण अन्नदाता दाने-दाने को मोहताज नजर आ रहे हैं। ऐसे में जब हालात बद से बदतर हो जाते हैं तब वे मजबूरन आत्महत्या को गले लगाते हैं। मगर क्या यह समस्या का स्थायी समाधान है?

बहरहाल, बेहतर तो यह होगा कि सरकार लोगों को आत्महत्या करने के लिए आजाद करने के बजाय आदमी को आत्महत्या के लिए प्रेरित करने वाले आर्थिक-सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारणों की गहराई से पड़ताल करे और अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी के तौर पर ऐसे उपाय करे कि लोग अपनी जीवनलीला समाप्त करने का विचार ही दिमाग में न लाएं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट में सरकारों को सलाह दी गई है कि आत्महत्या की मीडिया रिपोर्टिंग सही तरीके से हो, देश में अल्कोहल को लेकर ठोस नीति बनाई जाए और आत्महत्या के संसाधनों पर रोक लगाते हुए आत्महत्या के प्रयास करने वालों की उचित देखभाल की जाए। आज समाज में प्रेम, स्नेह को बढ़ाकर, परिवार व पड़ोस में सुख-दुख को बांटकर, अपने परिश्रम पर पूरा भरोसा करते हुए जीवन में आई चुनौतियों का डटकर मुकाबला करके तथा सफल लोगों की असफलताओं से सीख लेकर ही आत्महत्या के बढ़ते रुझान पर काबू पाया जा सकता है।

- रमेश सर्राफ धमोरा

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