सत्ता का समझौता तो फायदेमंद रहा पर विचारधारा से समझौता ले डूबेगा शिवसेना को

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संतोष पाठक । Nov 29 2019 2:03PM

विचारधारा के आधार पर शिवसेना हमेशा से ही आक्रामक हिंदुत्व कगा प्रचार-प्रसार करती रही है। इसलिए बार-बार यह सवाल उठ रहा है कि फिलहाल बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने के लिए शिवसेना को समर्थन देने वाली कांग्रेस और एनसीपी कब तक इस सरकार को झेल पाएगी ?

महाराष्ट्र का बड़ा राजनीतिक नाटक फिलहाल तो थम गया है लेकिन इसके साथ ही अब नया सवाल यह उठ रहा है कि क्या महाराष्ट्र की ठाकरे सरकार अपना कार्यकाल पूरा पाएगी ? कांग्रेस और एनसीपी के समर्थन से उद्धव ठाकरे कितने दिनों तक मुख्यमंत्री रह पाएंगे ? बीजेपी की भाषा में कहें तो तीन पहियों की ये सरकार कितने दिन तक महाराष्ट्र में शासन कर पाएगी ?

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विचारधारा और हितों का टकराव

आखिर यह सवाल बार-बार क्यों पूछा जा रहा है ? क्या यह सवाल सिर्फ विरोधी बीजेपी ही उठा रही है ? जवाब है नहीं, सरकार के विरोधी ही नहीं बल्कि कट्टर समर्थक यहां तक कि सरकार बनाने जा रहे व्यक्तियों के मन में भी यह सवाल बार-बार उठ रहा है कि कब तक ? राजनीतिक विवशताओं की वजह से भले ही वो इसे सार्वजनिक रूप से स्वीकार न करें लेकिन मन में दुविधा तो बनी ही हुई है। यह सवाल बार-बार इसलिए उठ रहा है क्योंकि गठबंधन में शामिल दलों की विचारधाराएं बिल्कुल अलग हैं। इनके समर्थकों, नीतियों और मतदाताओं के एजेंडे में भी जमीन-आसमान का फर्क है। शरद पवार ने कांग्रेस से अलग होकर ही एनसीपी का गठन किया था लेकिन इन दोनों ही दलों में विचारधारा के आधार पर कोई मतभेद नहीं है। एनसीपी महाराष्ट्र में 10 साल तक कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार चला चुकी है। शरद पवार स्वयं केन्द्र में मनमोहन सरकार में 10 वर्षों तक मंत्री रह चुके हैं। इसलिए कांग्रेस और एनसीपी के बीच मतभेद सिर्फ मंत्रालय और नीतियों को लेकर उभर सकते हैं लेकिन विचारधारा के स्तर पर नहीं। हालांकि शिवसेना के साथ ऐसा नहीं है। विचारधारा के आधार पर शिवसेना हमेशा से ही आक्रामक हिंदुत्व कगा प्रचार-प्रसार करती रही है। इसलिए बार-बार यह सवाल उठ रहा है कि फिलहाल बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने के लिए शिवसेना को समर्थन देने वाली कांग्रेस और एनसीपी कब तक इस सरकार को झेल पाएगी ? सवाल यह भी खड़ा हो रहा है कि फिलहाल सिर्फ पीएम मोदी और अमित शाह की जोड़ी को सबक सिखाने के लिए कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बनाने वाली शिवसेना आखिर कब तक दिल्ली दरबार के दबाव को झेल पाएगी ?

फिलहाल ये तीनों ही पार्टियां दावा कर रही हैं कि वो महाराष्ट्र के हित में एक साथ आए हैं, लोकतंत्र को बचाने के लिए और सबसे महत्वपूर्ण राज्य के किसानों को मुआवज़ा देने के लिए एक साथ आए हैं। लेकिन कड़वी सच्चाई है देश के अंदर और बाहर का राजनीतिक माहौल। इस माहौल में शिवसेना को बार-बार यह तय करना पड़ेगा कि वीर सावरकर को भारत रत्न देने पर उसका क्या रवैया है ? एनआरसी और नागरिकता कानून पर उसका क्या रूख है ? हिंदुत्व से जुड़े मुद्दों पर उसकी क्या राय है ? जनसंख्या नियंत्रण कानून पर शिवसेना का क्या पक्ष है ? इन तमाम मुद्दों पर शिवसेना के साथ-साथ कांग्रेस और एनसीपी को को भी अपनी-अपनी भूमिका तय करनी होगी जो इस सरकार की अस्थिरता का कारण बन सकता है।

बीजेपी को बाहर रखने के लिए तीनों ने बनाई है सरकार

यह बात तो बिल्कुल शीशे की तरह साफ है कि शिवसेना ने सिर्फ अपना मुख्यमंत्री बनाने के लिए बीजेपी का दामन छोड़ा तो वहीं कांग्रेस और एनसीपी ने सिर्फ बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने के लिए शिवसेना का साथ दिया। ये तीनों पार्टियां भले ही एक कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के जरिए सरकार चलाने की बात कह रही हों लेकिन कई मुद्दों पर आने वाले दिनों में आमने सामने दिखाई दें तो किसी को हैरानी नहीं होगी।

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शरद पवार की इच्छा और क्षमता पर ही टिकेगी ठाकरे सरकार

दरअसल, ठाकरे सरकार कब तक चल पाएगी यह उद्धव ठाकरे और सोनिया गांधी से ज्यादा सिर्फ एक व्यक्ति की इच्छा पर ही निर्भर करेगा और वह व्यक्ति हैं शरद पवार। कहा तो यहां तक जा रहा है कि ये सरकार कब तक चलेगी, इसका जवाब फिलहाल एक ही व्यक्ति के पास है और वो हैं शरद पवार। इस सरकार को बनाने में, अजित पवार को वापस लाने में, कांग्रेस को मनाने में सबसे अहम भूमिका निभाई है शरद पवार ने। इसलिए कहा जा रहा है कि मुख्यमंत्री भले ही उद्धव ठाकरे हों लेकिन इस सरकार का रिमोट कंट्रोल शरद पवार के पास ही होगा।

ऑपरेशन लोटस- अब क्या करेगी बीजेपी ?

महाराष्ट्र में ठाकरे सरकार कब तक चल पाएगी यह शरद पवार के साथ-साथ बीजेपी के रूख पर भी काफी हद तक निर्भर करेगा। नंबर के मामले में बीजेपी फिलहाल भले ही हार गई हो लेकिन कर्नाटक का उदाहरण सबके सामने है। निश्चित तौर पर बीजेपी के लिए इस हार को पचाना आसान नहीं है। इसलिए बीजेपी के रूख पर भी इस सरकार का भविष्य काफी हद तक निर्भर करता है। फिलहाल इस गठबंधन के पास 166 का आंकड़ा है, अगर इनके 30-35 विधायकों से कर्नाटक की तर्ज पर बीजेपी एक-एक करके इस्तीफा दिलवा दे और बहुमत की सरकार को अल्पमत में ला दे तो फिर गठबंधन सरकार को इस्तीफा देना ही पड़ेगा। हालांकि इतनी बुरी तरह से मात खाने के बाद बीजेपी कब ऑपरेशन लोटस चला पाने की हिम्मत जुटा पाती है, यह कहना फिलहाल मुश्किल है। लेकिन इतना तो तय है कि आने वाले दिनों में अजित पवार, प्रफुल्ल पटेल, छगन भुजबल जैसे नेताओं की फाइलों पर तेजी से एक्शन होगा और हर बड़ा एक्शन इस सरकार की मजबूती को लगातार कम ही करता दिखाई देगा।

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शिवसेना को भी है आभास– इसलिए सामना में दिया जवाब

सरकार की स्थिरता को लेकर शिवसेना के मन में भी संशय है इसलिए गुरुवार को सामना संपादकीय के जरिए इसका जवाब देने की कोशिश की गई है। सामना में लिखा गया है कि, ''कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस और शिवसेना की सरकार तीन पैरों पर खड़ी है और ये नहीं टिकेगी’, ऐसा शाप देवेंद्र फडणवीस ने शुभ मुहूर्त पर दिया है, लेकिन ये उनका भ्रम है, ये सरकार राष्ट्रीय मुद्दों पर नहीं बल्कि महाराष्ट्र और विकास के मुद्दों पर बनी है तथा राज्य के विकास के लिए तीनों पार्टियों में कोई मतभेद नहीं है, शरद पवार जैसे अनुभवी मार्गदर्शक हमारे साथ हैं, तीनों पार्टियों में प्रशासनिक जानकारी रखने वाले लोगों की फौज है, मुख्य बात ये है कि किसी के मन में एक-दूसरे के प्रति मैल नहीं है, सरकार अपना काम करे और गत चार दिनों में जो कुछ हुआ, उस कीचड़ में पत्थर न फेंकते हुए विरोधी दल सकारात्मक नीति अपनाए, लोकतंत्र के यही संकेत हैं, दहशत पैदा करके सरकार बनाने और गिराने का खेल देश में गत 5 साल चला, महाराष्ट्र इन सब पर भारी पड़ गया।"

फिलहाल तो भारी पड़ गया लेकिन क्या आगे भी भारी पड़ेगा, यही बड़ा सवाल है।

-संतोष पाठक

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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