भाजपा की महा विजय ने मोदी सरकार की आगे की राह आसान की

पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव दर्शाते हैं कि जनता अब जाति और धर्म से ऊपर उठकर विकास के मुद्दे को तरजीह दे रही है। खासकर उत्तर प्रदेश को देखें तो वहां जिस तरह से भाजपा को तीन चौथाई बहुमत मिला है वह दर्शाता है कि विकास के जो दावे अखिलेश सरकार की ओर से किये गये थे उसके लाभान्वित होने वालों में कुछ वर्ग ही शामिल थे। एक भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं उतारने वाली भाजपा को जिस तरह मुस्लिम इलाकों में मत मिला है वह दर्शाता है कि अल्पसंख्यक वर्ग अब उस भय से बाहर आ रहा है जो दूसरे दल उनके मन में भगवा पार्टी के लिए बना कर रखते थे। माना यह भी जा रहा है कि मुस्लिम महिलाओं ने भाजपा के समर्थन में मतदान किया है क्योंकि मोदी सरकार तीन तलाक प्रथा के विरोध में है और उसने इस संबंध में उच्चतम न्यायालय में मजबूती से अपना पक्ष रखा है।
बसपा मुखिया मायावती ने अपनी हार के कारणों का विश्लेषण करने की बजाय जिस तरह ईवीएम में गड़बड़ी करने का आरोप लगाया है वह भारतीय निर्वाचन आयोग जिसकी विश्व भर में अपनी अलग प्रतिष्ठा है उसको आघात पहुँचाता है। मायावती को यह सोचना चाहिए था कि जब 2007 में बसपा को पूर्ण बहुमत मिला था तब भी ईवीएम के जरिये चुनाव कराये गये थे। यही नहीं उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड में भाजपा भले जीती हो लेकिन पंजाब में उसे करारी हार का सामना करना पड़ा है व गोवा तथा मणिपुर में त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति बनी है और यह सभी फैसले जनता ने ईवीएम के जरिये ही दिये हैं। इसलिए मायावती की टिप्पणी को हार की खीझ ही कहा जा सकता है। जहां तक समाजवादी पार्टी का प्रश्न है तो यह साफ है कि इस हार की पटकथा उसके प्रमुख नेताओं ने ही लिख दी थी जब परिवार का झगड़ा बाहर आया और उम्मीदवारों की दो-दो सूची सामने आई फिर जिसको उम्मीदवारी नहीं हासिल हुई वही पार्टी को हराने में जुट गया।
दूसरी ओर पंजाब में कांग्रेस की जीत दर्शाती है कि पार्टी को अभी भी जनता का विश्वास हासिल है। आम आदमी पार्टी ने पंजाब में काफी जोरशोर से प्रचार किया था लेकिन जनता ने अकाली दल और भाजपा गठबंधन की बजाय यदि कांग्रेस पर विश्वास जताया है तो यह साबित होता है कि 'कांग्रेस मुक्त भारत' अभी दूर की कौड़ी है। जहां तक बात गोवा की है तो यहां लगता है कि मनोहर पर्रिकर के मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में मैदान में नहीं होने का खामियाजा भाजपा को उठाना पड़ा है। हालांकि पार्टी अभी भी यहां अन्य दलों के सहयोग से सरकार बनाने का दावा कर रही है लेकिन वह सरकार कितनी स्थिर रह पायेगी इस पर हमेशा संशय बना रहेगा। मणिपुर के नतीजे चौंकाने वाले रहे क्योंकि वहां जोरदार प्रचार के साथ राजनीति में कदम रखने वालीं सामाजिक कार्यकर्ता इरोम शर्मिला को मुख्यमंत्री इबोबी सिंह के खिलाफ मात्र 90 मत मिले। बहरहाल, इन चुनाव नतीजों ने केंद्र की मोदी सरकार के बाकी कार्यकाल की चुनौतियां कम कर दी हैं संभव है अब बजट सत्र के लिए निर्धारित किये गये विधायी कार्य सरकार आसानी से पूरे कर ले।
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