सायरस मिस्त्री दरअसल टाटा समूह को समझ ही नहीं पाए

ऐसा नहीं है कि मिस्त्री अयोग्य प्रबंधक साबित हुए, बल्कि तमाम कॉर्पोरेट घराने तो इसी लीक पर चलते हैं कि जिस कारोबार में फायदा हो उसे आगे बढ़ाएं, किन्तु दूसरों और टाटा में यही तो अंतर है, जिसे समझने में संभवतः सायरस मिस्त्री चूक गए।

चाहे गाँव का व्यक्ति हो अथवा शहर का व्यक्ति हो, पर नमक से लेकर ट्रक और गहनों से लेकर सॉफ्टवेयर तक अनगिनत चीजें बनाने वाले 'टाटा समूह' का नाम भारतवर्ष में भला किसने नहीं सुना होगा। बेशक आज तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियां हमारे देश में कार्यरत हैं, तो हमारे देश की भी रिलायंस जैसी कई कंपनियां वैश्विक स्तर पर अपना परचम लहरा रही हैं, किंतु जो साख टाटा की है, उसे लेकर दूसरी कंपनियां रश्क ही करती होंगी। इसकी वाजिब वजह भी है, और वह यह है कि टाटा कंपनी का समाज के प्रति जुड़ाव, नुकसान पहुँचाने वाले प्रोडक्ट्स जैसे शराब, तम्बाकू इत्यादि से इसकी दूरी और इससे जुड़े लोगों के प्रति समूह का एथिक्स अन्य कारपोरेट घरानों से टाटा को मीलों आगे खड़ा करता है।

अपने कई दशकों के कार्यकाल (लगभग डेढ़ सौ साल) में टाटा ने बखूबी अपनी प्रतिष्ठा बचाए रखी है और इकॉनमी के मोर्चे पर भी बेहतर प्रदर्शन करते हुए दूसरों के सामने एक नजीर प्रस्तुत की है। हाल फिलहाल यह ग्रुप अपनी रफ्तार से बढ़ता जा रहा था, किंतु तब इस समूह को एक झटका सा लगा जब इसने अपने चेयरमैन सायरस मिस्त्री को अचानक से हटा दिया। शेयरहोल्डर्स के साथ समूह के साथ जुड़े अधिकारी तक इस फैसले से अवाक रह गए। हालाँकि, इसके बाद रतन टाटा 4 महीने के लिए अंतरिम चेयरमैन के रूप में काम कर रहे हैं, ताकि टाटा समूह में कोई 'वैक्यूम' न आये और नए चेयरमैन की तलाश के लिए टाटा संस के आर्टिकल्स ऑफ एसोसिएशन में मापदंड के मुताबिक रतन टाटा, वेणु श्रीनिवासन, अमित चंद्रा, रोहन सेन और लार्ड कुमार भट्टाचार्य की एक समिति भी बनाई गई है। बताया जाता है कि यह समिति अगले 4 महीने में नए चेयरमैन की तलाश और नियुक्ति का काम पूरा कर लेगी।

पर सवाल तो वही है कि कई सालों तक जांचने-परखने के बाद खुद रतन टाटा ने सायरस मिस्त्री पर भरोसा जताया था और अब अपने ही फैसले को इतनी जल्दी गलत साबित करने की आखिर जरूरत क्यों पड़ गयी? बताते चलें कि जब सायरस मिस्त्री को टाटा का चेयरमैन बनाया गया था तो कई लोगों को इस फैसले पर विश्वास ही नहीं हुआ था। शायद यह पहली बार था जब टाटा घराने से बाहर का कोई व्यक्ति इस प्रतिष्ठित ग्रुप की जिम्मेदारी संभाल रहा था। जहां तक सायरस मिस्त्री का सवाल है तो 48 साल के मिस्त्री लंदन बिज़नेस स्कूल से पढ़ाई कर चुके हैं और वह शापूरजी पालोनजी के सबसे छोटे बेटे हैं। उनका परिवार आयरलैंड के सबसे अमीर भारतीय परिवारों में से एक है। 1991 से ही सायरस मिस्त्री ने शापूरजी पालोनजी एंड कंपनी में काम करना शुरू कर दिया था, तो टाटा संस के बोर्ड में साइरस 2006 में शामिल हुए थे और तब माना गया था कि रतन टाटा का विश्वास इस नए चेयरमैन को हासिल है और काफी हद तक ऐसा दिखा भी! वैसे भी साइरस मिस्त्री से जुड़े लोग उन्हें मृदुभाषी और सामंजस्य बिठाने वाला व्यक्ति बताते हैं। हालाँकि टाटा के बोर्ड ने सायरस मिस्त्री को किन वजहों से हटाया, यह खुल कर सामने नहीं आया है किंतु जो जानकारी मिल रही है उसके अनुसार सायरस मिस्त्री टाटा ग्रुप की कम मुनाफा कमाने वाली कंपनियों को बेच रहे थे, जो कहीं ना कहीं रतन टाटा को खटक रहा था।

संभवतः टाटा संस के बोर्ड का मानना था कि प्रॉफिट वाली कंपनियों को चलाना और उस पर ध्यान केंद्रित करना आसान और साधारण कार्य है और टाटा बोर्ड के चेयरमैन को कम मुनाफे वाले वेंचर्स पर ध्यान देकर उन्हें प्रॉफिट में लाने का उपाय सोचना चाहिए था। देखा जाए तो दूरदर्शिता की सोच यही है और बात जब टाटा जैसे सामर्थ्यवान ग्रुप की होती है तो निश्चित रूप से लंबी दूरी के परिणामों पर गौर किया जाना चाहिए। हालाँकि, सायरस मिस्त्री की कुछ और बातें मीडिया रिपोर्ट्स में निकल कर सामने आ रही हैं, मसलन टाटा मोटर्स के शेयरधारकों ने अगस्त 2016 में शिकायत की थी कि उन्हें प्रति शेयर सिर्फ 20 पैसे डिविडेंड दिया गया, तब मिस्त्री ने इस कदम को सही ठहराया था। शेयरहोल्डर्स की नाराजगी के साथ साइरस मिस्त्री की यह चाहत भी सामने आयी कि 2025 तक टाटा समूह मार्केट कैप के लिहाज से दुनिया के टॉप-25 में जाए और समूह की पहुंच दुनिया की 25 फीसदी आबादी तक हो जाए। लेकिन वे इसके संकेत ही दे सके, विस्तृत प्लान पेश नहीं कर पाए और यह बात उनके खिलाफ गयी। इसी तरह, टीसीएस को छोड़कर मिस्त्री समूह के विभिन्न कारोबार की लीडरशिप में जान फूंक नहीं पाए।

टीसीएस के बारे में टाटा संस और विभिन्न विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि वह पहले से ही बेहद मजबूत कंपनी रही है और बावजूद इसके उसे अमेरिका में कुछ दिक्कतों का सामना करना पड़ा। इसके अतिरिक्त, मिस्त्री पर कुछ और बातें सामने आईं कि वह टाटा जैसे बड़े समूह को समझने में बेहद स्लो रहे हैं। कहा गया कि पहले तीन साल सायरस मिस्त्री ने टाटा समूह के कारोबारी साम्राज्य और इसकी जटिलताओं को समझने में लगा दिए। भू-राजनैतिक, टेक्नोलॉजी और सामाजिक मसलों पर अपनी समझ ही बढ़ाते रहे, तो क्लास रूम और सेमिनार में नई-नई पॉलिसी ही सीखते रहे और ऐसे में स्थिति नियंत्रण से बाहर जाती दिखी। सच कहा जाए तो वास्तव में सायरस मिस्त्री का आभामंडल टाटा समूह के अनुरूप कभी दिखा नहीं, किन्तु उनका चुनाव खुद रतन टाटा ने ही किया था वह भी कई साल का समय लेकर, इसलिए सवाल उनके चुनाव पर भी उठना चाहिए। बहुत संभव है कि इस मुद्दे पर रतन टाटा और इस प्रतिष्ठित ग्रुप को थोड़ी कठिनाई का सामना करना पड़े, किन्तु 'देर आयद दुरुस्त आयद' की तर्ज पर जो हुआ उसे ठीक माना जाना चाहिए।

ऐसा नहीं है कि सायरस मिस्त्री कोई अयोग्य प्रबंधक साबित हुए हैं, बल्कि तमाम कॉर्पोरेट घराने तो इसी लीक पर चलते हैं कि जिस कारोबार में फायदा हो उसे आगे बढ़ाएं, किन्तु दूसरों और टाटा में यही तो अंतर है, जिसे समझने में संभवतः सायरस मिस्त्री चूक गए! बहुत संभव है कि कोर्ट में समूह की कुछ किरकिरी हो और यह अंदेशा इसलिए भी है, क्योंकि 25 अक्टूबर को सायरस मिस्त्री की तरफ से और टाटा संस की तरफ से एक दूसरे के खिलाफ कोर्ट जाने की खबरें आई हैं। टाटा ग्रुप ने यह भी साफ किया है कि वह मिस्त्री के बर्खास्तगी मामले में कोर्ट से कोई एक तरफा आर्डर नहीं चाहता है, लिहाजा उसने सुप्रीम कोर्ट, मुम्बई हाईकोर्ट और नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल में कैविएट दायर की है। मिस्त्री ने भी ट्रिब्यूनल में चार कैवियट दायर की है। जो भी हो, टाटा के इतिहास में रतन टाटा ने एक खास स्थान बनाया है और वह अपनी आँखों के सामने टाटा के विभिन्न पिलर्स को यूं ढहता हुआ नहीं देख सकते थे। बिजनेस दुनिया पर नज़र रखने वालों के अनुसार, जब विश्व 2008 के दौर में मंदी से गुजर रहा था उस समय रतन टाटा ने मौके को भुनाते हुए तमाम कंपनियों की खरीद की और अपने ग्रुप का दायरा बढ़ाया। निश्चित रूप से टाटा समूह को जो प्रतिष्ठा रतन टाटा ने दी उसके लिए यह ग्रुप कहीं ना कहीं उनके प्रति आभारी रहेगा और उनके उत्तराधिकारी के रूप में खुद सायरस मिस्त्री को इसे समझना चाहिए था।

खासकर, जापानी कंपनी डोकोमो और यूरोप में टाटा स्टील बिजनेस की समस्या पर सायरस मिस्त्री का स्टैंड टाटा संस को खल गया था। इसके अतिरिक्त, सायरस ने परम्परा से हटकर टाटा संस के फैसले लेने के लिए ग्रुप एग्जीक्यूटिव कौंसिल बनाई। उसमें अपनी पसंद के लोगों को बिठाया जिसे पसंद नहीं किया गया। ऐसे में, बिना टाटा संस के बोर्ड या टाटा ट्रस्ट से पूछे बिना फैसले होने लगे। शायद यही कुछ फैक्ट्स मुख्य वजह बन गए कि टाटा ग्रुप के 148 वर्ष के इतिहास में किसी चेयरमैन को बर्खास्त करना पड़ा। जाहिर तौर पर इस मामले का बाज़ार में असर दिखना ही था और यह दिखा टाटा ग्रुप की 13 कंपनियों के शेयर में गिरावट को लेकर!

खैर, विश्लेषक रतन टाटा की क्षमता के प्रति आश्वस्त हैं और जिस तरह रतन टाटा ने अपने 21 साल के कार्यकाल में टाटा का आकार 57 गुना बड़ा किया उससे उम्मीद जगती है कि वह न केवल हालिया प्रकरण से कंपनी को उबार लेंगे, बल्कि टाटा का उत्तराधिकारी ढूंढने में वह पिछली गलतियां नहीं दुहराएँगे। शायद इसीलिए इंटरिम चेयरमैन का पद संभालने के बाद रतन टाटा ने ग्रुप कंपनियों के सीईओ से मीटिंग में साफ कहा कि ग्रुप ग्रुप की कंपनियों के लिए चिंता की कोई बात नहीं है, कंपनी के लॉन्ग टर्म इंटरेस्ट का ध्यान रखा जाएगा, और इसीलिए बदलाव की फिक्र छोड़कर सभी सीईओ को शेयरहोल्डर्स की इनकम बढ़ाने पर फोकस करना चाहिए। इसी क्रम में, रतन टाटा ने ग्रुप की सभी कंपनियों के सीईओ को बेहतर और स्थिर माहौल बनाए रखने का भरोसा भी दिलाया है और कहा है कि उन्होंने ग्रुप की स्टेबिलिटी और कंटीन्यूटी के लिए इंटरिम चेयरमैन का पद संभाला है, ताकि कोई वैक्यूम न रहे।

देखा जाए तो मार्केट कैप के हिसाब से टाटा ग्रुप देश का सबसे बड़ा ग्रुप है इस ग्रुप की कंपनी टीसीएस यानी टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज मार्केट कैप के हिसाब से देश की सबसे बड़ी कंपनी है जिसका अकेले मार्केट कैप लगभग 5 लाख करोड रूपए (कुछ कम) के आसपास है। वहीं टाटा मोटर्स का कुल मार्केट कैप डेढ़ लाख करोड़ रुपए से कुछ ज्यादा है। इस ग्रुप में 39 लाख इनवेस्टर जुड़े हैं और इसलिए उनके हितों की रक्षा के लिए कही ना कही टाटा को यह डिसीजन लेने पर मजबूर होना पड़ा होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि टाटा ग्रुप जल्द ही इस झटके से उबरेगा और स्थिरता के दौर में प्रवेश करेगा। हाँ, इस बीच नए चेयरमैन की खोज भी महत्वपूर्ण रहने वाली है जिस पर बिजनेस जगत की निगाहें टिकी रहेंगी। यूं तो पेप्सिको की इंदिरा नूई, टाटा परिवार के नोएल टाटा, टीसीएस के एन चंद्रशेखरन और वोडाफोन के पूर्व सीईओ अरुण सरीन के नाम चर्चा में हैं, किन्तु रतन टाटा और टाटा समूह की उम्मीदों और एथिक्स को समझना सबके बस की बात नहीं है। इसलिए अगर कोई अप्रत्याशित फैसला भी आ जाए तो आश्चर्य न कीजियेगा!

- मिथिलेश कुमार सिंह

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