कोरोना काल में किसानों की कड़ी मेहनत के चलते ही ढहने से बच गयी अर्थव्यवस्था

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दुनिया के देशों द्वारा किसानों को अनुदान देने पर नुक्ताचीनी की जाती रही है पर कोरोना ने खेती किसानी के महत्व को और अधिक बढ़ा दिया है। जहां तक भारत की बात है सरकार, किसानों व कृषि विज्ञानियों के समग्र प्रयासों से देश आज खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर है।

जिस कोरोना वायरस ने पिछले करीब छह माह से सारी दुनिया को हिलाकर रख दिया है उसमें यदि कोई चीज सोने जैसी खरी उतरी है तो वह है खेती-किसानी। दरअसल 2019 के अंतिम माहों में चीन में जिस तरह से कोरोना ने अपना प्रभाव दिखाना आरंभ किया और चीन के बाद इटली और फिर योरोपीय देशों में मौत का ताण्डव मचा उससे सारी दुनिया हिल के रह गई। मार्च के दूसरे पखवाड़े से हमारे देश में भी कोरोना ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू किया और चार लॉकडाउन भुगतने के बाद अब अनलॉक-2 का दौर चल रहा है। हमारे देश में ही कोरोना संक्रमितों की संख्या 6 लाख को पार कर गई है। लाख प्रयासों के बावजूद दुनिया भर में हजारों की संख्या में संक्रमण के मामले प्रतिदिन आ रहे हैं। सबसे चिंताजनक स्थिति यह है कि चीन सहित कुछ देशों में कोरोना जिस तरह से लौटकर आ रहा है वह गंभीर है।

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कोरोना महामारी के फैलाव को रोकने का एकमात्र रास्ता लॉकडाउन के माध्यम से घर की चार दीवारी में बंद करना ही सारी दुनिया में माना गया। सोशल डिस्टेसिंग, सेनेटाइजिंग, बार-बार हाथ धोने और ना जाने कितने ही उपाय खोजे गए वहीं सबकुछ थम जाने के कारण केवल और केवल खाने-पीने की वस्तुएं अनिवार्य आवश्यकता रह गई। यहीं से खेती किसानी का महत्व समझने की आवश्यकता महसूस हो जाती है। औद्योगिकरण के दौर में खेती सरकारों की प्राथमिकताओं में केवल वोट बैंक के रूप में रह गई। किसानों को ऋण माफी का झुनझुना दिया जाता रहा है पर कृषि उत्पादन बढ़ाने और किसानों की आय बढ़ाने के लिए जो स्थाई हल खोजने की आवश्यकता है वह आज भी दूर की कौड़ी ही साबित हो रही है। हालांकि केन्द्र सरकार ने हाल ही में किसानों के लिए पैकेज की घोषणा की है इसी तरह से राजस्थान सरकार सहित कई प्रदेशों में जीरो ब्याज दर पर किसानों को ऋण दिया जा रहा है।

1947-48 में सकल घरेलू उत्पाद में खेती की हिस्सेदारी लगभग 52 प्रतिशत थी जो अब लगभग 17 प्रतिशत रह गई है। सरकार की बजटीय सहायता में कृषि प्रावधान लगातार कम होता जा रहा है। दुनिया के देशों द्वारा किसानों को अनुदान देने पर नुक्ताचीनी की जाती रही है पर कोरोना ने खेती किसानी के महत्व को और अधिक बढ़ा दिया है। जहां तक भारत की बात है सरकार, किसानों व कृषि विज्ञानियों के समग्र प्रयासों से देश आज खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर है। देश में जहां जनसंख्या वृद्धि की दर 2.55 प्रतिशत है तो कृषि उत्पादन की विकास दर 3.7 फीसदी होने से देश में खाद्यान्नों की कोई कमी नहीं है। किसानों की मेहनत से देश में गोदामों में भरे अन्न-धन के भण्डारों के कारण लंबे समय तक जब सब कुछ थमा रहा, केवल और केवल मात्र खाद्य सामग्री की उपलब्धता ने पूरी व्यवस्था को संभाले रखा है। देश में कहीं भी खाद्यान्नों की कमी देखने को नहीं मिली। यह अपने आप में शुभ संकेत है।

हालांकि अब उद्योग धंधे पटरी पर आने लगे हैं पर आर्थिक गतिविधियों को सामान्य होने में लंबा समय लगेगा इसमें कोई दो राय नहीं है। मॉल संस्कृति, होटल-रेस्तरां में खाना पीना, गर्मियों में घूमने जाना यह सब आज तो गुजरे जमाने की बात हो गई है। सरकार के लाख प्रयासों के बावजूद जो बूम होटल और पर्यटन इंडस्ट्री में पिछले सालों में रहा है अब उसकी कल्पना ही की जा सकती है। फिल्म इंडस्ट्री और इसी तरह की अन्य गतिविधियों को गति पकड़ने में समय लगेगा। ऐसे में केवल और केवल कृषि और इससे जुड़ा क्षेत्र ही ऐसा है जो खरा उतर सकता है। वैसे भी कृषि क्षेत्र में मानसून के अच्छे बुरे का असर जीडीपी पर आसानी से देखा जा सकता है। ऐसे में सरकार को नयी सोच के साथ आगे आना होगा। पिछले दिनों देश में कृषि क्षेत्र में नवाचारी किसानों के अंवेषणों की सफलता की कहानियों को लेकर चार जिल्द में डॉ. महेन्द्र मधुप जैसे लेखक आगे आए हैं। खेत के वास्तविक अंवेषक, प्रयोगधर्मी किसानों को सामने लाना और उनकी मेहनत को पहचान दिलाना उनका उद्देश्य रहा है। पर आज सरकार को इस दिशा में भी देखना अधिक जरूरी हो गया है। दरअसल प्रयोगशाला के प्रयोगधर्मियों के साथ ही खेतों के विज्ञानियों को प्रोत्साहित करना होगा। इसके लिए प्रयोगधर्मी किसानों के खेत में अन्य किसानों को अध्ययन हेतु भेजा जाए और उन प्रयोगों को जांच परख कर पहचान दिलाने के लिए आगे आएं। इससे अधिक कारगर नतीजे प्राप्त होंगे। इसलिए सरकार की प्राथमिकता में अब खेती किसानी होना जरूरी हो गया है।

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एक बात साफ हो जानी चाहिए कि अब लोगों की मानसिकता में तेजी से बदलाव आएगा। कारण भी साफ है और यह कि कोरोना की दहशत या यों कहें कि असर आने वाले डेढ़ दो साल तक जाने वाला नही है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अब कोई भी व्यक्ति चार जूतों की जोड़ी होने के बाद लाख पैसा होने पर भी नई जूते की जोड़ी खरीदने के स्थान पर परिवार के लिए दो-चार महीने का राशन खरीदने को प्राथमिकता देगा। उसकी प्राथमिकता अब शानौ शोकत के स्थान पर घर का राशन होगा। क्योंकि लॉकडाउन के अनुभव ने यह सिद्ध कर दिया कि आपके घर पर राशन है तो आप विजेता हैं। क्योंकि लॉकडाउन जैसी स्थिति में आपका सहारा केवल और केवल मात्र खाद्य सामग्री है और यही कारण है कि अधिक नहीं तो दो चार माह का राशन तो घर में रखना आज लोगों की पहली प्राथमिकता होगी।

-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

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