भारत के लिए सफल रहा जी-20 सम्मेलन, पर विश्व के लिए कई मुद्दे रह गये अनसुलझे

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जापान के ओसाका में संपन्न हुयी जी-20 की बैठक में सदस्य देशों के बीच के मतभेदों पर ज़ोर रहने के कारण मौजूदा स्थिति में बदलाव होने के आसार काम नज़र आ रहे हैं। अब तक हुयी जी-20 बैठकों में से 2019 की इस बैठक को सबसे ज़्यादा विभाजित बैठक कहा जा सकता है।

जापान के ओसाका में 28 और 29 जून को जी-20 की बैठक संपन्न हुयी। यह बैठक शुरू होने से पहले ही इसके सामने कई चुनौतियां थीं। इनमें से एक मुख्य चुनौती थी अमेरिका और चीन के बीच चल रहा व्यापार युद्ध। अगर भारत के दृष्टिकोण से देखा जाये तो भारत के लिए यह जी-20 द्विपक्षीय और बहुपक्षीय बैठकों के हिसाब से सफल कहा जा सकता है। लेकिन संघटन के तौर पर जी-20 के लिए और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के लिए अभी भी कुछ अनसुलझे मुद्दे हैं।

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द्विपक्षीय और बहुपक्षीय बैठकें

दो दिन के जी-20 सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कार्यक्रम व्यस्त रहा। इन दो दिनों में प्रधानमत्री मोदी ने जी-20 की मुख्य बैठक के अलावा नौ द्विपक्षीय, आठ 'पुल-असाइड' और तीन बहुपक्षीय बैठकों में हिस्सा लिया। प्रधानमंत्री मोदी ने अमेरिका, जापान, दक्षिण कोरिया, सऊदी अरब, ब्राज़ील, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया और तुर्की के नेताओं से द्विपक्षीय वार्ता की। तो फ्रांस, इटली, थाईलैंड, वियतनाम, सिंगापुर, चिली, विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र के नेताओं से 'पुल-असाइड' बैठकों में हिस्सा लिया। ब्रिक्स (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण आफ्रिका), जापान-अमेरिका-भारत और रूस-भारत-चीन इन समूहों की बहुपक्षीय बैठकें हुयीं। इन सभी बैठकों में भारत की ओर से मौजूदा रिश्तों को मज़बूती और उभरते हुए क्षेत्रों से रिश्ते बढ़ाने में संतुलन बनाये रखने का प्रयास किया गया है। इन बैठकों को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है। एक है अमेरिका, चीन, जापान और रूस से अपने पुराने रिश्तों आगे बढ़ाने का यह एक मौका था। दूसरा प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पहले कार्यकाल में हिन्द-प्रशांत क्षेत्र की कूटनीति पर विशेष ध्यान दिया था। उस दृष्टिकोण से थाईलैंड, वियतनाम, इंडोनेशिया, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण कोरिया से बैठकें महत्त्वपूर्ण थीं। तीसरा महत्त्वपूर्ण मुद्दा है मोदी की ब्राज़ील के राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो और चिली के राष्ट्रपति सेबेस्टियन पिनेरा के साथ मुलाक़ात। भारत के दक्षिण अमेरिका के साथ संबंधों को और मज़बूत करने की ज़रुरत है। 2018 की जी-20 बैठक अर्जेंटीना में हुयी थी। उस हिसाब से भारत दक्षिण अमेरिका से साथ अपने संबंधों को बढ़ा तो रहा है लेकिन इसमें और काम करने की जरूरत है। उम्मीद करनी चाहिए कि मोदी अपने इस कार्यकाल में दक्षिण अमेरिका पर ध्यान केंद्रित करेंगे।

अनसुलझे मुद्दे- अनसुलझे मुद्दों को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है- अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध, घोषणापत्र और जलवायु परिवर्तन।

अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध

जापान के ओसाका में संपन्न हुयी जी-20 की बैठक में सदस्य देशों के बीच के मतभेदों पर ज़ोर रहने के कारण मौजूदा स्थिति में बदलाव होने के आसार काम नज़र आ रहे हैं। अब तक हुयी जी-20 बैठकों में से 2019 की इस बैठक को सबसे ज़्यादा विभाजित बैठक कहा जा सकता है। बैठक के सबसे चर्चित मुद्दे पर 'अमेरिका और चीन का व्यापार युद्ध' फ़िलहाल अमेरिका ने चीन के उत्पादों पर टैरिफ न बढ़ाने का फैसला किया है। दोनों देशों के बीच इस मुद्दे पर आगे चर्चा करने पर भी सहमति बनी है। डोनाल्ड ट्रम्प ने अमेरिकी कंपनियों को चीन की 5-जी उपकरण बनाने वाली कंपनी हुआवेई को भी सामान बेचने की इजाज़त दी है। वहीं चीन अमेरिका से कृषि उत्पाद खरीदेगा। हालांकि अमेरिका और चीन के बीच का विवाद सिर्फ टैरिफ बढ़ाने या घटाने तक सीमित नहीं है। यह दो आर्थिक प्रणालियों के बीच का मुक़ाबला है। क्या दोनों देश व्यापार के मामले पर चर्चा करते हैं और क्या दोनों के बीच समझौता हो पाता है यह स्पष्ट तौर पर कहा नहीं जा सकता। व्यापार के साथ-साथ दोनों देशों के बीच का सामरिक संघर्ष किसी भी समझौते को सफ़ल होने से रोकने की संभावना ज़्यादा है।

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घोषणापत्र

जी-20 2019 के घोषणापत्र में कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दों को शामिल किया गया है जैसे काले धन के ख़िलाफ़ कदम उठाना, फाइनेंशियल एक्शन टास्क फ़ोर्स (एफएटीएफ) और विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) को मज़बूत करना और सीमा पार डाटा प्रवाह की सुरक्षितता को निश्चित करना। लेकिन इस घोषणापत्र में आतंकवाद और सरंक्षणवाद का उल्लेख नहीं है। इन दो मुद्दों पर सहमति न बनना यही दर्शाता है कि अभी जी-20 को संगठन के तौर पर और मज़बूत होने की जरूरत है जिसे वक़्त लग सकता है।

जलवायु परिवर्तन

जलवायु परिवर्तन का मुद्दा सीधे व्यापार और आर्थिक हितों से जुड़ा हुआ मुद्दा है। इस बैठक में जलवायु परिवर्तन पर अमेरिका पैरिस समझौते से अलग होने की अपनी भूमिका पर कायम रहा। अमेरिका का कहना है कि यह उसके स्वदेशी उद्योगों के हित में उठाया गया कदम है। अमेरिका और चीन दुनिया के सबसे ज़्यादा कार्बन उत्सर्जन करने वाले देशों में से हैं। भारत जैसी उभरती शक्तियां पैरिस समझौते के समर्थकों में हैं। एक तरफ़ अमेरिका और चीन का व्यापार युद्ध जलवायु परिवर्तन के विषय पर विपरीत प्रभाव डालता है और दूसरी तरफ भारत जैसे देशों को अपनी आर्थिक प्रगति और पर्यावरण में संतुलन बनाये रखने की चुनौती पैदा होती है। जलवायु परिवर्तन का उल्लेख तो घोषणापत्र में है लेकिन अभी भी इस विषय पर आम सहमति बनना बाकी है। 

-निरंजन मार्जनी

(लेखक वड़ोदरा स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं)

ट्विटर- https://twitter.com/NiranjanMarjani

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