आखिर क्यों धर्म की आड़ में पोषित हो रही है लैंगिक भिन्नता की भावना ?

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यह दुर्भाग्यपूर्ण भले हो लेकिन कड़वा सत्य है कि स्त्रियों पर अत्याचार करने तथा उन्हें दोयम दर्जे का समझने की परम्परा देश-दुनिया में अति प्राचीन काल से विद्यमान है जोकि आज धार्मिक मान्यता के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी है।

विश्व का शायद ही कोई धर्म या सम्प्रदाय ऐसा हो जिसमें स्त्रियों के साथ लिंग आधारित भेदभाव न किया जाता हो। भारत के सनातन ग्रन्थ एक ओर जहाँ “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता” का सूत्र देते हैं वहीँ दूसरी ओर “अवगुन आठ सदा उर रहहीं” कहकर स्त्रियों की निन्दा भी करते हैं। श्रीरामचरितमानस के अनुसार स्त्रियों के आठ अवगुण गिनाने वाले रावण की संस्कृति में स्त्रियों को भोगवस्तु के रूप में स्वीकार किया गया था। रावण तथा उसके अनुचरों का काम ही था दूसरे के धन और स्त्रियों को लूटना। “बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा।। देव जच्छ गन्धर्व नर किन्नर नाग कुमारि। जीति बरीं निज बाहुबल बहु सुंदर बर नारि।” इससे यह पता चलता है कि उस काल में रावण जैसी मानसिकता के लोग स्त्रियों को किस दृष्टि से देखते थे और उनके साथ कैसा व्यवहार करते थे। समाज का एक बड़ा वर्ग रावण के कथन को ग्रन्थ का वाक्य मानकर उसे अपने जीवन में धारण करने का प्रयास करता है और बड़ी ठसक से कहता है कि ऐसा हमारे ग्रन्थों में लिखा हैं। जबकि विशुद्ध रूप से यह दुराचारियों का सिद्धान्त था। हालांकि तब के सदाचारी लोग भी स्त्रियों को दासी रूप में रखते थे।

विवाह आदि में भेंटस्वरूप धन के साथ-साथ दास-दासियाँ देने की भी प्रथा बहुत समय तक रही है। “दासीं दास दिए बहुतेरे। सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे।” इस तरह से यह कहा जा सकता है कि स्त्रियों पर अत्याचार करने तथा उन्हें दोयम दर्जे का समझने की परम्परा देश-दुनिया में अति प्राचीन काल से विद्यमान है जोकि आज धार्मिक मान्यता के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी है। केरल के सबरीमाला मन्दिर और महाराष्ट्र के शनि शिंगणापुर मन्दिर में स्त्रियों का प्रवेश वर्जित होने के मूल में कथित आठ अवगुणों में से एक “अशौच” अर्थात् अपवित्रता को प्रमुख आधार बनाया गया है। सम्भव है कि इस तरह के नियम देश के अन्य मन्दिरों में भी हों। यह विडम्बना ही है कि एक ओर सनातन धर्म यह कहता है कि जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं और दूसरी ओर कथित धर्माचार्य देवस्थलों पर स्त्रियों के प्रवेश को वर्जित कर देते हैं। तेत्तिरीय ब्राह्मण के अनुसार “अयज्ञियो वाएष योSपत्नीकः” अर्थात् पत्नी के बिना पुरुष को यज्ञ करने का अधिकार नहीं है। तब फिर भला स्त्रियों को धार्मिक स्थलों एवं अनुष्ठानों से वंचित कैसे रखा जा सकता है ?

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पृथ्वी के विभिन्न हिस्सों में विकसित हुई भिन्न-भिन्न मानव सभ्यताओं के क्रमिक विकास के साथ ही उनकी अपनी संस्कृति और धार्मिक मान्यताएं भी स्थापित हुईं। साथ ही स्त्री-पुरुषों के कार्य एवं दायित्व भी निर्धारित किये गए। निश्चित ही इसके लिए दोनों की शारीरिक संरचना एवं क्षमता को आधार बनाया गया होगा। शायद तभी कृषि कार्य जो कि अधिक पारिश्रम वाला होता है वह पुरुषों को तथा भोजन एवं बच्चों की देखभाल का दायित्व स्त्रियों को सौंपा गया। समय के साथ स्त्री-शक्ति घर की चाहरदीवारी तक सीमित होती चली गई जबकि पुरुषों का वर्चस्व पूरे समाज पर हो गया। उसके बाद स्त्रियों के जहाँ अधिकार सीमित हो गए वहीँ उनके साथ वस्तुगत व्यवहार की भी परम्परा प्रारम्भ हो गई। जिसने स्त्रियों पर पुरुषों द्वारा जुल्म ढाने का मार्ग प्रशस्त कर दिया। समाज में पुरुषों के निरन्तर बढ़ते वर्चस्व के कारण नारी का स्वतन्त्र अस्तित्व धीरे-धीरे समाप्त जैसा होता चला गया। उसे क्या करना है और क्या नहीं करना है, इसका निर्धारण पुरुषों के द्वारा किया जाने लगा। इन नीतियों ने ही धीरे-धीरे धार्मिक मान्यता का रूप ले लिया लेकिन जिस समाज में शिक्षा का विकास अधिक हुआ वहां नारी के स्वतन्त्र अस्तित्व को सदैव प्रमुखता दी गई। इसका सबसे उत्कृष्ट उदाहरण भारत का वैदिक काल है। इस काल में स्त्रियों को सामाजिक तथा राजनैतिक रूप से पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त थी। इस समय तक पृथ्वी की लगभग सभी सभ्यताएं छोटे-छोटे राज्य के रूप में विभाजित हो चुकी थीं।

राज्य विस्तार की महत्वाकांक्षा से एक दूसरे के राज्य को लूटने और उस पर अधिकार करने का भी सिलसिला प्रारम्भ हो गया। इससे विश्व की विभिन्न अल्प शिक्षित सभ्यताओं से भारत की शिक्षित सभ्यता का टकराव हुआ और उत्तर वैदिक काल आते-आते अनेक भारतीय राज्यों को शत्रु राजाओं द्वारा जीता और लूटा गया। आक्रमणकारियों ने यहाँ की नारियों के प्रति भी वही भाव रखा जो वह अपनी स्त्रियों के प्रति रखते थे। इसके बाद ही सुरक्षा के दृष्टिगत यहाँ की नारियों के लिए भी अल्पकालीन कुछ सीमाएं निर्धारित कर दी गईं। परन्तु यह अल्पकाल दशकों ही नहीं सदियों तक चलता रहा, जिससे वह सीमा बन्धन धार्मिक मान्यता के रूप में स्थापित हो गया। बाद में सामाज के विभिन्न नियमों में तो बदलाव हुआ परन्तु नारियों के लिए पाबंदियां कम होने की अपेक्षा बढ़ने लगीं। मुस्लिम काल में स्थिति और भी अधिक जटिल हो गई थी। मुस्लिम आतताइयों के अत्याचार से सुरक्षा हेतु भारतीय नारियों की स्वतन्त्रता और भी अधिक संकुचित हो गई। अंग्रेजों का काल उससे भी क्रूर निकला जिससे स्त्रियों का जीवन संकीर्ण-दर-संकीर्ण होता चला गया और लोग यह चाहने लगे कि उनके घर किसी कन्या का जन्म ही न हो। समाज में कन्याओं के प्रति पनपी यह मानसिकता आजादी के 72 वर्ष बाद भी नहीं बदल पा रही है।

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सबरीमाला मन्दिर मामले की सुनवाई करते समय सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्वीकार किया कि परम्परा के नाम पर लिंग आधारित विभेद पितृसत्ता का पोषण है, जिसे बदला ही जाना चाहिए। इस्लाम सहित अन्य सभी धर्मों में भी स्त्रियों के साथ हो रहे भेदभाव की आवाजें मुखर हो रही हैं। सनातन धर्म की रूढ़ता के विरुद्ध जन्मे बौद्ध धर्म ने नारियों को सम्मान तो दिया लेकिन उनका स्तर पुरुषों से एक कदम पीछे ही रखा। स्त्रियों को दीक्षित करने हेतु गौतम बुद्ध द्वारा बनाये गए नियम के अनुसार सौ वर्ष तक उपसम्पदा प्राप्त करने वाली भिक्षुणी को एक दिन की उपसम्पदा प्राप्त करने वाले भिक्षु का भी सत्कार और पूजन करना होता है। यह एक नियम ही बौद्ध धर्म में स्त्रियों के प्रति लैंगिक भेदभाव प्रस्तुत करने के लिए पर्याप्त है। जैन धर्म में स्त्री मोक्ष को श्वेताम्बर तो स्वीकार करते हैं परन्तु दिगम्बर नहीं करते हैं। इस्लाम धर्म प्रारम्भ से ही नारियों को दोयम दर्जे का समझता चला आ रहा है। मुस्लिमों के अनेक धार्मिक स्थल और क्रियाकलाप ऐसे हैं जिनसे महिलाओं को सदैव दूर रखा जाता है। हाजी अली की दरगाह में महिलाओं के प्रवेश पर लगी पाबन्दी हटवाने के लिए इन दिनों एक संगठन संघर्ष कर रहा है। सिख धर्म में नारियों को सबसे अधिक महत्व दिया गया है। परन्तु न तो वह पंच प्यारों में शामिल हो सकती हैं और न ही उन्हें अमृत संचार का अधिकार प्राप्त है। आधुनिकता की दौड़ में तीव्र गति से गतिमान पाश्चात्य देशों में व्याप्त ईसाई धर्म में भी नारी को अनेक धार्मिक कार्यों से आज तक वंचित रखा गया है। इस धर्म में स्त्रियों को पुरुषों से हीन बताया जाता है। इसाई धर्म के रूढ़िवादियों के अनुसार चूंकि ईसा मसीह पुरुष थे अतः धर्म का प्रतिनिधित्व करने वाले पोप, पादरी, बिशप आदि सब पुरुष ही होने चहिये। इस तरह से संसार का प्रत्येक धर्म आज भी किसी न किसी रूप से स्त्रियों के प्रति लिंग आधारित भेदभाव करता है, जिसके चलते समाज में स्त्रियों के प्रति व्याप्त लैंगिक भिन्नता की भावना समाप्त नहीं हो पा रही है जो कि स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार का सबसे बड़ा कारण है। 

-डॉ. दीपकुमार शुक्ल

(स्वतन्त्र पत्रकार)

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