क्या है आजकल बच्चों को स्कूल भेजने की सही उम्र?

What is the right age for sending children to school
संदीप जोशी । Jun 28 2018 12:47PM

घर में बच्चे के जन्म के साथ ही इस विषय पर विचार विमर्श प्रारंभ हो जाता है कि कौन से स्कूल में भेजना है, कब स्कूल भेजना है। पूरी निर्दयता से आजकल के अभिभावक अपने दो-ढाई वर्ष के बच्चों को भी स्कूल भेजने की तैयारी में है।

घर में बच्चे के जन्म के साथ ही इस विषय पर विचार विमर्श प्रारंभ हो जाता है कि कौन से स्कूल में भेजना है, कब स्कूल भेजना है। पूरी निर्दयता से आजकल के अभिभावक अपने दो-ढाई वर्ष के बच्चों को भी स्कूल भेजने की तैयारी में है। पता नहीं वे किस बात की होड़ में लगे हैं। पूछने पर बताते हैं आसपास के फलां-फलां परिवारों के बच्चे जो दो-ढाई वर्ष के हैं, स्कूल जाने लगे हैं इसलिए हमें भी भेजना हैं। कब तक दूसरों की नकल करते रहेंगे, अपना खुद का एक श्रेष्ठ उदाहरण क्यों नहीं रखते, ताकि लोग आपको देखकर अनुसरण करें कि देखिए उनका बच्चा पांच साल का होकर स्कूल जाने लगा है। अत्याधुनिक परिवारों में तो पांच वर्ष में एडमिशन का कहते हैं तो हंसने का माहौल बन जाता है। उन्हें लगता है यह कोई मजाक है। पर वास्तव में बालक को विद्यालय भेजने की आयु पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।

अक्सर पेरेंट्स सोचते हैं कि बच्चों को ढाई साल की उम्र होते ही प्ले स्कूल में डाल दें, ताकि बच्चा कुछ सीख जाएगा। बच्चों को इंटरव्यू के लिए तैयार करने लगते हैं। छोटे बच्चों को एडमिशन की रेस में शामिल करने के लिए तैयार करते हैं। लेकिन, क्या आप जानते हैं ये बच्चों के लिए ठीक नहीं है। सारे शिक्षा मनोवैज्ञानिक और तमाम शोध भी यही कहते है। कुछ समय पूर्व हुए एक रिसर्च के मुताबिक, बच्चों को जल्दी स्कूल भेजने से उनके व्यवहार पर दुष्प्रभाव होता हैं। शोध के मुताबिक, बच्चों को स्कूल भेजने की उम्र जितनी ज्यादा होगी, बच्चे का खुद पर उतना ही ज्यादा आत्मनियंत्रण होगा और बच्चा उतना ही हाइपर एक्टिव होगा। स्टैनफर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा की गई इस शोध के मुताबिक, बच्चों को 5 की उम्र के बजाय 6 या 7 की उम्र में स्कूल भेजना चाहिए। रिसर्च में पाया गया कि जिन बच्चों को 6 साल की उम्र में किंडरगार्डन भेजा गया था। 7 से 11 साल की उम्र में उनका सेल्फ कंट्रोल बहुत अच्छा था।

साइक्लोजिस्ट मानते हैं कि सेल्फ कंट्रोल एक ऐसा गुण है, जिसे बच्चों के शुरुआती समय में ही विकसित किया जा सकता है। जिन बच्चों में सेल्फ कंट्रोल होता हैं, वे फोकस के साथ आसानी से किसी भी परेशानी या चुनौतियों का सामना कर पाते हैं। स्टैनफर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता थॉमस डी और हैन्स हेनरिक सीवर्जन ने अपनी इस शोध के नतीजों के लिए दानिश नेशनल बर्थ कोवर्ट डीएनबीसी से डाटा इकट्ठा किया। रिसर्च के दौरान 7 साल के बच्चों की मेंटल हेल्थ पर फोकस किया गया। इसके लिए तकरीबन 54,241 पेरेंट्स का फीडबैक लिया गया। वहीं 11 साल की उम्र के बच्चों की मेंटल हेल्थ के लिए 35,902 पेरेंट्स के फीडबैक लिए गए। शोध के नतीजों के दौरान पाया गया कि जिन बच्चों ने एक साल देर से स्कूल जाना शुरू किया था, उनका हाइपर एक्टिव लेवल 73 पर्सेंट बेहतर था। अभी कुछ समय पहले एक बड़े समाचार पत्र में एक खबर छपी थी, जिसमें दुनिया के विभिन्न विकसित देशों के बच्चों की विद्यालय में प्रवेश की आयु दी हुई थी। कुछ देशों में 5 वर्ष, कुछ में 6 वर्ष और एक दो देश में तो 7 वर्ष की उम्र में विद्यालय में प्रवेश की बात बताई गई। भारतीय दर्शन भी यही मानता आया है। हमारे यहां प्राचीन काल से विद्या आरंभ करने की अर्थात् औपचारिक शिक्षा प्रारंभ करने की आयु 7 वर्ष मानी गई है। उससे पूर्व औपचारिक शिक्षा प्रारंभ करने से शिक्षा और शिक्षार्थी दोनों की हानि होती है। 7 वर्ष की आयु से प्रारंभ करके 25 वर्ष की आयु तक अध्ययन करना अर्थात् कुल 18 वर्ष तक का अध्ययन। पर्याप्त समय हैं यह। वर्तमान समय के हिसाब से देखें तो स्नातकोत्तर तक के अध्ययन के लिए 17 वर्ष चाहिए। फिर इतनी जल्दी क्यों?

बहुत जल्दी है, तो 4 वर्ष की आयु में बालवाड़ी या किंडर गार्डन में प्रवेश दिला सकते हैं। इससे कम आयु में बच्चों को स्कूल भेजने वाले अभिभावक निसंदेह उन बच्चों के दुश्मन ही हैं, जो अज्ञानतावश, मूढ़तावश, अहंकारवश या होडा होडी के फेर में फंसकर अपने बच्चों का बचपन तो खराब कर ही रहे हैं, उनका भविष्य भी खराब कर रहे हैं। और साथ-साथ अभिभावक अपना स्वयं का भी भविष्य? शास्त्रीय नियम तो 7 वर्ष का ही है, बहुत आवश्यक हुआ तो 4 या 5 वर्ष। इससे कम उम्र में भेजने की जल्दीबाजी तो कतई नहीं करनी चाहिए। जैसे सड़क पर चलने के नियम बने हुए हैं, सब उनका पालन करेंगे तो दुर्घटनाएं नहीं घटेगी, किंतु हम हेलमेट भी नहीं पहनेंगे, हाथ छोड़कर चलाएंगे या बहुत तेज गति से चलाएंगे तो दुर्घटना घटनी ही है। ऐसे ही शिक्षा के बारे में भी हैं, शिक्षा प्राप्त करने के उम्र के बारे में शास्त्रीय वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक नियमों को नहीं मानेंगे, तो दुर्घटनाएं घटनी ही है, विकृतियां आनी ही है और बालकों में यह विकृतियां बढ़ते-बढ़ते परीक्षा में असफल होने पर आत्महत्या तक पहुंच जाती है।

स्कूल में जाने पर बच्चे को नए अनुभवों, शारीरिक, सामाजिक, व्यावहारिक और एकेडमिक चुनौतियों और अपेक्षाओं में सामंजस्य बिठाना होता है और इनका सामना करना होता है। इसलिए अगर बच्चा इनके लिए तैयार नहीं है और उसे इनका सामना करना पड़े तो इसका बहुत नकारात्मक असर बच्चों पर पड़ता है। उसे स्कूल और पढ़ाई से चिढ़ हो सकती है। वह पढ़ाई में कमजोर रह सकता है। वह तनाव में भी आ सकता है और उसे अवसाद घेर सकता है। पांच वर्ष पूर्व बालक को जो पढ़ाना है, घर पर ही पढ़ाई हो। 'परिवार ही विद्यालय' की संकल्पना का पालन करना चाहिए। ढाई-तीन वर्ष का बालक तो औपचारिक शिक्षा के लिए कतई तैयार नहीं होता। न शारीरिक रूप से और न मानसिक रूप से। और इस बात को दुनिया के सारे शिक्षा शास्त्री और मनोवैज्ञानिक मानते हैं। इसलिए यदि परिवार को बचाना है, समाज को बचाना है, संस्कृति को बचाना है, देश को बचाना है तो बालक के बचपन को बचाइए। चार-पांच वर्ष तक उसे घर में ही खेल-खेल में सीखने दीजिए। उसका शारीरिक और मानसिक विकास होने दीजिए। यदि यह ठीक हो गया तो दुनिया की सारी शिक्षा ग्रहण करने में उसे बहुत ज्यादा समय नहीं लगेगा।  

- संदीप जोशी

(लेखक व्याख्याता हैं व शिक्षा में नवाचार के लिए प्रत्यनशील हैं।)

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