जो एनआरआई लाये जा रहे हैं, वह अच्छे दिन आते ही फिर चले जाएँगे

vande bharat mission
प्रवीन शर्मा । May 28 2020 10:41AM

जब आप विदेश के अच्छे समय में वहाँ की सुख सुविधा का आनन्द ले रहे थे तो आज भी वहाँ की ख़राब दशा में आपको संघर्ष करना चाहिए था न कि अपने स्वदेश पुनः लौट कर अपने देशवासियों का ही जीवन संकट में डालना चाहिए था।

कोरोना एक वैश्विक महामारी है। यह सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व इसकी चपेट में है। लगभग 2 लाख से अधिक लोगों की इस बीमारी से दुखद मृत्यु हो गई है। 25 लाख से ज्यादा लोग इस बीमारी की चपेट में आ चुके हैं, हालाँकि काफी लोग ठीक भी हुए हैं, जिसका पूरा श्रेय कोरोना वारियर्स को जाता है। काफी देशों के तुलनात्मक अध्ययन से यह ज्ञात हुआ है कि भारत अन्य देशों के मुकाबले बहतर स्तिथि में है। जिसका श्रेय देश में चल रहे लॉकडाउन व कोरोना वारियर्स को जाता है। भारत में एक लाख से ज्यादा कनफर्म्ड मरीज हैं और चार हजार से ज्यादा लोगों की दुखद मृत्यु हो गई है। लॉकडाउन से कुछ फायदे हुए हैं तो कुछ हानि भी अवश्य हुई है। लॉकडाउन का सर्वाधिक असर रोज कमा कर अपना घर चलाने वाले दिहाड़ी मज़दूरो पर पड़ा है। दिहाड़ी मज़दूरों की हालत तो पहले से ही अत्यंत दयनीय थी। गरीब के नाम पर वोट तो हर राजनेता माँगते हैं पर उनकी सहायता करने का अवसर जब आए तब सभी राजनेता एक दूसरे का मुख देखते हैं। दौर ही ऐसा है जनाब लोग भी उसी की सहायता करते है जो भविष्य में उनकी सहायता कर सके। आज परिवार के सदस्य एक दूसरे को सहयोग करने की जगह बाहरी व्यक्ति की सहायता करना पसन्द करते हैं। यही हाल आज हमारे देश के राजनेता कर रहे हैं। हमारे देश के विभिन्न क्षेत्रों में फंसे लोगों की मदद करने का उनका कोई इरादा नज़र नहीं आता और यदि कर रहे हैं तो सिर्फ अपनी राजनैतिक रोटियां सेकने के लिए। विदेशों से एनआरआई को वापिस लाया गया उन लोगों को वीआईपी ट्रीटमेंट मुहैया कराया गया लेकिन वहीं दूसरी ओर अपने ही गरीब मजदूरों को बेसहारा छोड़ दिया गया, आखिर ऐसा भेदभाव क्यों ?

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आज विदेशों में भारत से ज्यादा ख़राब हालात हैं, शायद इसीलिए सबको अपना राष्ट्र दिख रहा है, जब आप विदेश के अच्छे समय में वहाँ की सुख सुविधा का आनन्द ले रहे थे तो आज भी वहाँ की ख़राब दशा में आपको संघर्ष करना चाहिए था न कि अपने स्वदेश पुनः लौट कर अपने देशवासियों का ही जीवन संकट में डालना चाहिए था। इस बात की क्या गारंटी है कि सामान्य हालात हो जाने के पश्चात यह सब एनआरआई भारत में रह कर राष्ट्र की सेवा करेंगे, डॉलर्स, यूरोज़ कमाने पुनः विदेश नहीं जाएंगे जबकि मजदूर वर्ग भारत में ही रहेगा अंतिम सांस तक अपना योगदान भारत के लिए ही देगा। इसके बावजूद भी सरकारों को मज़दूरों का ख्याल लगभग 45 दिन बाद आया है। उसमें भी सभी अपनी अपनी राजनैतिक रोटियां सेंक रहे हैं। जिस मजदूर के पास दो जून की रोटी खाने को पैसा नहीं है, वह सैंकड़ों किमी. पैदल चलने को मजबूर है, सरकारें भी उन्हीं मजदूरों से पैसा ले रहीं हैं फिर भले वह केंद्र की भाजपा सरकार हो या फिर राजस्थान की कांग्रेस सरकार हो। आम जनता के टैक्स का पैसा अरबपति लोगों को लोन देने व उनका लोन माफ़ करने में ज़्यादा खर्च होता है। सरकार की तिजोरी में मिडिल क्लास को तनख्वाह देने का पैसा नहीं है, किसानों को उनकी फसलों का उचित दाम प्राप्त नहीं हो रहा, बाजार में सब्ज़ियां ज़्यादा हैं जिस वजह से किसानों की लागत भी नहीं मिल पा रही। कुल मिलाकर इस महामारी में सर्वाधिक कष्ट गरीब ही उठा रहा है। देश की बड़ी-बड़ी कंपनियों के उच्च अधिकारियों को छूट दे दी गई कि वे अपने घरों से न निकलें और सभी कार्यों को ऑनलाइन पूर्ण करें लेकिन उसी कंपनी के आम कर्मचारियों को प्रतिदिन अपनी जान जोखिम में डालकर कर्मभूमि जाना है अन्यथा उनके वेतन में कटौती कर दी जाएगी। क्या खूब कहा है किसी ने- "हिरन कम है इसलिए उनकी हत्या पर सजा है, मुर्गे व बकरे तो हलाल होने के लिए ही पैदा हुए हैं।''

मज़दूर, गरीब, मिडिल क्लास व्यक्ति मुर्गे के समान है, तभी लोग कहते हैं मरते हैं मरने दो, लोग तो मरेंगे ही जनसंख्या भी बहुत है। अमीर, अभिनेता, राजनेता, व्यवसायी हिरन के समान हैं यदि अमीरों के पालतू जनवरों को खंरोच भी आ जाए तो कई दिनों तक न्यूज़ में चर्चाएं चलती रहती हैं और पूरा प्रशासन उनके उस जानवर को बड़ी मेहनत व ईमानदारी से खोजने में लग जाता है लेकिन आज जब मजदूर हजारों किमी. चलने को मजबूर हैं तो समाज के बहुत कम लोग ही उनकी सहायता को आगे आ रहे हैं। इन सब कारणों की वजह कोई नेता नहीं है बल्कि जनता स्वयं है। किसी अभिनेता की दुखद मृत्यु पर हम शोक मनाते हैं, किसी राजनेता की दुखद मृत्यु हो जाने पर हम इतने भावुक हो जाते हैं कि उस सम्बंधित पार्टी को अपना अमूल्य वोट दे देते हैं। लेकिन वही मज़दूरों की मौत पर हम शांत बैठेते हैं, सरकार से पूछते भी नहीं की मज़दूर पैदल जा रहे हैं उनको रोक कर सहायता क्यों नहीं की जा रही ? सारे नियम, कायदे, कानून सिर्फ निचले टपके के लोगो के लिए ही क्यों ?

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कोरोना के खिलाफ लड़ाई में सरकार ने आग्रह किया- मकान का किराया ना लें, तनख्वाह नहीं काटें, परन्तु आज सबके पास बिना मीटर रीडिंग के बिजली का बिल आ गया है जिसके भुगतान करने की अंतिम तिथि नज़दीक की ही है। बड़ी-बड़ी कंपनियां जिनका टर्नओवर करोड़ों में है, वह अपने कर्मचारियों की तनख्वाह काट रहे हैं, निजी विद्यालय भी इस दौड़ मे शामिल हैं। वहीं पक्ष-विपक्ष दोनों आज भी अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं। धर्म के नाम पर भारत वासियों का आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला जारी है। गनीमत इस बात की है कि अभी तक किसी ने कोरोना से मरने वालों का धर्म नहीं पूछा कि कितने मुसलमान हैं, कितने हिन्दू, कितने सिख, कितने ईसाई। मरने वाला बस इंसान था। तबलीगी जमात से जुड़ी बात हो या सिख श्रद्धालुओं का कोरोना पॉजिटिव होना, सब पर धर्म का पलड़ा भरी रहा है। क्या कोरोना वैक्सीन में भी यही देखा जाएगा ? आज हमें इन वर्गों की बेड़ियाँ तोड़नी होंगी उसके बाद ही हम साथ मिलकर इस कोरोना महामारी पर विजय प्राप्त कर सकेंगे।

-प्रवीन शर्मा

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