हिमाचल प्रदेश की लोहड़ी का अलग ही आनंद है, इसे माघी के नाम से भी जानते हैं

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लोहड़ी सामान्यतः रेवड़ी, मुंगफली, गजक जैसी कुरमुराती चीज़ें खाने का त्यौहार माना गया है। हिमाचल प्रदेश में पंजाबी शैली में आज भी कितनी ही जगह लकड़ी के बड़े–बड़े गिठ्ठे देर रात तक जलाकर आग सेंकी जाती है।

ज़िंदगी के सर्द लम्हों को गर्माहट में लपेटने लोहड़ी आ रही है। मानते हैं सभी कि ज़िंदगी, लोहड़ी की जोश और गर्माहट भरी रात में सर्दी का बोरिया बिस्तर बांधकर घर के बाहर रख देती है और देहरी पर खड़ी बंसत ऋतु को अंदर आने का निमंत्रण दे आती है। लोहड़ी सामान्यतः रेवड़ी, मुंगफली, गजक जैसी कुरमुराती चीज़ें खाने का त्यौहार माना गया है। हिमाचल प्रदेश में पंजाबी शैली में आज भी कितनी ही जगह लकड़ी के बड़े–बड़े गिठ्ठे देर रात तक जलाकर आग सेंकी जाती है। खूब नाच गाना, खाना पीना होता है। मगर हिमाचल के कुछ क्षेत्रों की अपनी लोहड़ी भी है जिसे माघी कहते हैं। इस पर्व में पारम्परिक पकवान खिंडा सिड्डु खाए और एतिहासिक गीत गाए जाते है। ‘हारूल’ गाथाएँ गाई जाती हैं। देर रात तक नाटी होती है। बदलते समय के साथ बदलाव यहाँ भी पहुँच गया है। पंजाबी और हिट फिल्मी गीतों की ठोस घुसपैठ यहां हो चुकी हैं लेकिन अभी भी पहाड़ी संस्कृति और परम्पराएँ ज़िंदगी में उपस्थित हैं।

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हिमाचल प्रदेश के कई हिस्सों में लोहड़ी को माघी या पौष त्यौहार नाम से मनाया जाता है। विशेषकर ज़िला सिरमौर में गिरिनदी के उस पार क्षेत्र गिरिपार यानी हाटी क्षेत्र में। स्थानीय भाषा में इस त्यौहार को भातीयोज कहते हैं। इस दिन हाटी क्षेत्र जिसमें आंज भोज, मस्तभोज, जेलभोज, मेहलक्षेत्र, शिमला का चौपालक्षेत्र, कुपवी, रोहड़ू, जुब्बल व उत्तरांचल से सटे जौनसार बाबर क्षेत्र में बकरे काटे जाते हैं। बकरा काटने की आर्थिक सामर्थ्य न हो तो भेड़ या सूअर भी काट सकते हैं। सिरमौर, रेणुका, शिलाई व राजगढ़ क्षेत्र की कुछ पंचायतों में यह परम्परा जारी है। पिछले कई सालों से कई एनजीओ, पशुप्रेमी बकरे न काटने के बारे जागरूकता फैला रहे हैं। अनेक लोग शाकाहारी बनते जा रहे हैं। कुछ क्षेत्रों में यह परम्परा कम भी हो रही है। इस साल लोग जन जातीय क्षेत्र घोषित करने की मांग पूरी न होने को लेकर नाराज़ व आंदोलित हैं।

त्यौहार मनाने के लिए बकरा काटने की परम्परा पांडव काल से निभाई जा रही है। उत्तराखंड, हरियाणा क्षेत्र से भी बकरे खरीदे जाते हैं। हालांकि एक गांव के लिए कुछ बकरे ही दावत का सामान बन सकते हैं मगर प्रथाएं व जन परम्पराएं निभाते हुए देवी देवता को प्रसन्न करने के लिए पारिवारिक स्तर पर बकरा काटते हैं। परम्परा न निभाने वाले को बहिष्कार भी झेलना पड़ सकता है। इस पर्व को कबायली संस्कृति से भी  जोड़ कर देखा जाता रहा है।

पहले बहुत सर्दी होती थी इसलिए बकरा काटकर मांस को घर की छत से लटका दिया जाता था और उसे थोड़ा-थोड़ा काट कर पकाते, खाते रहते थे। मांस को सुखा कर रखने की परम्परा भी रही है। छोटे छोटे टुकड़े करके उन पर नमक हल्दी लगाकर, सुखा कर चौलाई में रखा जाता था जो काफी समय तक ठीक रहता था। ऐसा भी लोक विश्वास रहा है कि जो परिवार एक बरस तक मांस संभाल सके और अगले त्यौहार पर खाए वह भाग्यशाली है। अभी भी कई इलाकों में कई महीने तक तो मांस रखा ही जाता है। बकरे की खाल से उपयोगी खालटू बना लिए जाते हैं जिनमें आटा, चावल डाल सकते हैं।

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बकरा काटना पहाड़ी संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है। किसी सामाजिक, पारिवारिक गलती का प्रायश्चित करना हो तो बकरा कटता है चुनाव में किसी के पक्ष में बैठना हो तो बकरे की गर्दन कुर्बान, चुनाव में जीते तो बकरा शहीद। मिलकर काम करने की परम्परा हेला के दौरान खाने के लिए काटते थे। शादी ब्याह व अन्य अवसरों पर कई बकरे हलाल करना मेहमाननवाज़ी व मेज़बान के वैभव का प्रतीक रहा है। कई क्षेत्रों में त्यौहार की रीति अनुसार हर विवाहिता को मायके जाना पड़ता है बकरे की दावत में हिस्सा लेने के लिए। इस बार माघी का त्योहार 11 जनवरी से शुरू होगा।

-संतोष उत्सुक

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