डॉलर निर्भरता घटाने की ब्रिक्स की बड़ी पहल, SWIFT का विकल्प बनेगा 'ब्रिक्स पे'।

"ब्रिक्स पे" डॉलर पर निर्भरता घटाने और वित्तीय स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए ब्रिक्स देशों की एक महत्वपूर्ण रणनीतिक पहल है, जिसका उद्देश्य वैश्विक वित्तीय व्यवस्था में संतुलन स्थापित करना है। रूस, भारत और चीन जैसी अर्थव्यवस्थाओं के उन्नत डिजिटल भुगतान तंत्र इसकी तकनीकी नींव को मजबूत करते हैं, जबकि अंतरसंचालनीयता और राजनीतिक दबावों जैसी चुनौतियाँ भी मौजूद हैं। इसके बावजूद, यह पहल भविष्य में अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय समीकरणों को बदलने और ब्रिक्स की आर्थिक शक्ति को सुदृढ़ करने की पर्याप्त क्षमता रखती है।
ब्रिक्स समूह बीते एक दशक से डॉलर-आधारित वैश्विक वित्तीय व्यवस्था पर निर्भरता कम करने के लिए लगातार कदम उठा रहा है। 2014 के फोर्टालेजा शिखर सम्मेलन को इस दिशा में शुरुआती मोड़ माना जाता है, जब विकासशील देशों के लिए नए वित्तीय संस्थान बनाने की पहल की गई। न्यू डेवलपमेंट बैंक और कंटिंजेंट रिज़र्व अरेंजमेंट उसका नतीजा हैं, जो उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए राहत का स्रोत बने हैं।
बता दें कि 2015 में रूस पर पश्चिमी देशों के प्रतिबंध लगने के बाद ब्रिक्स ने आपसी व्यापार में स्थानीय मुद्राओं के उपयोग की संभावनाएँ तलाशना शुरू किया। 2017 में सदस्य देशों ने मुद्रा विनिमय, स्थानीय मुद्रा निपटान और निवेश को बढ़ावा देने पर सहमति जताई। वहीं 2020 के बाद इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम ब्रिक्स पेमेंट्स टास्क फोर्स का गठन था, जिसका उद्देश्य एक ऐसे तंत्र की स्थापना करना था जो सदस्य देशों के बीच लेनदेन को और आसान बना सके।
गौरतलब है कि 2024 के कज़ान शिखर सम्मेलन में ब्रिक्स नेताओं ने “ब्रिक्स क्रॉस-बॉर्डर पेमेंट्स इनिशिएटिव” को मजबूत करने के महत्व पर ज़ोर दिया। इसी क्रम में “ब्रिक्स पे” पर तेज़ी से काम हो रहा है, जो स्विफ्ट नेटवर्क की एक वैकल्पिक प्रणाली विकसित करने की दिशा में अहम पहल है। मौजूद जानकारी के अनुसार रूस, चीन, भारत और ब्राज़ील ये सभी देश पहले से ही अपने-अपने डिजिटल भुगतान तंत्र में मज़बूत स्थिति रखते हैं, जिससे इस नेटवर्क की तकनीकी नींव और मजबूत हो सकती है।
रूस ने अक्टूबर 2024 में मॉस्को में “ब्रिक्स पे” का पहला प्रोटोटाइप भी दिखाया। हालांकि, कहा जा रहा है कि भारत के यूपीआई, चीन के CIPS, ब्राज़ील के पिक्स जैसे प्लेटफॉर्म के बीच इंटरऑपरेबिलिटी यानी आपसी संगतता एक बड़ी चुनौती रहेगी। इसके अलावा, चीन द्वारा अपनी मुद्रा को आगे बढ़ाने की कोशिश और अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप की धमकियाँ भी इस मुद्दे को राजनीतिक रंग दे रही हैं।
वहीं, एक साझा ब्रिक्स मुद्रा की संभावना अभी दूर की कौड़ी लगती है। इसका एक कारण यह है कि सदस्य देश अपने-अपने स्थानीय मुद्रा को अंतरराष्ट्रीय व्यापार का ज़रिया बनाना चाहते हैं। दूसरी वजह यह है कि साझा मुद्रा लाने के लिए मक़बूल आर्थिक समन्वय ज़रूरी है, जिसका उदाहरण यूरोपीय संघ जैसी इकाई से मिलता है। फिलहाल, ब्रिक्स पे ही वह पहल है जिस पर सबसे ज़्यादा नज़रें टिकी हुई हैं, क्योंकि यही आगे चलकर वैश्विक वित्त में बड़े बदलाव की शुरुआत कर सकता है।
इस तरह, ब्रिक्स समूह अपने वित्तीय हिस्सेदारी में स्वतंत्रता और संतुलन स्थापित करने के लिए बड़े और महत्वपूर्ण कदम उठा रहा है, जो आने वाले वर्षों में अंतरराष्ट्रीय वित्तीय समीकरणों को बदल सकते हैं। वर्तमान में सदस्य देश मिलकर इस पहल की सफलता के लिए रणनीति तैयार कर रहे हैं और नए वित्तीय विकल्पों को आकार दे रहे हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले समय में यह सफर कहाँ तक पहुँचता है और वैश्विक वित्त व्यवस्था में इसका कितना असर दिखाई देता है।
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