बदला-बदला बसंत (कविता)

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कवि ने अपनी कविता में बसंत ऋतु के बदले बदले स्वरूप की बात की है। बसंत ऋतु में आकाश में पक्षियों की गूंज नहीं है और फूलों में सुगंध नहीं है। वायु जो शुद्ध रूप स बहती थी उसमें भी विषैले धुंए गंध आ रही है।

कवि ने अपनी कविता में बसंत ऋतु के बदले बदले स्वरूप की बात की है। बसंत ऋतु में आकाश में पक्षियों की गूंज नहीं है और फूलों में सुगंध नहीं है। वायु जो शुद्ध रूप स बहती थी उसमें भी विषैले धुंए गंध आ रही है।

बसंत! 

तुम्हारे बदले स्वरूप ने चौंका दिया है, 

नव कलियों के संगीत ने मौन साध लिया है, 

नभ के इस अनंत विस्तार में कहीं, 

किसी पक्षी की गूंज नहीं।

अभी तो वृक्षों ने धारण किये थे हरित परिधान, 

अब उनकी शाखाएं सूखी उंगलियों-सी बेजान, 

आकाश को टटोलती हैं, 

याचना भरे स्वर बोलती हैं।

वायु, 

जो कभी गंधमयी बनकर 

मलयाचल से आती, 

आज विषैले धुएं की परिधानों में 

कहाँ पहचान ढूंढ पाती।

पुष्पगंध, 

जिसे मादक बनकर 

आत्मा को था छू जाना, 

अब कृत्रिम इत्रों में 

अपना अस्तित्व है भुलाना।

हे बसंत! 

तुम्हारा वह चंचल हास्य कहाँ गया, 

जो खेतों में सरसों की सुनहरी लहरों में गाता था, 

पकते गेहूं की बालियों में, 

और कोयल की कूक में बिखर जाता था? 

अब तो खेतों में 

लोहे के बीज बोए जाते हैं, 

कोयल के सुर, 

मशीनों की ध्वनि में खोये जाते हैं। 

धरा पर उगते हैं, 

सीमेंट और कंक्रीट के वन चहुँ ओर, 

जहां थककर मौन है पवन का शोर। 

हे वसंत, 

तुम्हारा परिवर्तित रूप 

मन को झकझोर देता है। 

दिल में वेदना का अजीब शोर देता है!

क्या तुम भी 

मनुष्य की स्वार्थी उंगलियों का 

शिकार हो गए हो? 

इतने लाचार हो गए हो?

क्या तुम्हारी सौम्यता 

सभ्यता की धूल में लुप्त हो चुकी है? 

बासंती बयार कहीं विलुप्त हो चुकी है 

अरे! यह तो 

बदला हुआ बसंत है, 

जो अब आल्हाद नहीं, 

वो स्वछन्द नाद नहीं,

एक क्रंदन बनकर 

हर आत्मा में गूंजता है। 

यह वह बसंत है, 

जो मन के आकाश में 

हमारे आस पास में,

सदा के लिए पतझड़ रच गया।

- डॉ. मुकेश असीमित

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