साहसी और स्पष्टवादी लेखिका थीं अमृता प्रीतम

अमृता प्रीतम ने ऐसे समय में अपनी लेखनी में स्पष्टवादिता दिखाई, जब महिलाओं के लिए समाज के हर क्षेत्र में खुलापन एक तरह से वर्जित था। वह हिंदी तथा पंजाबी में लेखन कार्य करती रहीं।

हिंदी तथा पंजाबी लेखन में स्पष्टवादिता और विभाजन के दर्द को एक नए मुकाम पर ले जाने वालीं अमृता प्रीतम ने अपने साहस के बल पर समकालीनों के बीच बिल्कुल अलग जगह बनाई। अमृता ने ऐसे समय में लेखनी में स्पष्टवादिता दिखाई, जब महिलाओं के लिए समाज के हर क्षेत्र में खुलापन एक तरह से वर्जित था। लेखिका ममता कालिया का मानना है कि अमृता का साहस और बेबाकी ही थी जिसने उन्हें अन्य महिला लेखिकाओं से अलग पहचान दिलाई। ममता ने कहा कि जिस जमाने में महिला लेखकों में बेबाकी कहीं नहीं थी, उस समय उन्होंने स्पष्टवादिता दिखाई, जो अन्य महिलाओं के लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं था। ममता ने अमृता से जुड़ा एक किस्सा याद करते हुए बताया ''वर्ष 1963 में हम विज्ञान भवन में एक सेमिनार में अमृताजी से मिले। हमने उनसे पूछा कि आपकी कहानियों में ये इंदरजीत कौन है, इस पर उन्होंने एक दुबले−पतले लड़के को हमारे आगे खड़े करते हुए कहा, इंदरजीत, ये है मेरा इमरोज।''

ममता ने कहा ''हम उनके इस तरह खुले तौर पर इमरोज को 'मेरा' बताने पर चकित रह गए क्योंकि उस समय इतना खुलापन नहीं था और खास तौर पर महिलाओं के बीच तो बिल्कुल नहीं।'' वहीं लेखिका सरोजिनी कुमुद का मानना है कि अमृता की रचनाएं बनावटी नहीं होती थीं और यही उनकी लेखनी की खासियत थी। सरोजिनी ने कहा ''अमृता जी जो भी लिखतीं थीं, उनमें आम भाषा की सरलता झलकती थी। उनके लेखन में जरा भी बनावटीपन नहीं था। यही उनकी रचनाओं की लोकप्रियता का कारण था। इसके उलट बाकी लोग अपनी लेखनी में क्लिष्ट भाषा का उपयोग करके खुद को दार्शनिक बताने का प्रयास करते थे।'' अमृता प्रीतम को पंजाबी भाषा की पहली अग्रणी कवयित्री, उपन्यासकार और लेखिका माना जाता है। विभाजन के बाद अमृता लाहौर से भारत आईं थीं लेकिन उन्हें दोनों देशों में अपनी रचनाओं के लिए ख्याति मिली। पंजाबी साहित्य में महिलाओं की सबसे लोकप्रिय आवाज के तौर पर पहचानी जाने वाली अमृता साहित्य अकादमी पुरस्कार (1956) पाने वाली पहली महिला थीं। अमृता को पद्मश्री (1969) और पद्मविभूषण से भी नवाजा गया। वर्ष 1982 में उन्हें 'कागज ते कैनवास' के लिए साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार ज्ञानपीठ भी मिला।

अमृता वर्ष 1986 से 1992 के बीच राज्यसभा की सदस्य भी रहीं। वर्ष 2003 में उन्हें पाकिस्तान की पंजाबी अकादमी ने भी पुरस्कार दिया, जिस पर उन्होंने टिप्पणी की, ''बड़े दिनों बाद मेरे मायके को मेरी याद आई।'' उन्हें सबसे ज्यादा उनकी कविता 'अज अक्खां वारिस शाह नू' के लिए जाना जाता है, जिसमें उन्होंने विभाजन के दर्द को मार्मिक तौर पर पेश किया। ममता के मुताबिक अमृता की हर रचना विभाजन के दर्द को अलग तरह से दिखाती थी, भले ही वह उपन्यास 'पिंजर' हो या कविता 'अज अक्खां वारिस शाह नू'। अमृता ने कई वर्षों तक पंजाबी की साहित्य पत्रिका 'नागमणि' का संपादन किया। उन्होंने कई आध्यात्मिक किताबों की भी रचना की। इसी दौरान उन्होंने ओशो की कई किताबों के लिए काम किया। उनकी आत्मकथा 'रसीदी टिकट' उनकी कालजयी रचनाओं में से एक है।

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