टिप्पणियों की प्रतियोगिता (व्यंग्य)

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Prabhasakshi
संतोष उत्सुक । Apr 16 2024 5:06PM

व्यवस्था तो कैसी भी हो उसे एक न एक दिन ध्वस्त होना ही होता है। इस सामयिक, सामाजिक चुनावी खिचडी में चुनाव आयोग अपनी ज़िम्मेवारियों की इतिश्री ही कर सकता है। वह किसी को उपहार नहीं दे सकता कि लेने वाला खुश हो जाए और उसकी बात मान ले।

लोकतंत्र की राजनीतिक गर्मियों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत शोर मचाती, विवादित, अमर्यादित, अभद्र, भाषा में लिपटी आपत्तिजनक टिप्पणियों की प्रतियोगिता में महिलाएं भी मनमर्जी कर रही हैं। ऐसा हो भी क्यूं न। उन्हें भी हर क्षेत्र में आगे आने का अधिकार है। असमाज ने उनके विचारों को बंधक बना कर रखा अब वे हिम्मत कर अवसर ले रही हैं। मौके का फायदा उठा रही हैं। महिला सशक्तिकरण को नए अस्त्र और शस्त्र पहनाए जा रहे हैं। देश की आधी शक्ति, अपना वर्चस्व जमाते हुए उसे अच्छी तरह से स्थापित करने की कोशिश कर रही हैं तो यह हमारे समाज के लिए गौरव का विषय है। 

व्यवस्था तो कैसी भी हो उसे एक न एक दिन ध्वस्त होना ही होता है। इस सामयिक, सामाजिक चुनावी खिचडी में चुनाव आयोग अपनी ज़िम्मेवारियों की इतिश्री ही कर सकता है। वह किसी को उपहार नहीं दे सकता कि लेने वाला खुश हो जाए और उसकी बात मान ले। अधिकांश नेता ज़िम्मेदार नहीं गैर ज़िम्मेदार ही निकलते हैं, यह नस्ल ही ऐसी होती है, फिर भी बार बार उन्हें माननीय कहा जाता है। अब स्त्री पुरुष बराबर माननीय कहे जा रहे हैं।

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पुरुष महिलाओं पर छींटाकशी करते रहे हैं तो महिला नेताओं और विशिष्ट महिलाओं को भी अपने तरीके से पुरुष नेताओं और दूसरे पुरुषों पर जवाबी हमला ज़रूर करने का लोकतांत्रिक अधिकार है। हिसाब बराबर रहे तो बेहतर ही रहेगा। स्त्री अब कमज़ोर नहीं रही। इसमें दुखद या आश्चर्यजनक बात नहीं कि रसातल को जाते राजनीतिक स्तर के युग में महिलाएं ही महिलाओं के ऊपर शाब्दिक हमले कर रही हैं। कहते हैं यह उनका अधिकार नहीं लेकिन राजनीतिक दृष्टिकोण से कर्तव्य तो माना ही जा सकता है। विरोधी विचारों या विरोधी पार्टी की महिला, महिला न होकर, राजनीतिक विरोधी नहीं वैचारिक दुश्मन भी होती है। कर्मयोगी कृष्ण ने क्या कहा था।   

ज़बान तो चलाने के लिए होती है। जिसे भी मौक़ा मिलता है खूब चलाता है। कोई वायदों के शहद में लपेट कर, कोई बुझे हुए ज़हर में भिगोकर। अभिव्यक्ति की बेचारी आजादी, इस संबंध में कुछ नहीं कह सकती और  सिर्फ प्रतिष्ठित व्यक्तियों के अभिमान की रक्षा में जुटी रहती है क्यूंकि आम आदमी का तो कोई मान होता नहीं, अभिमान तो बहुत दूर की बात है। चुनाव का मौसम हो या शादी, व्यक्तिगत खुन्नुस भी हंसते, व्यंग्य करते निकाल ली जाती है। सुना है देश को सुचारू रूप से आगे ले जाने के लिए राजनीति उदंड बच्चे पैदा करती है। बिगड़े हुओं से हम किस तरह की टिप्पणियों की उम्मीद कर सकते हैं। 

- संतोष उत्सुक

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