दिल, दिमाग, कार और पेट (व्यंग्य)

पार्किंग में कई बार दूसरे बंदे कुछ देर के लिए गाड़ी पार्क करने आते हैं। वे पूछते हैं यह किसकी गाड़ी है, क्या यह चलती नहीं, पता नहीं लोग क्यूं इतनी बड़ी लम्बी, महंगी गाड़ियां खरीदकर पब्लिक पार्किंग में खडी कर देते हैं और दूसरों को पार्किंग नहीं मिल पाती।
पिछले दिनों उन्होंने मनपसंद कार का टॉप मॉडल खरीदा। बारिश के दौरान स्वयं चलने वाले वाइपर, सन नहीं बल्कि बड़ी मून रूफ, रिवर्स कैमरा और कई दर्जन सुविधाएं उसमें हैं। उन्होंने याद कर कर, मान सम्मान और आनंद बढाने वाली उन सुगमताओं बारे हमें बताया। उनमें से कुछ समझाई भी लेकिन हमारे पल्ले ज्यादा नहीं पड़ी। एक बात समझ में आई कि उनकी सुविधाजनक कार बढ़िया, महंगी लेकिन शान बढ़ाऊ है। हमारे मुहल्लों में अनेक कारें, पड़ोसियों ही नहीं, दूसरे शहरों में बसे रिश्तेदारों की कारों को बार बार याद करने के बाद शुद्ध आत्मसंतुष्टि के लिए खरीदी जाती हैं। पैसा न भी हो तो बैंक से कर्ज़ ले लिया जाता है। अपने पास पार्किंग न हो तो जहां भी पार्किंग मिले किराए पर ली जाती है जी। कार ढकने के लिए, टिकाऊ कवर भी लिया जाता है जी।
पार्किंग में कई बार दूसरे बंदे कुछ देर के लिए गाड़ी पार्क करने आते हैं। वे पूछते हैं यह किसकी गाड़ी है, क्या यह चलती नहीं, पता नहीं लोग क्यूं इतनी बड़ी लम्बी, महंगी गाड़ियां खरीदकर पब्लिक पार्किंग में खडी कर देते हैं और दूसरों को पार्किंग नहीं मिल पाती। यह सब बातें सुनकर उस शानदार कार को अच्छा तो नहीं लगता होगा लेकिन वह कुछ कह भी तो नहीं सकती। कार यह नहीं समझती कि जब तक किश्तें आराम से चली जाती हैं, कार अच्छी लगती है। धीरे धीरे जब हाथ तंग होने लगता है तो कार की किश्त निकालनी मुश्किल हो जाती है जी। उसे चलाना हो तो बार बार पेट्रोल भी मांगती है जी। लोकल चलाने में तो उसकी औसत भी नहीं निकलती।
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कई बार पत्नी की बचत राशी में से किश्त भरनी पड़ती है। काफी दिन बाद चलाओ तो लगता है कार कहीं जख्मी न हो जाए। क्यूंकि उसमें छोटा सा ज़ख्म भी हो गया तो ठीक होने में हज़ारों खर्च हो सकते हैं। कभी न कभी, किसी दिन या रात, लगता है कि क्यूं खरीदी यार हमने यह कार। हमारे एक मित्र हैं, सामाजिक शास्त्र नहीं पढ़ाते फिर भी कहते हैं कि गाड़ी खरीदते हुए, सभी पहले दिल की बात मानते हैं। पत्नी का दिल जो चाहता है और बेचने वाला दिमाग से समझाता है, वही गाड़ी लेते हैं जी। चाहे कार में दिए सौ में से अठ्ठासी फीचर पल्ले न पड़ें।
गाड़ी खरीदने वाले काफी लोग दिमाग से भी काम लेते हैं। कितनी औसत देगी, कहां पार्क करेंगे, कितनी इस्तेमाल होगी उसके हिसाब से मॉडल तय करते हैं लेकिन फिर जब गाड़ी प्रयोग नहीं हो पाती, रोजाना होने वाला ट्रेफिक जाम डराता है तो फिर यह दोनों तरह के बंदे जिन्होंने दिल या दिमाग की मानकर गाड़ी ली है पेट से पूछना शुरू कर देते हैं जी। समझदार पेट ही उचित सलाह देता है। पेट कहता है सबसे पहले बचत का पेट भरो फिर अपना और परिवार का असली पेट। फिर ज़रूरी जरूरतों का पेट देखो कितना भरना है। फिर फुर्सत में यह सोचो कि निजी गाड़ी के पेट को कितना खिला सकते हो, उसके हिसाब से गाडी खरीदो। बात तो ठीक है जी लेकिन अच्छी लगने वाली नहीं। न लगे अच्छी लेकिन पेट की बात उचित है जी। पेट, दिल और दिमाग से ज़्यादा समझदार होता है जी।
- संतोष उत्सुक
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