'हमारे संज्ञान में नहीं आया है': संज्ञान, अंतर्ज्ञान और अंतर्धान (पुस्तक समीक्षा)

book review
Prabhasakshi
कमलेश पांडे । Aug 24 2023 4:54PM

अधिकांश लोगों का मानना है कि हिंदी समाज में अन्याय और दमन ज्यादा होता है। इस पट्टी में तानाशाही वाली प्रवृति भी दृष्टिगोचर होती रहती है। इसलिए हिंदी पट्टी में व्यंग्य लेखन की डिमांड ज्यादा है। वैसे भी प्रभात कुमार की व्यंग्य विधा में गतिशीलता और सक्रियता झलकती है।

व्यंग्यकार प्रभात कुमार उर्फ संतोष उत्सुक का व्यंग्य संग्रह "हमारे संज्ञान में नहीं आया है" पढ़ने को मिला। व्यंग्य लेखन की दुनिया में यह गागर में सागर सरीखा प्रतीत हुआ। इसमें समकालीन लोकतांत्रिक, प्रशासनिक, न्यायिक,  सामाजिक और सांस्कृतिक दुनिया की विडंबनाओं यानी मतलबी प्रवृति पर गहरा तंज मिलता है। चूंकि व्यंग्य में सबकुछ पारदर्शी नहीं होना चाहिए, कुछ अनकहा भी होना चाहिए। इसलिए व्यंग्यकार ने अपनी लक्ष्मण रेखा नहीं लांघी है, बल्कि कतिपय गम्भीर प्रतीकों और प्रतिमानों के जरिए अपनी बात खुलकर लिखी है। सम्भवतया बूझो तो जाने सरीखी चुनौती सुधी पाठकों को दे रखी है।

इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड, नोएडा, गौतमबुद्धनगर द्वारा प्रकाशित इस व्यंग्य संग्रह में कुल 128 पृष्ठ हैं और कवर सहित 132 पेज। इसके पेपर बैक संस्करण का मूल्य मात्र 250/- रुपये है। अपने 52 व्यंग्य अध्यायों में व्यंग्यकार ने जीवन के हरेक चर्चित पहलुओं पर सूक्ष्म कटाक्ष करने की विनम्र कोशिश की है, जो गम्भीर पाठकों को बहुत ही रोचक लगेगी। वैसे व्यंग्यकार राजेन्द्र धोड़पकर की प्रस्तावना और अशोक गौतम की समालोचना पढ़ने के बाद इसमें और अधिक रम जाने का मन अवश्य करेगा। 

मैं यहाँ स्पष्ट कर दूं कि प्रभात कुमार और संतोष उत्सुक एक ही व्यक्ति हैं, जो दो नामों से अपना रचना संसार रचाते-बसाते रहते हैं। बस उनसे उम्मीद यही होनी चाहिए कि वे अपने व्यंग्य के दायरे को और ज्यादा व्यापक करें, ताकि हरिशंकर परसाईं और शरद जोशी जैसी रोचकता और गम्भीरता इनकी रचनाओं में भी बनी रहे। यूँ तो समाज में व्याप्त विसंगतियों को टटोलने का उन्होंने दिलचस्प जज्बा दिखाया है, लेकिन सामाजिक असहिष्णुता, अन्याय और गैर बराबरी की बढ़ती प्रवृति पर जिस अंदाज में व्यंग्यात्मक चोट होनी चाहिए, बस उसकी थोड़ी सी कमी महसूस होती है। 

अधिकांश लोगों का मानना है कि हिंदी समाज में अन्याय और दमन ज्यादा होता है। इस पट्टी में तानाशाही वाली प्रवृति भी दृष्टिगोचर होती रहती है। इसलिए हिंदी पट्टी में व्यंग्य लेखन की डिमांड ज्यादा है। वैसे भी प्रभात कुमार की व्यंग्य विधा में गतिशीलता और सक्रियता झलकती है। जिससे उम्मीद है कि इनके व्यंग्य सरल और सहज भाषा में पाठकों के बीच अपना स्थान शीघ्र बना लेंगे। इस व्यंग्य संग्रह में उठाई हुई समस्याएं नितांत हमारे-आपके आसपास की प्रतीत होती हैं, जिनसे बहुधा हमलोग चलते-फिरते कहीं न कहीं जाने-अनजाने में दो-चार होते ही रहते हैं।

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सच कहूं तो यह व्यंग्य संग्रह अपने आसपास की विसंगतियों से उपजे व्यंग्यों का समुच्चय ही है, जो हमारी व्यवस्था की विसंगतियों और समाज में व्याप्त विद्रूपताओं पर हर कोण से तीखे प्रहार करने में पूरी तरह सक्षम हैं। इसमें बात कहने का जो मौलिक और चुटीला अंदाज है, वही इनके प्रशंसकों को इनके साथ जोड़ता है। 

मसलन, हमारे आसपास की लोकशाही, नेताशाही, अफसरशाही द्वारा मुस्कुराते हुए काम टाल जाने का कड़वा सच है। इसलिए इन्होंने अपने व्यंग्य में उन स्टैम्प नेताओं पर कड़ा प्रहार किया है, जिन्हें नचाने वाला सूत्रधार पर्दे के पीछे होता है और मनमाफिक कठपुतलियों की तरह नचाता रहता है।

इस व्यंग्य संग्रह के शीर्षक आनंददायक हैं, जिन्हें समझने के लिए बहुत माथापच्ची नहीं करनी पड़ती है। इसमें भाषा के लकदक के बिना ही गूढ़ और सारगर्भित बातें कहने की कोशिश की गई है। दो टूक शब्दों में कहूँ तो उनके तमाम व्यंग्य अपने समय के गिरेबान में हाथ डालकर हमें चिंतन-मनन के लिए बाध्य करते हैं। इस नजरिए से यह पुस्तक हमें हमारे परिवेश का आईना दिखाते हुए जीवन के प्रति नई दृष्टि देने की पहल करते हैं।

आम तौर पर जब राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक और आर्थिक अस्वस्थताओं के चलते सम्बन्ध लगातार बौने होते जा रहे हैं, तब व्यंग्यकार ने अपने व्यंग्य के माध्यम से उन्हें भी सोचने-समझने के लिए विवश करने की कोशिश की है। साथ ही, आज कर्ज लेने के लिए कर्ज देने वाली संस्थाओं द्वारा ग्राहकों को किस तरह से उकसाया, बहलाया, फुसलाया जा रहा है, उस ओर  भी इन्होंने ताने मारे हैं। क्योंकि पहले कर्जदाता अपने जाल में फँसाते हैं, उसके बाद कर्जदारों को वसूली के लिए परेशान करते हैं।

सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि व्यंग्यकार ने आज के तथाकथित पत्रकारों की पूरी ईमानदारी से खबर ली है, जिनके लिए नेताओं के फोटो छापना ही आज पत्रकारिता भर रह गया है। इस व्यंग्य में व्यंग्यकार पत्रकारिता के गिरते स्तर को लेकर चिंतित दिखता है। आज पत्रकार और पत्रकारिता दोनों अपने अपने दायित्वों से कोसों दूर जा चुके हैं, जो पत्रकारिता के उद्देश्य को लेकर किसी खतरे की घण्टी से कम नहीं है।

कुल मिलाकर व्यंग्यकार ने सभी वर्गों की विसंगतियों को अपने व्यंग्यों का कहीं न कहीं विषय जरूर बनाया है। उन्होंने अपने समय के राजनीतिक परिवेश की उन विसंगतियों को भी बखूबी उठाया है जो केवल आंकड़े उगाकर, स्वादिष्ट आश्वासन खिलाकर जनता को ठगती रही है, देश के विकास के फटे ढोल पीटते अपने हाथों को लहूलुहान करते हुए। वास्तव में देश के विकास को दीमक बनकर ऐसे ही नेता चाटते रहे हैं, जिनका इलाज कम ही है।

सराहनीय बात यह है कि प्रभात कुमार का व्यंग्यकर्म उनके अपने लिए नहीं, बल्कि आम जन के लिए है। यही आज के व्यंग्य की मांग भी है। लोक के तंत्र, यंत्र, मंत्र और षड्यंत्र पर भी उन्होंने गजब का ताने मारे हैं। सार सत्य यह है कि किसी को भी उसकी सुविधा के अनुसार कोई मामला पर संज्ञान लेने की आजादी नहीं दी जा सकती है। भले ही वह न्यायपालिका ही क्यों न हो। क्योंकि अक्सर जो लोग कह गुजरते हैं कि यह मामला हमारे संज्ञान में नहीं आया है, वही कभी कभी अचानक किसी मामले को संज्ञान में लेकर सिस्टम के लिए क्षणिक परेशानी का सबब बन जाते हैं। इसलिए किसी को भी स्वतः संज्ञान का अधिकार देने के खतरे को समझिए, और संवैधानिक और कानूनी उपबन्धों में स्पष्ट कीजिए।

यदि हम-आप समझ सकें तो इशारा उधर भी है, जिन्हें  संज्ञान लेने का वैधानिक अधिकार तो प्राप्त है, लेकिन उसके मतलबी उपयोग से सिस्टम और समाज दोनों में 'हाहाकार' मचा हुआ है। आखिर ऐसा कबतक चलेगा, चलता रहेगा जनाब, यही तो व्यंग्यकार भी चाहते हैं और पाठक भी। हालांकि वो कभी नहीं चाहेंगे, जो इसका लुत्फ उठाते हैं कभी अपनी हनक दिखाने के लिए तो कभी अपनी सनक प्रदर्शित करने के लिए। 

कड़वा सच यह है कि जब राम राज्य के लिए 'लोकतंत्र' शब्द ही एक व्यंग्य प्रतीत होता है, तो फिर उस पर आधारित व्यवस्था कैसी महसूस होती होगी, समझा जा सकता है। सच कहूं तो संज्ञान, अंतर्ज्ञान और अंतर्धान को सही तरीके से समझने की जरूरत है, तभी यह व्यवस्था सबके लिए उपयोगी साबित होगी।

पुस्तक समीक्षा: हमारे संज्ञान में नहीं आया है

लेखक: प्रभात कुमार

मूल्य: 250/- (पेपर बैक)

प्रकाशन: इंडिया नेटबुक्स

- कमलेश पांडेय

वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार

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