वरुणदेव कृपा करो (व्यंग्य)

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भाई वरुण ने कहा– “भैया सूर्यदेव! आपको हमेशा मुझमें गलती नजर आती है। जिनकी तरफदारी कर रहे हैं वे तो एक पेड़ लगाते नहीं। उल्टे पेड़ काट-काटकर कांक्रीट जंगल बनाने पर तुले हैं। देखा नहीं पिछले दिनों लोग कैसे ऑक्सीजन की कमी के चलते विचलित हो उठे थे।

“हेलो! भाई वरुणदेव! आने में कोई इतना समय लगाता है? तुम्हारी प्रतीक्षा में ओवरटाइम करते हुए मेरे प्राण सूख रहे हैं। लगता है तुम पर किसी इंसान की छाया पड़ गयी है। वरना ‘प्राण जाए पर वचन न जाए’ की भांति अपना वचन निभाने और समय पर प्रकट होने वाले तुम कभी ऐसा नहीं करते थे। लगता है तुम्हारे सिर पर लेतलतीफी का कीर्तिमान स्थापित करने का भूत सवार है! तुम्हें पता भी है कि तुम्हारी कमी लोगों को कितनी खलती है। गर्मी के मारे उनका हाल-बेहाल हो रहा है। पसीना पोंछते-पोंछते उनकी हालत खराब हो रही है। मेरी जिंदगी वाचमैन से भी बदतर हो गई है। आजकल तो एक भवन की देखरेख के लिए दो-दो, चार-चार वाचमैन रखे जाते हैं। कोई चला भी जाता है तो दूसरे संभाल लेते हैं। मेरी किस्मत ऐसी कहाँ? सारी दुनिया के लिए मैं अकेला! यह बड़ी नाइंसाफी है। जब तक तुम मुझे रिलीव नहीं करोगे तब तक मैं अपनी ड्यूटी छोड़कर नहीं जा सकता। हाय रे मेरी फूटी किस्मत। अब बताओ ऐसा करना क्या तुम्हें शोभा देता है?”

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“भैया सूर्यदेव विलंब से आने के लिए क्षमा चाहता हूँ। मैं आने को तो कब का आ चुका था। लेकिन वह क्या है न कि मुझे लाने की ड्यूटी जिन हवाओं के जिम्मे थी वे ससुरे देश के अलग-अलग कोने में तूफान का उत्पात मचाने में व्यस्त हो गए। अब आप ही बताएं भैया इसमें मेरी क्या गलती है?” वरुण देव ने अपना पक्ष रखते हुए कहा।

“देखो वरुण! तुम्हारे ये बहाने मेरे सामने नहीं चलेंगे। पिछले चार महीने से झक मार रहा हूँ। देश की वैसे ही आर्थिक व्यवस्था ठप्प पड़ी है। न इनकम है न ग्रोथ। इंक्रिमेंट और बोनस तो मानो हर की पौड़ी हो गई है। सोचा अगर तुम समय पर आ जाते तो तुम्हारे बादलों के पीछे एक लंबी तानकर सो जाता। तुम हो कि गुलछर्रे उड़ाने में मस्त हो। देखो धरती पर किस तरह से लोग गर्मी से बचने के लिए तरबूज, खरबूज, आम, शरबत, शीतल पेय पदार्थों के पीछे हाथ धोकर पड़ गए हैं। एक तो गरीबी ऊपर से आटा गीला। मेरा न सही कम से कम लोगों का तो ख्याल करो। ये तुम्हारे नेताई चोंचले मेरे गले नहीं उतर रहे हैं।'' भैया सूर्यदेव गुस्साते हुए बोले।

भाई वरुण ने कहा– “भैया सूर्यदेव! आपको हमेशा मुझमें गलती नजर आती है। जिनकी तरफदारी कर रहे हैं वे तो एक पेड़ लगाते नहीं। उल्टे पेड़ काट-काटकर कांक्रीट जंगल बनाने पर तुले हैं। देखा नहीं पिछले दिनों लोग कैसे ऑक्सीजन की कमी के चलते विचलित हो उठे थे। एक पौधा लगाने और उसकी देखरेख करने में कौनसी इनकी मैयत निकल रही थी। वैसे भी ये इंसान बड़े दोगले होते हैं। आपके मुँह पर मेरी और मेरे मुँह पर आपकी बुराई करते हैं। बारिश हो जाए तो कहते हैं कि शहर में पड़ने की क्या जरूरत थी? नाले-गटर बहाने की क्या आवश्यकता थी? फिर ऊपर से यही लोग भगवान से मेरे खिलाफ प्रार्थना करते हुए मुझे लौट जाने के लिए कहते हैं।''

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भैया सूर्यदेव ने नाक-भौं सिकुड़ा और कहा- वैसे भी तुम बहुत बदल गए हो। पक्का नेता जैसे गिरगिटिया व्यवहार करने लगे हो। जब पड़ते हो तो लोगों का जीना हराम कर देते हो। हर साल बिहार, मुंबई में बाढ़ लाने का इतना उतावलापन तुम्हारे सिर क्यों चढ़े रहता है? क्या वहाँ तुम्हारा ननिहाल है या फिर ससुराल? देश के दूसरे हिस्सों में पड़ जाओ तो तुम्हारी नानी मर जाती है?

भाई वरुण देव ने भी करारा जवाब दिया– “भैया मैं आपको कैसे समझाऊँ? मैं पड़ने को तो हर जगह पड़ सकता हूँ लेकिन लोग हैं कि नम्र वातावरण बनाने की जगह बड़ी-बड़ी इमारते खड़ी कर देते हैं। मुंबई और बिहार में हर साल मेरे नाम पर लाखों-करोड़ों का रुपया उठाते हैं और मुझे तरीके से व्यवस्थित करने की जगह मुझे अनदेखा कर देते हैं। जहाँ देखिए वहाँ कब्जाई जमीन का आतंक है। कोई जल संचय करने का नाम ही नहीं लेता। अब आप ही बताएँ भैया इसमें मेरी क्या गलती है?

सूर्य भैया वरुण भाई की बात से सहमत होकर निरुत्तर हो गए।

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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