आराम में आराम नहीं (व्यंग्य)

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पीयूष पांडे । Apr 28 2020 4:22PM

लेकिन, अभी एक महीने पहले मैंने ईश्वर से कहा- “हे भगवान, दफ्तर में बॉस ने आराम हराम कर रखा है। कुछ ऐसी जुगाड़ करो कि आराम से आराम कर सकूं।'' खुदा को जाने क्या सूझी कि दो दिन बाद ही एक पिद्दी से वायरस के चक्कर में लॉकडाउन का ऐलान हो गया।

ईश्वर की फिलॉसफी भगवान कसम अपन को कभी समझ नहीं आई। बचपन में हाथ जोड़-जोड़कर गर्लफ्रेंड मांगता रहा लेकिन ईश्वर को कतई दया नहीं आई। हद ये कि मेरे जिगरी यार रमेश को बिना ईश्वर से सौदेबाजी किए हुए दया नाम की कन्या से दोस्त का प्रसाद मिल गया। मैंने इसे भगवान का पक्षपातपूर्ण रवैया मानते हुए उसी तरह उनका बायकॉट कर दिया, जिस तरह कई राज्यों के मुख्यमंत्री पर्याप्त धन न आवंटित होने पर प्रधानमंत्री की बैठकों का कर देते हैं। लेकिन, जिस तरह पीएम से पंगेबाजी कर सीएम का काम नहीं चल सकता, उसी तरह मेरा भी ईश्वर के बगैर काम नहीं चला। नौकरी में पहुंचा तो मैं ईश्वर के दर मुंह उठाए फिर उसी तरह पहुंच गया, जैसे नेताजी पांच साल बाद मुंह उठाए वोटर के घर पहुंच जाते हैं। शर्म निरपेक्ष भाव से। मैंने ईश्वर को ‘बेनिफिट ऑफ डाउट’ दिया और सोचा कि शायद भगवान नहीं चाहता था कि मैं बचपन से ही प्यार-व्यार के चक्कर में पड़कर पढ़ाई-लिखाई से दूर रहूं। तो मैंने नौकरी करते हुए अपनी  खारिज हो चुकी मांग की फाइल को व्रत-मन्नत वगैरह की पर्चियां नत्थी कर एक परिपक्व ठेकेदार की भांति दोबारा आगे बढ़ाया। लेकिन, ईश्वर के सिर पर पता नहीं क्यों ईमानदारी का भूत सवार था। मेरी फाइल उसी तरह सिरे से रिजेक्ट हुई, जैसे कांग्रेस की मतदाताओं से सत्ता देने की मांग सिरे से खारिज हुई। कभी-कभी मुझे लगता है कि जिस तरह ग्रह-नक्षत्रों का असर पृथ्वीवासियों पर होने की बात कही जाती है, उसी तरह शायद जमीनी घटनाओं का असर स्वर्गलोक तक होता हो। क्योंकि, जिस दौर में मैंने ईश्वर के समक्ष में अपनी मांग रखी, देश में अन्ना का आंदोलन परवान चढ़ रहा था। हर गली-मुहल्ले दो चार ईमानदार पान चबाते दिख जाते थे। अन्ना आंदोलन के वक्त ईश्वर भी शायद बेईमानी बर्दाश्त करने के मूड में नहीं था। ईश्वर ने गर्लफ्रेंड से नहीं नवाजा तो नहीं ही नवाजा। फिर, मैंने एक बार प्रमोशन, एक बार बॉस की ठुकाई, एक बार मकान मालिक के हाथ टूटने, एक बार थ्री बेडरुम घर खरीदने जैसी मांगों को भगवान के सामने रखा लेकिन ईश्वर ने सारी मांगों को पेंडिंग लिस्ट में डालकर रखा है।  

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लेकिन, अभी एक महीने पहले मैंने ईश्वर से कहा- “हे भगवान, दफ्तर में बॉस ने आराम हराम कर रखा है। कुछ ऐसी जुगाड़ करो कि आराम से आराम कर सकूं।'' खुदा को जाने क्या सूझी कि दो दिन बाद ही एक पिद्दी से वायरस के चक्कर में लॉकडाउन का ऐलान हो गया। अब आराम ही आराम है। ईश्वर के घर देर है अँधेर नहीं, ये बात मैं मान गया लेकिन ईश्वर का रवैया मेरे लिए हद से ज्यादा पक्षपातपूर्ण है, ये भी समझ गया। आराम की मांग मैंने रखी, लेकिन आराम सब कर रहे हैं। कोरोना ने पूरे देश को एक काम दे दिया- आराम। पूरा देश ऐसे आराम कर रहा है, जैसे वामपंथी दल कई बरस से राजनीति में आराम कर रहे हैं। जिस तरह वाम नेताओं के पास बयान देने के अलावा कोई ठोस काम नहीं है, उसी तरह आरामबाजों के पास आराम के सिवाय कोई ठोस काम नहीं है।

कई लोग आराम करते करते इतना थक गए हैं कि मौत से दो-दो हाथ करने से नहीं डर रहे। अर्थात लॉकडाउन होते हुए क्रिकेट खेल रहे हैं, छतों पर पार्टीबाजी कर रहे हैं और मॉर्निंग वॉक पर ऐसे जा रहे हैं, जैसे सारी बीमारियां लॉकडाउन में ही खत्म कर मानेंगे। जिस तरह हॉलीवुड के फिल्मकार भारत में गरीबी देखने आते हैं, उसी तरह कई आरामबाज बिना मास्क पहने सूने पड़े बाजार देखने जा रहे हैं। उन्होंने होली-दिवाली कई मौकों पर बाजार की रौनक देखी है, आजकल मौत से पंगा लेते हुए वीरानापन देखने जा रहे हैं। एक ज़माने में मैं अंडमान-निकोबार द्वीप समूह घूमने गया था तो हमारे टूरिस्ट स्पॉट में जारवा जनजाति की झोपड़ियां शामिल थीं। हमें बस में बैठाकर जारवा जनजाति के लोगों को दिखाने ले जाया गया था। उसी तरह मेरे मुहल्ले के एक आरामबाज ने हद कर दी। वो बोला-“मैं जमाती देखने जा रहा हूं। सुना है हॉस्पीटल में बंद है। मैं देखना चाहता हूं कि ऐसे नमूने कैसे होते हैं।''

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मैंने आरामबाज को नमन किया और अमेजन-नेटफ्लिक्स पर आईं कई वेबसीरिज की कसम देते हुए जैसे तैसे घर भेजा। लेकिन, स्टंट हिन्दुस्तानियों का प्रिय शगल है। कोरोना के कहर के बीच भी लोग स्टंटबाजी से बाज नहीं आ रहे। शायद लोग आराम से पक गए हैं। आखिर ऋषि-मुनि कह भी गए हैं कि अति सर्वत्र वर्जयेत्। जिस तरह कुत्सित विचारों की अति चरित्र छीन लेती है, भ्रष्टाचार की अति सत्ता छीन लेती है, वैसे ही आराम की अति अब लोगों का चैन-ओ-आराम छीन रही है। हे कोरोना, सुन रहा है तू !!

- पीयूष पांडे

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