दुनियादारी के दोहे (व्यंग्य)

दिन भर में हम अपने आसपास कई ऐसी चीजें देखते हैं जो देखने में तो सामान्य होती हैं लेकिन कई बार वह असामान्य भी हो जाती है। इसी को देखते हुए व्यंग्यकार ने समाज में क्या-क्या खामियां है उसको दोहों के माध्यम से बहुत ही सुंदर ढंग से बताया है।
नेता कहे व्यवस्था से, तू क्या चलाए मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं चलाऊँ तोय॥
चमचा कबहुं ना फेंकिए, जो पास तोहरे होए।
माखन लगावे काम आए, वह चमचा ही तो होए॥
नेता मास्टर दोऊं खड़े, काके पकड़ू पांय।
साक्षात नेता आपकी, दुनिया दियो बताय॥
पब्लिक इतना दीजिए, जा मे हम समाय।
मैं भी अति-अति रहूं, बिनामी ना खाली जाय॥
जल्दी-जल्दी ओ जना, अपना पैसा लेय।
सिर पे चुनाव है खड़ी, वोट हमीं को देय॥
उरतृप्त ते मना अंध है, जो रुपया माने घूस।
घूस-घूस पर दुनिया चले, चले न कोई मनूस॥
पद मरा न पैसा मरा, जर-जर हुए शरीर।
एक पैर कब्र में रहे, तब भी नाचे शरीर॥
रात गंवाई मोबाइल पे, दिवस गंवाया सोय।
सोशल मीडिया एप्प हैं, ले लेई लुत्फ उठाय॥
चुनाव में पैरन सब परे, बाकी दिन परे न कोय।
जो बाकी दिन पैरन परे, तो ऑटोमेटिक नाम होय॥
पिज्जा खाए जग मुया, मुई न पिज्जा की भूख।
रोटी सब्जी अब फेंक दे, यही आधुनिक सूख॥
झूठा हुआ तो क्या हुआ जैसे नेता हुजूर।
माखी पास उड़े नहीं, सेवा करे सभी हुजूर॥
उड़ा पंछी द्वेष का, ऊँचे पहुँचे अकास।
चुप न बैठे तब तक, हो जाए न नास॥
तीन लोक की संपदा जुटाए, नेता को जब देय।
तब भी पेट भरे नहीं, कुंभकरण भी लगे हेय॥
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,
प्रसिद्ध नवयुवा व्यंग्यकार
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