सत्ता की खट्टी चाशनी (व्यंग्य)

neta
Prabhasakshi

चंपकलाल का 'आदर्शवाद' धीरे-धीरे 'व्यवहारिकता' की दलदल में धँसने लगा। उसे पता चला कि चुनाव सिर्फ़ 'भाषणबाजी' से नहीं, बल्कि 'खर्चा-पानी' से भी जीते जाते हैं। "अरे! यह तो 'पैसे का खेल' है!" उसने एक दिन अपनी पत्नी से कहा, जब एक 'वोट-ठेकेदार' ने उससे 'प्रति वोट' की कीमत पूछी।

एक था हमारा श्रीमान चंपकलाल, रामभरोसे नगर का एक ऐसा आम आदमी, जिसकी जेब में भले ही छेद हो, पर सपनों का गुब्बारा हमेशा आसमान छूता रहता था। उसकी आँखों में एक अजीब-सी चमक थी, जो अक्सर उन लोगों में पाई जाती है, जो या तो बहुत भोले होते हैं या फिर बहुत बड़े वाले 'खिलाड़ी'। चंपकलाल की कहानी कुछ ऐसी ही थी। बचपन से ही उसे 'कुर्सी' से बड़ा लगाव था। स्कूल में मॉनिटर की कुर्सी, कॉलेज में छात्रसंघ अध्यक्ष की कुर्सी, और अब, जीवन की इस ढलती शाम में, उसकी नज़र गड़ी थी 'पार्षद पद' की उस सुनहरी कुर्सी पर। उसे लगता था, यह कुर्सी नहीं, साक्षात् 'मोक्ष' का द्वार है, जहाँ से वह रामभरोसे नगर की हर गली, हर नुक्कड़, हर नाली का उद्धार कर देगा। "अरे! यह कुर्सी मिली तो समझो, जनता का 'भाग्य' बदल गया!" वह अक्सर अपनी पत्नी, श्रीमती ललिता देवी से कहता, जो बेचारी हर बार सिर्फ़ अपनी साड़ी का पल्लू कसकर रह जाती थीं, क्योंकि उन्हें पता था कि चंपकलाल के सपनों का 'बजट' हमेशा उनकी साड़ी के पल्लू से ही निकलता है। चंपकलाल की नज़र में पार्षद की कुर्सी सिर्फ़ एक पद नहीं, बल्कि एक 'स्टेटस सिंबल' था, एक ऐसा 'सिग्नेचर स्टाइल' जिससे उसकी 'वैल्यू' बढ़ जाती। वह अक्सर कल्पना करता, कैसे लोग उसे देखकर "जय हो पार्षद जी!" कहेंगे, कैसे उसकी गाड़ी के आगे-पीछे 'समर्थकों' की भीड़ चलेगी, और कैसे उसकी एक आवाज़ पर सरकारी बाबू 'सैल्यूट' ठोकेंगे। यह कुर्सी उसके लिए सिर्फ़ 'सेवा' का माध्यम नहीं, बल्कि 'सेल्फी' का माध्यम भी थी, जहाँ वह जनता के साथ खड़े होकर अपनी 'ब्रांडिंग' कर सके। उसे लगता था, यह कुर्सी मिली तो उसके सारे 'पाप' धुल जाएँगे और वह सीधा 'स्वर्ग' का टिकट कटा लेगा, बस एक बार यह 'पार्षद' का ठप्पा लग जाए। उसकी यह महत्वाकांक्षा इतनी प्रबल थी कि वह हर रात उसी कुर्सी के सपने देखता, कभी उसे सोने की बनी देखता तो कभी हीरे-जवाहरात से जड़ी। उसे लगता था, यह कुर्सी तो बस उसी के लिए बनी है, जैसे 'अंगूर' सिर्फ़ लोमड़ी के लिए बने थे, बस पहुँचने भर की देर है। वह अपनी इस 'कुर्सी-प्रेम' की कहानी हर किसी को सुनाता, और हर कोई सुनकर मुस्कुराता, क्योंकि रामभरोसे नगर में चंपकलाल की 'उड़ान' और 'लैंडिंग' का इतिहास सबको पता था।

चंपकलाल ने अपनी 'पार्षद-प्राप्ति' की यात्रा शुरू की, जो किसी 'महाकाव्य' से कम नहीं थी, बस उसमें नायक की जगह एक 'कॉमिक रिलीफ' था। उसने सबसे पहले अपनी पुरानी साइकिल पर 'पार्षद पद हेतु' के पोस्टर चिपकाए, जिन पर उसकी एक ऐसी तस्वीर थी, जिसमें वह 'मुस्कुरा' कम रहा था और 'दांत' ज़्यादा दिखा रहा था। पोस्टर पर लिखा था, "जनता का सेवक, चंपकलाल!" जबकि जनता को पता था कि वह सेवक कम, 'सेवई' ज़्यादा खाता है। उसने दो बेरोज़गार युवाओं को 'समर्थक' के तौर पर काम पर रखा, जिन्हें वह हर सुबह 'चाय और समोसे' का लालच देकर 'जय-जयकार' करवाता था। ये दोनों युवा भी ऐसे थे कि 'जय हो चंपकलाल!' बोलने से पहले 'समोसे का साइज़' नापते थे। चंपकलाल ने मोहल्ले की हर नुक्कड़ पर, हर गली के मोड़ पर, हर चाय की दुकान पर अपनी 'ओजस्वी' भाषणबाजी शुरू की। उसकी आवाज़ इतनी 'ओजस्वी' थी कि मोहल्ले के कुत्ते भी भौंकना बंद कर देते थे, शायद उन्हें लगता था कि कोई नया 'शिकारी' आ गया है। वह अपने भाषणों में बड़े-बड़े नेताओं की नकल करता, कभी नेहरू की 'शांति' की बात करता तो कभी गांधी के 'सत्य' की, पर उसकी बातें इतनी 'गोल-मोल' होती थीं कि जनता को लगता था, यह 'गोलगप्पे' बेचने आया है। एक बार तो उसने 'भ्रष्टाचार मुक्त रामभरोसे नगर' का नारा दिया, तो पीछे से एक बुज़ुर्ग ने पूछ लिया, "बेटा, पहले अपनी जेब का छेद तो भर ले!" चंपकलाल का 'जनता से सीधा संवाद' अक्सर 'जनता के सीधे सवालों' में बदल जाता था, और वह हर बार 'अंगूर खट्टे हैं' वाली मुद्रा में आ जाता था। उसकी पत्नी ललिता देवी, जो उसकी 'फाइनेंस मैनेजर' भी थीं, हर शाम हिसाब लगातीं कि कितने 'समोसे' और कितनी 'चाय' में कितने 'वोट' खरीदे जा सकते हैं। उन्हें पता था कि चंपकलाल का 'विजन' बड़ा है, पर 'वॉलेट' छोटा। यह सब देखकर लगता था, चंपकलाल चुनाव नहीं, बल्कि 'कॉमेडी शो' लड़ रहा है, जिसमें दर्शक कम, 'कलाकार' ज़्यादा हैं।

इसे भी पढ़ें: पर्यटक होने का मज़ा (व्यंग्य)

चंपकलाल का 'आदर्शवाद' धीरे-धीरे 'व्यवहारिकता' की दलदल में धँसने लगा। उसे पता चला कि चुनाव सिर्फ़ 'भाषणबाजी' से नहीं, बल्कि 'खर्चा-पानी' से भी जीते जाते हैं। "अरे! यह तो 'पैसे का खेल' है!" उसने एक दिन अपनी पत्नी से कहा, जब एक 'वोट-ठेकेदार' ने उससे 'प्रति वोट' की कीमत पूछी। चंपकलाल को लगा, वह कोई 'सब्ज़ी मंडी' में आ गया है, जहाँ 'टमाटर' की तरह 'वोट' भी बिकते हैं। उसे 'फंडिंग' की ज़रूरत पड़ी, तो वह बड़े-बड़े 'उद्योगपतियों' के पास गया, पर सबने उसे ऐसा देखा जैसे वह 'एलियन' हो। एक ने तो साफ़ कह दिया, "भाई साहब, हम सिर्फ़ 'विनिंग हॉर्स' पर दाँव लगाते हैं, 'गधे' पर नहीं!" चंपकलाल को यह सुनकर ऐसा लगा जैसे किसी ने उसके 'आत्मसम्मान' पर 'बम' फोड़ दिया हो। फिर उसे 'गठबंधन की राजनीति' का पाठ पढ़ाया गया। उसे समझाया गया कि रामभरोसे नगर में 'जातिगत समीकरण' और 'वोट बैंक' का खेल कितना पेचीदा है। उसे कहा गया कि उसे 'दागी नेताओं' से भी हाथ मिलाना होगा, क्योंकि 'गंगा' में डुबकी लगाने के लिए 'गंदा पानी' भी ज़रूरी होता है। चंपकलाल का 'शुद्ध' मन इस 'अशुद्ध' राजनीति को देखकर घबरा गया। उसे लगा, यह तो 'अंगूर' नहीं, 'विषैले फल' हैं, जिन्हें खाने से 'पेट' खराब हो जाएगा। उसके आदर्शवाद की 'दीवारें' एक-एक करके ढहने लगीं, जैसे किसी पुराने मकान की प्लास्टर। वह कभी 'गांधीवादी' बनने की कोशिश करता तो कभी 'क्रांतिकारी', पर हर बार 'हास्य का पात्र' बनकर रह जाता। उसकी 'भोली' आँखें अब 'चालाक' होने की कोशिश कर रही थीं, पर 'कुदरत' ने उसे 'चालाक' बनाया ही नहीं था। वह 'समझौता' करने की कोशिश करता, पर हर बार 'समझौता' ही उससे 'समझौता' कर लेता। उसे लगने लगा कि यह 'कुर्सी' तो 'मायाजाल' है, जिसमें फँसकर अच्छे-अच्छे 'राक्षस' बन जाते हैं।

जनता, जो कई 'चुनावों' का 'तमाशा' देख चुकी थी, अब चंपकलाल जैसे 'नए खिलाड़ी' पर कोई 'भाव' नहीं दे रही थी। उसके भाषणों पर लोग ऐसे झपकी लेते थे, जैसे वह कोई 'लोरी' सुना रहा हो। "अरे! फिर आ गया ये 'भाषणवीर'!" लोग आपस में फुसफुसाते। चंपकलाल जब 'रामभरोसे नगर के विकास' की बात करता, तो लोग पूछते, "पहले अपने घर की 'नाली' तो साफ़ करवा लो!" उसकी 'भावुक' अपीलें भी 'बेअसर' थीं। वह कहता, "मैं आपके लिए 'जान' दे दूँगा!" तो पीछे से कोई कहता, "पहले अपनी 'जेब' तो भर लो!" जनता को 'ज्ञान' नहीं, 'काम' चाहिए था। वे 'वादे' नहीं, 'वोट' के बदले 'पार्टी' चाहते थे। चंपकलाल जब 'परिवर्तन' की बात करता, तो लोग कहते, "भाई साहब, 'परिवर्तन' तो हमने बहुत देखे, अब सिर्फ़ 'परेशानी' दिखती है!" उसकी हर कोशिश पर जनता का 'ठहाका' लगता, या फिर 'उपेक्षा' का 'पहाड़' टूट पड़ता। उसे लगने लगा था कि वह 'अंगूर' तोड़ने नहीं, बल्कि 'पत्थर' तोड़ने आया है। लोग उसे देखकर ऐसे मुँह फेर लेते थे, जैसे वह कोई 'भूत' हो। चंपकलाल ने एक बार एक बुज़ुर्ग महिला से वोट माँगा, तो उसने कहा, "बेटा, तेरा चेहरा तो 'भोला' है, पर 'नेता' का चेहरा 'भोला' नहीं, 'ठोला' होना चाहिए!" यह सुनकर चंपकलाल को ऐसा लगा जैसे किसी ने उसके 'सपनों' पर 'ठोकर' मार दी हो। जनता की 'उदासीनता' और 'व्यंग्यात्मक' टिप्पणियाँ उसके 'आत्मविश्वास' को 'दीमक' की तरह चाट रही थीं। उसे समझ आ रहा था कि वह जिस 'कुर्सी' के पीछे भाग रहा है, वह असल में 'जनता की उम्मीदों' का 'कब्रिस्तान' है।

फिर चुनावी अखाड़े में उतरे असली 'शेर', यानी 'श्रीमान धनपतराय'। धनपतराय, जिनके पास 'पैसा' भी था, 'पावर' भी थी, और 'पार्टी' भी थी। उनकी रैलियाँ ऐसी होती थीं, जैसे कोई 'फ़िल्म का प्रीमियर' हो, जहाँ 'जनता' नहीं, 'भीड़' आती थी। बड़े-बड़े 'एलईडी स्क्रीन' पर धनपतराय का 'मुस्कुराता' चेहरा दिखता, और नीचे 'डीजे' पर 'चुनावी गाने' बजते। चंपकलाल के 'साइकिल वाले पोस्टर' धनपतराय के 'हवाई जहाज़ वाले पोस्टरों' के आगे ऐसे लगते थे, जैसे किसी ने 'टॉर्च' के सामने 'सूरज' रख दिया हो। धनपतराय के पास 'कार्यकर्ताओं' की फ़ौज थी, जो हर घर में 'पहुँच' बनाती थी, जबकि चंपकलाल के पास सिर्फ़ दो 'समोसा-प्रेमी' युवा थे। मीडिया भी धनपतराय के पीछे ऐसे भागती थी, जैसे 'भूखी बिल्ली' दूध के पीछे। चंपकलाल को लगा, वह 'अंगूर' तोड़ने नहीं, बल्कि 'अंगूरों के बाग' में 'घास' काटने आया है। उसे अपनी 'अस्तित्वहीनता' का एहसास हुआ। वह एक 'छोटे से तालाब' की मछली था, जो 'समुद्र' में आ गई थी। धनपतराय की 'चमक' इतनी तेज़ थी कि चंपकलाल की 'रोशनी' कहीं गुम हो गई थी। वह जब भी धनपतराय की रैली देखता, तो उसे लगता था, यह 'चुनाव' नहीं, 'शोषण' है। उसकी 'छोटी सी आवाज़' धनपतराय के 'बुलडोज़र' के आगे 'चींटी' की आवाज़ जैसी लगती थी। उसे लगा, यह 'कुर्सी' तो 'अमीरों का खेल' है, जहाँ 'गरीब' सिर्फ़ 'खिलौना' बन कर रह जाता है। उसकी आँखों में 'आँसू' नहीं, बल्कि 'असहायता' का 'सागर' उमड़ रहा था।

चंपकलाल अब 'हताशा' के गहरे कुएँ में गिर चुका था। उसकी 'उम्मीदों' का 'दिया' बुझने की कगार पर था। उसने 'अंतिम दाँव' खेलने शुरू किए, जो 'हास्यास्पद' कम, 'दयनीय' ज़्यादा थे। एक बार उसने 'अनशन' पर बैठने का ऐलान किया, "जब तक रामभरोसे नगर का विकास नहीं होगा, तब तक अन्न-जल त्याग दूँगा!" पर दो घंटे बाद ही उसे 'भूख' लग गई और वह एक 'समोसे की दुकान' पर 'समोसे' खाता पकड़ा गया। जनता ने उसे देखकर 'ठहाके' लगाए, "अरे! ये कैसा 'गांधीवादी' है, जो 'समोसे' से 'समझौता' कर लेता है!" फिर उसने 'पदयात्रा' निकाली, "जनता से सीधा जुड़ने के लिए!" पर वह 'रास्ता' भटक गया और 'शमशान घाट' पहुँच गया। वहाँ उसे देखकर 'भूत' भी हँस पड़े। एक बार उसने 'डिबेट' में हिस्सा लिया, जहाँ उसे 'राजनीति के धुरंधर' नेताओं के सामने बोलना था। चंपकलाल ने 'ज्ञान' बघारना शुरू किया, पर 'घबरा' गया और 'पानी-पानी' हो गया। उसके मुँह से ऐसे शब्द निकले, जिन्हें सुनकर दर्शक 'हँसते-हँसते लोटपोट' हो गए। उसकी पत्नी ललिता देवी ने उसे रोकने की बहुत कोशिश की, "अरे! बस करो, घर का 'चूल्हा' भी तो देखना है!" पर चंपकलाल पर 'चुनाव का भूत' सवार था। उसने घर के 'गहने' बेचे, 'ज़मीन' गिरवी रखी, सब कुछ उस 'कुर्सी' के लिए, जो उसे 'दूर की कौड़ी' लग रही थी। वह 'कर्ज़' में डूबता जा रहा था, और उसकी 'हँसी' अब 'दर्द' में बदल चुकी थी। उसे लगा, वह 'अंगूर' नहीं, बल्कि अपनी 'ज़िंदगी' निचोड़ रहा है, और उससे सिर्फ़ 'खट्टा रस' निकल रहा है। उसकी आँखें 'लाल' हो चुकी थीं, और उसके चेहरे पर 'थकान' और 'हार' की 'गहरी लकीरें' खिंच चुकी थीं।

आखिरकार, वह 'महादिन' आ पहुँचा – 'चुनाव का परिणाम' वाला दिन। चंपकलाल सुबह से ही 'बेचैन' था, जैसे किसी 'परीक्षा' का 'रिज़ल्ट' आने वाला हो। उसके दिल की धड़कनें 'ढोल' की तरह बज रही थीं। जब 'मतगणना' शुरू हुई, तो वह 'टीवी' से ऐसे चिपका था, जैसे 'फेविकोल' से चिपका हो। एक-एक 'वोट' की गिनती उसे 'ज़िंदगी' और 'मौत' के बीच का 'फ़ासला' लग रही थी। जब 'परिणाम' घोषित हुए, तो चंपकलाल के 'सपनों' का 'महल' रेत के महल की तरह ढह गया। उसे 'कुल' मिलाकर इतने 'वोट' मिले थे कि 'NOTA' (नोटा) भी उससे ज़्यादा 'लोकप्रिय' था। 'पार्षद पद' की 'चमकती कुर्सी' पर 'श्रीमान धनपतराय' विराजमान हो गए, जैसे वह कुर्सी उन्हीं के लिए बनी थी। चंपकलाल को ऐसा लगा जैसे किसी ने उसके 'दिल' पर 'हथौड़ा' मार दिया हो। उसकी आँखें 'पथरा' गईं, और उसके मुँह से एक 'आह' भी नहीं निकली। जनता ने उसकी हार पर कोई 'अफ़सोस' नहीं जताया, बल्कि कुछ लोगों ने तो 'मज़ाक' भी उड़ाया, "अरे! ये तो पहले से ही पता था!" उसकी पत्नी ललिता देवी ने उसे देखा, उनकी आँखों में 'पछतावा' और 'करुणा' का 'सागर' उमड़ रहा था। चंपकलाल को लगा, वह 'चुनाव' नहीं, बल्कि अपनी 'ज़िंदगी' हार गया था। उसके 'सपनों' का 'जनाज़ा' निकल रहा था, और वह खुद उस जनाज़े का 'अकेला गवाह' था। उसके 'आत्मविश्वास' की 'लाश' पड़ी थी, और उसे उठाने वाला कोई नहीं था। उसे लगा, यह 'कुर्सी' तो 'शैतान' की कुर्सी थी, जिसने उसे 'बर्बाद' कर दिया। उसके चेहरे पर 'निराशा' और 'पीड़ा' की ऐसी 'छाप' थी, जिसे देखकर पत्थर भी 'पिघल' जाए।

चंपकलाल, अपने फटे हुए पोस्टरों और खाली जेब के साथ, अब अपने घर के आँगन में बैठा था। उसकी आँखें सूजी हुई थीं, पर अब उनमें 'आँसू' नहीं, बल्कि 'खालीपन' था। उसने एक गहरी साँस ली और अपनी पत्नी की ओर देखकर एक 'फिल्मी डायलॉग' मारा, "अरे ललिता! वो कुर्सी तो थी ही खट्टी! उसमें सिर्फ़ 'सेवा' का नाटक होता है, असली काम तो 'सेल्फ-सेवा' का है! अच्छा हुआ जो मुझे नहीं मिली, वरना मैं भी 'भ्रष्टाचार' के दलदल में फँस जाता!" उसकी आवाज़ में 'सत्य' कम, 'आत्म-छल' ज़्यादा था। वह खुद को और अपनी पत्नी को समझा रहा था कि उसने 'बड़ी आफ़त' से 'जान' बचा ली। पर उसके दिल के किसी कोने में 'हार' का 'ज़हर' धीरे-धीरे फैल रहा था। उसे याद आया, कैसे उसने उस कुर्सी के लिए अपने 'गहने' बेचे थे, कैसे 'कर्ज़' लिया था, और कैसे 'जनता' ने उसे 'धूल' चटा दी थी। उसकी पत्नी ने उसे देखा, उनकी आँखों से 'आँसू' बह रहे थे। वह जानती थी कि चंपकलाल 'झूठ' बोल रहा है, और यह 'झूठ' उसे 'अंदर से' खाए जा रहा है। चंपकलाल ने फिर से एक 'पंचलाइन' मारी, "जो अंगूर हाथ न आए, वो खट्टे ही होते हैं, क्या समझे?" पर इस बार उसकी 'हँसी' में 'दर्द' था, और 'दर्द' में 'सिसकियाँ'। वह अब 'व्यवस्था' के ख़िलाफ़ 'आवाज़' उठाता था, पर उसकी आवाज़ 'बैठी' हुई थी, और उसे सुनने वाला कोई नहीं था। वह रामभरोसे नगर की गलियों में घूमता, कभी 'भ्रष्टाचार' पर भाषण देता तो कभी 'जनता की उदासीनता' पर, पर कोई उसकी बात नहीं सुनता था। उसकी 'आँखों' में अब 'सपनों' की जगह 'पछतावा' था, और उसके 'चेहरे' पर 'हार' की 'अमिट छाप'। पाठक, अगर आप यह पढ़ रहे हैं, तो शायद आपके भी 'आँखों से आँसू' बह रहे होंगे, क्योंकि चंपकलाल की कहानी सिर्फ़ उसकी नहीं, बल्कि उन लाखों 'आम आदमियों' की कहानी है, जो 'सत्ता की खट्टी चाशनी' के पीछे भागते हैं और अंत में 'खाली हाथ' रह जाते हैं। उसकी 'आह' सिर्फ़ उसकी नहीं, बल्कि हर उस 'टूटे हुए सपने' की 'आह' थी, जो इस 'दुनिया' में 'दम' तोड़ देता है।

- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

All the updates here:

अन्य न्यूज़