पर्यटक होने का मज़ा (व्यंग्य)

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संतोष उत्सुक । Jul 30 2025 4:07PM

कहीं जाना हो, रास्ते में सुरंग हो, उस सुरंग में किसी दूसरी गाड़ी को खतरनाक ढंग से ओवरटेक करते हुए बना वीडियो तत्काल वायरल हो जाए तो बहुत मज़ा आता है। ऐसा करने के बाद पकडे जाने पर ट्रैफिक पुलिस से चालान करवाओ, पैसे नकद या ऑनलाइन भरो तो शरीर में मज़ा ही मज़ा भर जाता है।

पर्यटन करने, पर्यटकीय प्रबंधन का क्रियान्वन करवाने और वास्तव में घुमाने फिराने वालों का अपना अपना अंदाज़ है। जब तक किसी प्रसिद्ध जगह पर इंसानों और गाड़ियों की भीड़ इक्कठी न हो मज़ा नहीं आता। लंबे जाम लगना बहुत ज़रूरी है। बरसात में सड़क पर मलबा गिर जाना या बाज़ारों में पानी भरना यात्रा का रोमांच बढ़ाने के लिए लाजमी है। सड़कें अच्छी बनी हों उनकी मरम्मत होती रहे तो ऐसा ख़ास अनुभव संभव ही नहीं है। पाप धोने के बहाने, घूमने फिरने आने वाली भीड़ में जब तक शोर न हो, पंगा न हो, लड़ाई झगड़ा न हो और अफवाह के कारण दो चार की मौत न हो तो एक बार मिली ज़िंदगी का भरपूर आनंद नहीं आता। यात्रा इन सब के बिना संपन्न हो जाए तो मज़ा आता तो है लेकिन कमी रह जाती है, मतलब असली मज़ा नहीं आता।

कहीं जाना हो, रास्ते में सुरंग हो, उस सुरंग में किसी दूसरी गाड़ी को खतरनाक ढंग से ओवरटेक करते हुए बना वीडियो तत्काल वायरल हो जाए तो बहुत मज़ा आता है। ऐसा करने के बाद पकडे जाने पर ट्रैफिक पुलिस से चालान करवाओ, पैसे नकद या ऑनलाइन भरो तो शरीर में मज़ा ही मज़ा भर जाता है। इस बारे खबर अखबारों में छप जाए और अतिसामाजिक मीडिया पर भी छा जाएं तो अलग ऊंचे किस्म का लुत्फ़ आता है। लाइन में खड़े होकर चलना अभी भी गलत बात है। दूसरों पर चढ़कर, यहां से वहां पहुंच जाना, पारम्परिक किस्म  का पर्यटन आनंद है। 

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अपने पाप धोने के नाम पर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाना छोटी सी बात है। हम विश्वगुरु समाज के लोग हैं। थोडा बहुत इधर उधर हो जाए या ज्यादा भी उधर हो जाए तो बुरा नहीं मानते। कुदरत ने हमारे यहां इतना कुछ खूबसूरत बनाया है तो हम पर्यटन का मनमाना मज़ा लेने और देने में पीछे क्यूं रहें। हम उन जैसे तो हो नहीं सकते जो अति पर्यटन का विरोध करते हैं। पर्यटकों की हरकतों के खिलाफ नारे लगाते रहते हैं। उनमें से कुछ लोग ऐसे हैं जो अपनी बची हुई ज़िंदगी भी पारम्परिक तरीके से शांति से जीना चाहते हैं। उन्हें लगता है पर्यटकीय मस्ती करने वाले लोग उनकी ज़िंदगी में खलल डाल रहे हैं।  

हमारे यहां तो स्थानीय लोग ही बाग़, पार्क, झील, तालाब, पुरानी इमारतों का बेड़ा गर्क कर देते हैं। जहां चाहें कचरा, बोतलें, चिप्स के खाली पैकेट, गत्ते के डिब्बे फेंक देते हैं। बैनर पोस्टर यहां वहां चिपकाकर, लगाकर, उतारकर संतुष्ट होते हैं। पर्यटक बनकर आने वालों को ज्यादा कुछ करने की ज़रूरत नहीं पड़ती, वे आते हैं और परेशान होकर जाते हैं। घंटों लम्बे जाम, पार्किंग की कमी में खड़े खड़े, बन्दर कुत्तों गायों या दूसरे जानवरों की खुराफातों के कारण, डर साथ में चिपका रहता है। वैसे पर्यटकों की भीड़ के लिए सड़कें चौड़ी कर दी हैं, जिनके साथ लगते पहाड़ों की खोदाई अवैज्ञानिक ढंग से होने दी है। पहाड़ों का सीना चीर फाड़ कर सुरंगें बना दी हैं। पर्यटक महास्पीड से आएं, कुछ घंटों में मिशन पर्यटन पूरा कर तेज़ी से वापिस निकल जाएं। पर्यटकों को विकासजी के साथ अपनी आदतें भी बदलनी पड़ेंगी। पर्यटक होने का मज़ा लेने की कुछ सज़ा भी भुगतनी पड़ेगी। 

- संतोष उत्सुक

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