कैसी पढ़ाई (व्यंग्य)

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Prabhasakshi

कुछ दिनों से वह लड़का मुझे दिखाई नहीं दिया। एक रात स्थानीय टीवी चैनल के समाचार में उसे पुलिस के हत्थे चढ़ते देखा। उसके अगल-बगल में दो-चार पुलिस वाले खड़े थे। इंस्पेक्टर साहब मीडिया के सामने उसकी रामायण कथा बांच रहे थे।

मेरे पड़ोस में एक लड़का रहता था। उसकी पढ़ाई-लिखाई देखकर स्कूल वालों से पहले मैंने ही उसका रिजल्ट आउट कर दिया था। कहने का मतलब यह कि किताबों को देखकर वह ऐसे भागता जैसे चूहा बिल्ली को देखकर। मैंने कई बार उसके मुँह पर कह दिया कि तेरा कुछ नहीं हो सकता। लेकिन वह क्या है न कि कुछ मुहावरे पढ़ने भर से समझ नहीं आते। उसे अनुभव करना पड़ता है। मसलन दही का छांछ हो जाने का अर्थ मुझे तब समझ में आया जब गधे-घोड़ों को इंजिनियरी के सीटें ठेले के भाव पर मिलने लगीं। सो पड़ोसी लड़के को भी इंजिनियरी की सीट मिल गई। अब वह मेरे सामने से ऐसे गुजरता जैसे कोई बड़ा तीर मार लिया हो। यह सब देख मुझे तब समझ आया कि इस देश की शिक्षा व्यवस्था घोड़े को गधा और गधे को घोड़ा बनाने का पूरा माद्दा रखती है। अब हालात ऐसे हैं कि किसे कौन सी डिग्री मिल जाए यह ऊपर वाला भी नहीं बता सकता।

कुछ दिनों से वह लड़का मुझे दिखाई नहीं दिया। एक रात स्थानीय टीवी चैनल के समाचार में उसे पुलिस के हत्थे चढ़ते देखा। उसके अगल-बगल में दो-चार पुलिस वाले खड़े थे। इंस्पेक्टर साहब मीडिया के सामने उसकी रामायण कथा बांच रहे थे। उनके अनुसार– आजकल कुछ इंजिनियरी के लड़के अपने कोर्स को छोड़कर बाकी सभी कोर्सों में अपना दमखम दिखा रहे हैं। मसलन चोरी करना, हाथापाई करना, लूटना, खून करना आदि-आदि। यह नवाबजादे उसी कौम के हैं। महाशय परीक्षा में नकल करने की कला में इतनी महारत हासिल कर चुके हैं कि बेखौफ इस चालबाजी की ऑनलाइन दुकान खोलकर रुपया बटोर रहे हैं। न जाने कैसे-कैसे पैंतरे अपनाकर नाक-कान-मुँह यहाँ तक कि बालों में माइक्रोफोन चिप छिपाकर परीक्षाओं में नकल के सहारे सफल होने के गुर सिखा रहे हैं।

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हमारे देश में सब कुछ संभव है। कई व्यक्ति हैं जो इंजीनियर, डॉक्टर, वैज्ञानिक बनने को तो बन जाते हैं, लेकिन गुमनामी के अंधेरे में। ऐसे बंदे रोजगार से ज्यादा जुगाड़गार बनते हैं। जुगाड़ी में इनकी काबिलियत का कोई सानी नहीं होता। ये अपनी डिग्री को कागज और खुद को ऐसे कागजों का पुलिंदा समझते हैं। उजाले की पढ़ाई सही और अंधेरे की पढ़ाई काले कारनामों की ओर ले जाने के लिए होती हैं। पढ़ाई जब व्यवस्था के कपड़े पर दिखावे की कढ़ाई बन जाएँ तो उसे उतार फेंकना ही सही कदम होता है। अब पढ़ाई के माइक्रोस्कोप में नौकरी या फिर धोखाधड़ी के कीटाणु ही दिखाई देते हैं। आदर्श नागरिक कहलाने वाले जीवाणु केवल कथनी बनकर रह गए हैं। शिक्षा से अच्छा और अच्छे से सच्चा बनने की व्यवस्था में कुछ पुर्जे गलत बैठ जाएँ तो वे समाज के नाक में दम करके रख देते हैं। हमारी शिक्षा में जब तक अंक की होड़ है तब तक शिक्षार्थी अंक के पीछे ही दौड़ेगा। चूंकि सभी जानते हैं कि आदर्शों के पीछे दौड़ने से भूख, प्यास और जरूरतें पूरी नहीं होती। इसीलिए आदर्शों को गुमनामी की दीवार पर बहुत ऊपर टांग दिया गया है। दुर्भाग्य से पुलिस ऐसी खराब सोच वाले लोगों को तो पकड़ सकती है, लेकिन उनकी सोच को नहीं।  

- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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