जिन्ना को जवाब देने की नेहरू की जिद, जिसने आज तक कश्मीर में अशांति पैदा कर रखी, बाकी कसर UN जाने वाले स्टैंड ने पूरी कर दी

UN Nehru
अभिनय आकाश । Mar 24 2022 6:29PM

सल 1949 में संयुक्त राष्ट्र में जम्मू कश्मीर के लोगों को जमनत संग्रह का अधिकार दिया था। ये भारत सरकार की बड़ी भूल की वजह से हुआ था। वर्ष 1947 में जम्मू कश्मीर के भारत में विलय को संयुक्त राष्ट्र की मदद से सुलझाने की कोशिश की गई

26 अक्टूबर 1947, अमर पैलेस, जम्मू... "मैं महाराजा हरि सिंह जम्मू और कश्मीर को हिंदुस्तान में शामिल होने का ऐलान करता हूं।" इन लफ्जों के साथ महाराजा ने अपनी रियासत को हिंदुस्तान में शामिल होने के लिए एग्रीमेंट पर साइन कर दिया। इन शब्दों के साथ ही जम्मू और कश्मीर का मसला हमेशा के लिए खत्म हो जाना चाहिए। लेकिन ऐसा हुआ नहीं और ऐसा क्यों नहीं हुआ? इसके लिए कौन जिम्मेदार है? कुछ लोग कहते हैं महाराजा हरि सिंह ने देर कर दी, इसलिए हम लोग कश्मीर समस्या को आज तक सुलझा नहीं पाए। कुछ लोग कहते हैं पंडित नेहरू यूएन चले गए, इसलिए आज तक हमारे सामने यह समस्या है तो कुछ लोग कहते हैं कि यह समस्या पाकिस्तान ने बनाई है। बजट सत्र चल रहा है और देश के माननीय लोक कल्याण के मुद्दों को लेकर लोकतंत्र के मंदिर कहे जाने वाले संसद में विभिन्न मुद्दों पर चर्चा कर रहे हैं। लेकिन संसद में इन दिनों कश्मीर को लेकर चर्चा खूब हो रही है। कश्मीर का जिक्र होता है तो पंडित नेहरू का भी खूब जिक्र होता है और संयुक्त राष्ट्र व जनमत संग्रह का भी। केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने आरोप लगाया कि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में ले जाकर इसका अंतरराष्ट्रीयकरण किया। इसका दुरुउपयोग पड़ोसी देश आज भी कर रहा है।

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क्या कहा वित्त मंत्री ने 

सीतारमण ने कहा, 'कांग्रेस ने (कश्मीर) मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण किया था। वह हमारे पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू जी थे जो इसे दिसंबर 1947 में संयुक्त राष्ट्र में ले गए थे। क्यों? हमारा पड़ोसी देश (पाकिस्तान) इसका अभी भी दुरुपयोग कर रहा है। आखिर इसके लिए जिम्मेदार कौन है?' 

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने जिस बात का जिक्र किया और इतिहास के तथ्यों का हवाला दिया वो वास्तविकता से काफी करीब भी है। वैसे संयुक्त राष्ट्र और इस मंच पर कश्मीर का मुद्दा कोई नया नहीं है। शुरुआती दौर से ही ये मुद्दा वैश्विक मंच पर उठता रहा है। जिसकी बड़ी वजह भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू रहे हैं। कश्मीर को लेकर नेहरू की नीतियों को लेकर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं। पाकिस्तान के कबायलियों के भेष में हमले से लेकर यूएन जाने के स्टैंड तक। पूरे मामले को समझने के लिए हम आपको थोड़ा इतिहास में लिए चलते हैं। वो इतिहास जब भारत आजादी को प्राप्त तो नहीं किया था लेकिन इसके बहुत करीब भी था। 

शेख अब्दुल्ला की रिहाई के लिए महाराजा हरि सिंह से भिड़ गए नेहरू

 जून 1947 का दौर जब न केवल ब्रिटिश भारत छोड़ रहे थे बल्कि भारत में भी नई व्यवस्था तैयार हो रही थी। हरि सिंह जम्मू कश्मीर को पाकिस्तान से जोड़ना नहीं चाहते थे। महाराजा को अब भारत में अंग्रेजों से नहीं बल्कि पंडित नेहरू के साथ संबंध जोड़ना था और उनकी छत्रछाया में रहना था। दूसरी तरफ नेहरू महाराजा के फैसले लेने के अख्तियार पर ही सवाल उठा रहे थे। उनकी नजर में शेख अब्दुल्लाह ही जम्मू-कश्मीर के भविष्य का फैसला कर सकते थे, जिन्हें महाराजा हरि सिंह ने जेल में बंद करवा रखा था। बता दें कि शेख अब्दुल्ला ने महाराजा हरी सिंह के खिलाफ "क्विट कश्मीर" आंदोलन चलाया जिसके बाद महाराजा हरि सिंह ने 1946 में शेख अब्दुल्ला को जेल में बंद कर दिया था। अपने परम मित्र को छुड़ाने के लिए पंडित नेहरू खुद ही कश्मीर की ओर रवाना हो गए। महाराजा हरि सिंह को ये बात नागवार गुजरी और उन्होंने पंडित नेहरू के कश्मीर आने पर ही प्रतिंबध लगा दिया। नेहरू ने जब कश्मीर में दाखिल होने की कोशिश की तो महाराजा हरि सिंह ने उनकी गिरफ्तारी के आदेश दे दिए। लेकिन बाद में जवाहरलाल नेहरू की कोशिशों से शेख अब्दुल्ला जेल से रिहा हो गए।

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जिन्ना को जवाब देने की जिद बाद में बन गई अशांति की बड़ी वजह

शेख अब्दुल्ला कश्मीर के लोकप्रिय नेता थे और पंडित नेहरू से भी उनके रिश्ते थे। पंडित नेहरू ने सोचा कि शेख अब्दुल्ला कश्मीरी आवाम का नेतृत्व करते हैं। उनकी रिहाई से पूरी दुनिया में संदेश जाएगा कि जो भी फैसला हुआ है वो सभी की सहमति से हुआ है। जिसके पीछे का बड़ा कारण जिन्ना की टू नेशन वाली थ्योरी का काउंटर था। राजनीतिक जानकार बताते हैं कि नेहरू ये दिखाना चाहते थे कि मुस्लिम बहुल कश्मीर की जनता भारत के साथ है और उनके चर्चित नेता शेख अब्दुल्ला भी भारत की बात करते हैं। कश्मीर के मामले में जवाहरलाल नेहरू की कुछ गलतियों की वजह से कश्मीर में शेख अब्दुल्ला का कद लगातार बढ़ता रहा। लेकिन जिन्ना को जवाब देने वाला स्टैंड आज तक जम्मू कश्मीर में अशांति की वजह बना हुआ है। जम्मू-कश्मीर का प्रधानमंत्री बनने के कुछ महीनों बाद ही शेख अब्दुल्ला ने पाकिस्तान की जुबान बोलनी शुरू कर दी। फिर 1953 में उन्हें जेल में डाल दिया गया। 

आजादी के बाद से ही पाक हमले की फिराक में था

आजादी के बाद से ही पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर पर हमला करने की फिराक में था। पाकिस्तानी हमले की रूपरेखा से जुड़ा एक पत्र संयोगवश मेजर ओएस कल्लत के हाथ लग गया। उस समय वह पाकिस्तानी इलाके बन्नू में थे। उन्होंने तुरंत भारत आकर आगाह किया। यह जानकर पटेल और तत्कालीन रक्षा मंत्री बलदेव सिंह घुसपैठियों से निपटने के लिए पाक से लगी जम्मू-कश्मीर सीमा पर सेना भेजना चाहते थे, लेकिन नेहरू इसके लिए राजी नहीं हुए। इसे भी राजनीति के जानकार एक बड़ी ऐतिहासिक भूल करार देते हैं। जिससे बाद के वर्षों में भी नेहरू ने कायम रखा। 

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संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर मुद्दा 

सल 1949 में संयुक्त राष्ट्र में जम्मू कश्मीर के लोगों को जमनत संग्रह का अधिकार दिया था। ये भारत सरकार की बड़ी भूल की वजह से हुआ था। वर्ष 1947 में जम्मू कश्मीर के भारत में विलय को संयुक्त राष्ट्र की मदद से सुलझाने की कोशिश की गई। जबकि ये घरेलू मामला था। आजादी के तुरंत बाद अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया था और भारत के बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया था। जवाब में भारत की सेना पाकिस्तान से कश्मीर के वो सारे इलाके जीतकर लगातार आगे बढ़ रही थी। तभी अचानक प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने युद्ध विराम का ऐलान कर दिया। दुनिया में यह एकलौता उदाहरण है जहां जीतती हुई सेना को युद्ध विराम के कारण पीछे लौटना पड़ा। अचानक हुए इस फैसले से पाकिस्तान को जम्मू कश्मीर के एक बड़े हिस्से पर कब्जा करने का मौका मिल गया और युद्ध खत्म होने से पहले ही 1948 में जवाहर लाल नेहरू कश्मीर का मामला लेकर स्वयं ही संयुक्त राष्ट्र में चले गए और यहीं उनकी भूल थी। इस वजह से पाकिस्तान को पीओके से हटाया नहीं जा सका। जिसका नतीजा है कि पाकिस्तान कश्मीर को आज भी भारत के खिलाफ इस्तेमाल कर रहा है।  

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माउंटबेटन का विश्वास

यह अच्छी तरह से प्रलेखित है कि 15 अगस्त, 1947 से 21 जून, 1948 तक स्वतंत्रता के बाद भारत के पहले गवर्नर लॉर्ड माउंटबेटन थे। उनका मानना था कि  तत्कालीन नव-स्थापित संयुक्त राष्ट्र कश्मीर विवाद को सुलझाने में मदद कर सकता है। माउंटबेटन ने 1 नवंबर 1947 को लाहौर में दो लोगों के बीच एक बैठक में मुहम्मद अली जिन्ना को यह सुझाव दिया था। अगले महीने नेहरू के लाहौर में लियाकत अली खान से मिलने के बाद, माउंटबेटन को यकीन हो गया कि एक मध्यस्थ की जरूरत है। कश्मीर इन कॉन्फ्लिक्ट के अनुसार उन्होंने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि मैंने महसूस किया कि गतिरोध पूरा हो गया था और अब एकमात्र रास्ता किसी तीसरे पक्ष को किसी न किसी क्षमता में लाना था। इस उद्देश्य के लिए मैंने सुझाव दिया कि संयुक्त राष्ट्र संगठन को बुलाया जाए। नेहरू की सबसे बड़ी भूल ये थी कि उन्होंने कश्मीर के मुद्दे पर सरदार पटेल को विश्वास में नहीं लिया और आज़ाद भारत के पहले गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन पर ज़रूरत से ज़्यादा भरोसा करते हुए कश्मीर पर जनमत संग्रह करवाने का फैसला ले लिया। विक्टोरिया शॉफिल्ड ने कश्मीर विवाद के अपने मौलिक इतिहास में लिखा है कि भारत पाकिस्तान के साथ समान स्तर पर निपटने के लिए तैयार नहीं था।  दिसंबर 1947 के अंत में दोनों प्रधान मंत्री दिल्ली में फिर से मिले, तो नेहरू ने लियाकत अली खान को संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 35 के तहत इस विवाद को संयुक्त राष्ट्र को संदर्भित करने के अपने इरादे से अवगत कराया। नतीजतन, 31 दिसंबर, 1947 को, नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र महासचिव (तब नॉर्वे के ट्रिगवे लाई) को पत्र लिखकर जम्मू और कश्मीर में जनमत संग्रह को स्वीकार किया। उन्होंने कहा कि इस भ्रांति को दूर करने के लिए कि भारत सरकार जम्मू और कश्मीर में मौजूदा स्थिति का राजनीतिक लाभ लेने के लिए उपयोग कर रही है, भारत सरकार यह बहुत स्पष्ट करना चाहती है कि जैसे ही हमलावरों (पाकिस्तान समर्थित कबायली, जो भारत में प्रवेश कर चुके थे) कश्मीर घाटी) को खदेड़ दिया जाता है और सामान्य स्थिति बहाल हो जाती है, राज्य के लोग स्वतंत्र रूप से अपने भाग्य का फैसला करेंगे और यह निर्णय जनमत संग्रह या जनमत संग्रह के सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत लोकतांत्रिक साधनों के अनुसार लिया जाएगा।

संयुक्त राष्ट्र में मुद्दा

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने जनवरी 1948 में इस मामले को उठाया। न्यायविद सर जफरुल्ला खान ने पाकिस्तानी स्थिति के पक्ष में पांच घंटे तक बात की। सरदार वल्लभभाई पटेल के निजी सचिव वी शंकर ने अपने संस्मरण स्कोफिल्ड में कहा है कि भारत की तरफ से ब्रिटिश प्रतिनिधि, फिलिप नोएल-बेकर की भूमिका से नाखुश था, कहा जाता है कि परिषद को पाकिस्तान की स्थिति की ओर धकेल रहा था।  जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान की ओर से किए गए हमले की हमारी शिकायत पर सुरक्षा परिषद में चर्चा ने बहुत प्रतिकूल मोड़ ले लिया है। जफरुल्ला खान, ब्रिटिश और अमेरिकी सदस्यों के समर्थन से, उस शिकायत से ध्यान हटाकर जम्मू-कश्मीर के प्रश्न पर भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद की समस्या की ओर ध्यान हटाने में सफल रहा था। सरदार पटेल के निजी सचिव के अनुसार जम्मू कश्मीर  में पाकिस्तान के हमले को उसकी आक्रामक रणनीति के कारण पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया था। मानों जैसेहमने उसका मुकाबला करने के लिए कुछ नम्र और रक्षात्मक मुद्रा अपना रखी हो। 20 जनवरी, 1948 को, सुरक्षा परिषद ने विवाद की जांच के लिए भारत और पाकिस्तान के लिए संयुक्त राष्ट्र आयोग (यूएनसीआईपी) की स्थापना के लिए एक प्रस्ताव पारित किया और मध्यस्थता प्रभाव से कठिनाइयों को दूर करने की संभावना" को अंजाम दिया। सरदार पटेल नेहरू द्वारा  मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने से असहज थे, और उन्हें लगा कि यह एक गलती है। स्कोफिल्ड में उन्होंने लिखा कि न केवल विवाद लंबा चला गया है, बल्कि सत्ता की राजनीति की बातचीत में हमारे मामले की योग्यता पूरी तरह से खो गई है।

संयुक्त राष्ट्र चार्टर का अनुच्छेद 35

इस पर कुछ बहस हुई है कि क्या भारत ने संयुक्त राष्ट्र से संपर्क करने के लिए गलत रास्ता चुना है। 2019 में गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि भारत संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 35 के तहत संयुक्त राष्ट्र गया था जो विवादित भूमि से संबंधित है।अगर चार्टर के अनुच्छेद 51 के तहत संयुक्त राष्ट्र जाते तो यह भारतीय भूमि पर पाकिस्तान द्वारा अवैध कब्जे का मामला बनता। संयुक्त राष्ट्र के रिकॉर्ड के अनुसार भारत ने सुरक्षा परिषद को भारत और पाकिस्तान के बीच मौजूदा स्थिति की सूचना दी। जिसमें आक्रमणकारी, पाकिस्तान से सटे क्षेत्र के आदिवासी शामिल थे। संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 33-38 में छह अध्याय आते हैं, "पेसेफिक सेटलमेंट ऑफ डिस्प्यूट" जिसका शीर्षक है।

बहरहाल, पंडित नेहरू ने जो गलती की उसकी सजा जम्‍मू-कश्‍मीर दशकों से भुगत रहा है। पाकिस्‍तान भी लगातार नेहरू के उसी बात को हर मंच पर उठाता है, जिसके तहत उन्‍होंने यूएन का दरवाजा खटखटाया था।  

-अभिनय आकाश 

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