ब्रिटिश फरमान, ‘गॉड! सेव द क्वीन’ का गुणगान, अंग्रेजों की नींद उड़ाने वाला वंदे मातरम क्यों ना बन सका राष्ट्रगान?

19वीं सदी में बंगाल के सबसे जानी मानी हस्तियों में से एक बंकिम चंद्र चटर्जी ने एक बहुचर्चित उपन्यास आनंदमठ लिखा। वैसे तो यह उपन्यास 1882 में किताब का शक्ल ले सका। लेकिन बंकिम चंद्र चटर्जी ने इसे 1881 से ही अपनी मासिक पत्रिका वंग दर्शन में एक धारावाहिक के तौर पर छापना शुरू कर दिया था।
राजनीति में कुछ चीजें कभी पुरानी नहीं पड़ती है। आप उन्हें कभी भी कुरेद दो और सियासत शुरू हो जाती है। ऐसा ही हमारा राष्ट्र गीत वंदे मातरम है।आजादी से पहले भारतीयों को एक करने वाला ये गीत कई सालों से उन्हीं भारतीयों को बांटने के लिए काम में लिया जा रहा है। 'वंदे मातरम' को लेकर देश की राजनीति में एक बार फिर उबाल आ गया है। संसद के विशेष सत्र में राष्ट्रीय गीत के 150 साल पूरे होने पर लोकसभा में चर्चा हुई। प्रधानमंत्री ने अपना संबोधन भी दिया। वहीं 9 दिसंबर को राज्यसभा में भी ऐसी ही एक लंबी चर्चा की योजना है, जिसमें गृह मंत्री अमित शाह बोलेंगे।
क्या था अंग्रेजी फरमान
साल 1870 के दशक में ब्रिटिश हकूमत ने एक तुगलकी फरमान जारी किया। उन्होंने सरकारी समारोहों में ‘गॉड! सेव द क्वीन’ गीत गाया जाना अनिवार्य कर दिया था। उस वक्त ब्रिटिश प्रशासनिक सेवा में कई भारतीय अधिकारी भी थे। फरमान बंगाल की जमीन से ही आया था, इसलिए वहां इसे लेकर काफी सख्ती थी। यह बात सबसे अधिक नागवार गुजरी एक डिप्टी कलक्टर को, जो भारतीय था। अंग्रेजों के इसी आदेश और अनिवार्यता क्षुब्ध वह कलेक्टर उस रोज दफ्तर से निकल आया। सियालदह से ट्रेन ली और नैहाटी पहुंचने तक का सफर इन्ही विचारों से भरा रहा। रेलयात्रा के दौरान उमड़-घुमड़कर आते तमाम विचार शब्द बन गए और कागज-कलम का साथ पाते ही गीत के रूप में उभर आए।
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कैसे लिखा गया गीत
19वीं सदी में बंगाल के सबसे जानी मानी हस्तियों में से एक बंकिम चंद्र चटर्जी ने एक बहुचर्चित उपन्यास आनंदमठ लिखा। वैसे तो यह उपन्यास 1882 में किताब का शक्ल ले सका। लेकिन बंकिम चंद्र चटर्जी ने इसे 1881 से ही अपनी मासिक पत्रिका वंग दर्शन में एक धारावाहिक के तौर पर छापना शुरू कर दिया था। इस उपन्यास का मूल कथानक सन्यासियों के एक समूह पर फोकस था। जो अपनी मातृभूमि के लिए अपनी जिंदगी समर्पित कर देते हैं और ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंकते हैं। आनंद मठ में यह सन्यासी अपनी मातृभूमि को एकदेवी की तरह पूजते हैं और उसकी पूजा के लिए एक गीत गाते हैं। वंदे मातरम जिसमें मातृभूमि को मां दुर्गा की तरह चित्रित किया जाता है। बंकिम चंद्र चटर्जी का लिखा यह उपन्यास खूब पॉपुलर होता है। 1896 में कोलकाता में हुए कांग्रेस अधिवेशन में रवींद्रनाथ टैगोर के स्वर में पहली बार वंदे मातरम की सार्वजनिक प्रस्तुति होती है और फिर जल्द ही यह गीत आजादी के आंदोलन में जोश भरने का काम करने लगता है। साल 1905 में बंगाल विभाजन का विरोध कर रहा हर एक आंदोलनकारी यही गीत गा रहा होता है।
अंग्रेजों के मुखालिफत का बना सिंबल
बांग्ला और संस्कृत भाषा में लिखा यह गीत धीरे-धीरे पूरे देश तक फैल जाता है और अंग्रेजों के मुखालिफत का सिंबल बनता है। ऐसे में साल 1907 में अंग्रेज वंदे मातरम पर बैन लगा देते हैं। लेकिन वंदे मातरम का असल विरोध करता है मुस्लिम लीग। अंग्रेज कांग्रेस को तोड़ने के लिए बांटो और राज करो की नीति अपनाते हैं। हिंदू मुस्लिम में फूट डालकर आपस में लड़वाने की कोशिश करते हैं। जिसका उन्हें फायदा भी मिलता है और साल 1909 में अमृतसर में हुए कांग्रेस अधिवेशन में मुस्लिम लीग वंदे मातरम का ही विरोध करने लगती है। जर्मनी में तिरंगा फहराया जिस पर वंदे मातरम लिखा था। 17 अगस्त 1909 को जब मदन लाल ढींगरा को विलियम हर्ट कर्जन के मर्डर के इल्जाम में फांसी दी गई तो उनके आखिरी शब्द थे वंदे मातरम। आगे चलकर वंदे मातरम को लेकर मतभेद और विरोध भी सामने आने लगे। धीरे-धीरे राजनीति इस पर शुरू हुई। 1920 में बंगाली मैगज़ीन इस्लाम दर्शन में वंदे मातरम को मूर्ति पूजा का रूप बताया गया। 1928 में शरीयत इस्लाम मैगजीन में कहा गया कि वंदे मातरम मुसलमानों के लिए हराम है।
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मुसलमान वंदे मातरम को राष्ट्रीय गीत के रूप में नहीं स्वीकारा
1930 का दशक तब खत्म होने को था। कांग्रेस और मुस्लिम लीग के रिश्तों में लगातार दूरियां बढ़ रही थी। इसी दौर में वंदे मातरम गीत विवादों के केंद्र में आ गया। मुस्लिम लीग के एक बड़े तबके में वंदे मातरम के खिलाफ नाराजगी इतनी गहरी हो चुकी थी कि सीधे मोहम्मद अली जिन्ना इसमें कूद पड़े। जिन्ना की निजी डायरी में 1938 के कुछ नोट्स मिलते हैं। ये नोट्स उन्होंने जवाहरलाल नेहरू से होने वाली बातचीत के लिए तैयार किए थे। इन नोट्स के सबसे ऊपर तीन लाइनें लिखी थी। मुस्लिम मास कांटेक्ट मस्ट सीज, वंदे मातरम मस्ट गो, नेशनल फ्लैग मस्ट गो। संदेश साफ था कि मुसलमान वंदे मातरम को राष्ट्रीय गीत के रूप में नहीं मानेंगे। चाहे उसका बदला हुआ वर्जन ही क्यों ना हो।
वंदे मातरम को लेकर गांधी का बदलता स्टैंड
वंदे मातरम को लेकर गांधी जी का स्टैंड समय के साथ बदलता रहा है। पहले उनकी राय अलग थी। 1905 से 1915 के बीच गांधी वंदे मातरम के बड़े प्रशंसक थे। उन्होंने इसे देशभक्ति से बड़ा गाना बताया। 1905 में उन्होंने अपने अखबार इंडियन ओपिनियन में लिखा कि हमारा राष्ट्रीय गान बन गया है। 1915 में उन्होंने कहा कि बहुत ही खूबसूरती से कवि ने भारत माता को दर्शाया है। 1940 का दशक आते-आते गांधी का नजरिया वंदे मातरम को लेकर के डिफेंसिव हो गया। महात्मा गांधी ने अपने अखबार हरिजन में लिखा कि वह वंदे मातरम को राष्ट्रभावना से जोड़कर देखते हैं। उन्होंने माना कि वंदे मातरम उन्हें गहराई तक छूता है। पर उन्हें कभी ऐसा नहीं लगा कि यह सिर्फ हिंदुओं के लिए है।
वंदे मातरम क्यों नहीं बन सका राष्ट्रगान
भारत के राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम को भी राष्ट्रगान बनाने की बात कही जा रही थी। लेकिन उसे राष्ट्रीय गीत बनाया गया। जिसके पीछे ये तर्क दिया गया कि इसकी चार लाइन ही देश को समर्पित हैं। बाद की लाइने बंगाली भाषा में हैं और मां दुर्गा की स्तुति की गई है। किसी भी ऐसे गीत को राष्ट्रगान बनाना उचित नहीं समझा गया जिसमें देश का न होकर किसी देवी-देवता का जिक्र हो। इसलिए वंदे मातरम को राष्ट्रगान ना बनाकर राष्ट्रगीत बनाया गया।
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