अफगानिस्तान में सिखों के एक युग का अंत

विश्व पंजाबी संगठन दिल्ली, सिख गुरुद्वारा प्रबंधन समिति (डीएसजीएमसी) के साथ अफगानी हिंदुओं और सिखों को निकालने के लिए भारत सरकार के साथ बातचीत कर रहा है।
सोमवार को निकाले गए 46 अफगान सिख गुरु ग्रंथ साहिब के छह शेष स्वरूपों में से तीन को अपने साथ भारत ले गए। एसएडी (दिल्ली) के अध्यक्ष परमजीत सिंह सरना ने ट्वीट किया है कि अफगानिस्तान में सिखों के एक युग का अंत। आम धारणा के विपरीत कि सिख समुदाय वास्तव में वहां स्वदेशी है और इस क्षेत्र में उनका एक लंबा और गहरा इतिहास रहा है। इंदरजीत सिंह ने अपनी पुस्तक, 'अफगान में हिंदुओं और सिखों के एक हजार साल का इतिहास (2019) में कहा है कि खुरासान (मध्यकालीन अफगानिस्तान) में सिख धर्म की शुरूआत सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक के 15वीं शताब्दी के आस पास के दौरे से शुरू होता है।
मानवविज्ञानी रोजर बलार्ड ने अपने 2011 के शोध पत्र में बताया है कि इस क्षेत्र में सिख आबादी में स्वदेशी आबादी के वे सदस्य शामिल थे, जिन्होंने बौद्ध धर्म से इस्लाम में रूपांतरण का विरोध किया था। इस क्षेत्र में नौवीं और तेरहवीं शताब्दी के बीच और बाद में पंद्रहवीं शताब्दी के दौरान गुरु नानक की शिक्षाओं के साथ खुद को जोड़ा। 1504 में मुगल सम्राट बाबर ने काबुल पर कब्जा कर लिया और 1526 तक उत्तरी भारत में उसका राज था। काबुल हिंदुस्तान के प्रांतों में से एक बन गया और इसे बाबर द्वारा 'हिंदुस्तान का अपना बाजार' कहा गया। यह 1738 तक हिंदुस्तान का हिस्सा रहा, जब इसे फारसी शासक नादिर शाह ने जीत लिया। सिंह ने लिखा कि इस अवधि के दौरान सिख इतिहासकारों ने कई नाम और उदाहरण दर्ज किए हैं, पूर्वी पंजाब के सिख गुरुओं की शिक्षाओं का प्रसार पूरे अफगानिस्तान पर था।
तीसरे सिख गुरु, गुरु अमर दास के वंशज सरूप दास भल्ला द्वारा 18 वीं शताब्दी में लिखा गया, 'काबुली वाली माई' (काबुल की महिला) के नाम का उल्लेख है, जिन्होंने पूर्वी पंजाब के गोंदियावाल में बावड़ी खोदते समय सेवा की थी। इसी पाठ में भाई गोंडा का भी उल्लेख है, जिन्हें सातवें सिख गुरु की शिक्षाओं का प्रचार करने के लिए काबुल भेजा गया था और उन्होंने वहां एक गुरुद्वारा भी स्थापित किया था। अठारहवीं सदी के मध्य से लेकर 19वीं शताब्दी के मध्य तक की अवधि अफगान सिख संबंधों के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अवधि है। लगभग 101 वर्षों तक अफगान और सिख साम्राज्य पड़ोसी और विरोधी थे। 19वीं शताब्दी के शुरुआती दशकों तक महाराजा रणजीत सिंह ने दुर्रानी साम्राज्य के बड़े हिस्से को अधीन कर लिया था। हालांकि, 1848 -49 के दूसरे आंग्ल-सिख युद्ध के दौरान सिखों को अफगानों का समर्थन प्राप्त था, भले ही वे अंग्रेजों से हार गए थे।
19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में अंग्रेजों द्वारा सिख साम्राज्य के विलय के बाद ईसाई धर्मांतरण होने लगे और तब सिख सुधार आंदोलन स्थापित किया गया। आंदोलन का असर पूरे अफगानिस्तान में भी महसूस किया गया। अकाली कौर सिंह ने एक साल अफगानिस्तान में बिताया, घर-घर जाकर सिख धर्म का प्रचार किया। उनके मिशन ने इस क्षेत्र में कई गुरुद्वारों का निर्माण किया।
अफगानिस्तान से सिखों का पलायन
अफगान सिखों और हिंदुओं का पहला बड़ा पलायन 19वीं शताब्दी के अंत में अमीर अब्दुर रहमान खान के शासनकाल के दौरान हुआ था। अफगानिस्तान में खान के शासन को अंग्रेजों ने 'आतंक का शासन' कहा था। उन्हें लगभग 100,000 लोगों को फांसी दे दिया था। इस अवधि के दौरान कई हिंदुओं और सिखों ने प्रवास किया था और पंजाब में पटियाला के अफगान सिख समुदाय को तब स्थापित किया गया था। यह 1992 में था, जब मुजाहिदीन ने अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया था, तब सिखों और हिंदुओं का सबसे व्यापक पलायन शुरू हुआ था।
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