दिल्ली के रण से पहले भाजपा में मंथन, तिवारी पर खेलगी दांव या संगठन में होगा बड़ा बदलाव

delhi-assembly-election-bjp-conflict-manoj-tiwari-choosen-or-any-other
अभिनय आकाश । Aug 28 2019 3:35PM

भाजपा के लिए दिल्ली में अपने संगठन को एकजुट करना एक बड़ी चुनौती होगी। क्योंकि आतंरिक गुटबाजी और कलह की वजह से 15 साल तक सत्ता पर काबिज रहने वाली कांग्रेस के हश्र के रूप में बीजेपी के सामने एक बेमिसाल उदाहरण मौजूद है। एकजुटता का लिटमस टेस्ट करने के लिए उसके सामने अगले महीने होने वाले दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संघ चुनाव के रूप में एक बेहतरीन अवसर भी है। क्योंकि यह अक्सर देखा गया है कि छात्र संघ चुनाव खासकर दिल्ली के युवाओं का मिजाज बताते हैं।

देश की राजधानी दिल्ली जिसने पिछले एक साल के भीतर अपने तीन पूर्व मुख्यमंत्री खो दिए हैं। चाहे वो तीन बार की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित हो या दिल्ली की पहली महिला सीएम सुषमा स्वराज या फिर पूर्व सीएम मदन लाल खुराना। दिल्ली में विधानसभा चुनाव में छह महीने से भी कम वक्त शेष रह गया है। ऐसे में दिल्ली की जनता आगामी विधानसभा चुनाव में किसे गद्दी पर बिठाना चाहती है ये सबसे बड़ा और अहम सवाल है। क्योंकि दिल्ली के मिजाज को भांपना और वोटरों की पसंद को नाप पाना हमेशा से बेहद कठिन रहा है। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने बड़ी जीत हासिल की जिसके बाद से यह कयास लगाए जाने लगे कि इस जीत के बाद लग रहा है कि बीजेपी एकतरफा जा रही है। लेकिन विधानसभा चुनाव की आने वाली लड़ाई लोकसभा से कई मायनों में अलग होगी। लोकसभा चुनाव में बीजेपी फेवरेट पार्टी हो जाती है। लेकिन विधानसभा चुनाव में दिल्ली में अन्य पार्टियों पर ही जनता विश्वास करती है। 

इसे भी पढ़ें: दिल्ली भाजपा में सब कुछ ठीक नहीं, रमेश बिधूड़ी ने दिए मतभेद होने के संकेत

1998 से 2019 तक और 2020 में चुनाव है तो भाजपा के पास 22 साल का सियासी वनवास है। विधानसभा चुनाव में मोदी फैक्टर नहीं होगा। गुटबाजी की गफलत भी है जो भाजपा के लिए कहीं न कहीं मुश्किल पैदा कर सकती है। दिल्ली में बीजेपी के पास बहुत पुराना और बड़ा नेता अब रहा नहीं है। डॉ. हर्षवर्धन केंद्र में जा चुके हैं जो कि कभी मुख्यमंत्री की दौड़ में शामिल थे। 22 सालों के वनवास को तोड़ने की बड़ी चुनौती के लिए भाजपा को बड़ा नेतृत्व चाहिए। ऐसे में क्या मनोज तिवारी में ऐसी क्षमता है, जिस तरीके से नरेंद्र मोदी अपने कंधों पर लोकसभा चुनाव में सात की सात सीटें जिताकर ले जाते हैं। क्या 35-36 सीटें बीजेपी जीत पाएगी? भाजपा दिल्ली में सत्ता के सबसे करीब आई थी 2013 में जब डॉ. हर्षवर्धन को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाया गया था। उस वक्त 32 सीटें जीतकर चार सीटों के अंतर से सत्ता पर काबिज होने से रह गई थी। उस वक्त कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने मिलकर सरकार बना ली थी। ऐसे में क्या वजह है कि लोकसभा चुनाव में क्लीन स्वीप करने वाली बीजेपी दिल्ली नगर निगम चुनाव में न सिर्फ जीत की हैट्रिक लगाती है बल्कि तीनों निगम की सत्ता पर काबिज हो जाती है। लेकिन विधानसभा चुनाव में फिसड्डी बन जाती है। क्या आंतरिक गुटबाजी इसकी बड़ी वजह है? 

इसे भी पढ़ें: भाजपा का सदस्यता अभियान शुरू, दिल्ली में 14 लाख नए सदस्य बनाने का लक्ष्य

जब छोटे स्तर का चुनाव आता है तो गुटबाजी उतनी मुखर होकर सामने आती है। दिल्ली में बीजेपी के कई अलग-अलग खेमे बने हैं। मनोज तिवारी का एक अलग खेमा है। मनोज तिवारी के साथ जो नेता खड़े हैं वो नए हैं। वैसे तो मनोज तिवारी के नेतृत्व में पार्टी ने हाल के सदस्यता अभियान में 15 लाख से ज्यादा नए सदस्य (आईटी सेल की जानकारी) बनाए हैं। पिछली बार 2015 में उसकी सदस्य संख्या 22 लाख थी। इस तरह वह 37 लाख से ज्यादा सदस्य संख्या कर चुकी है। यह संख्या हाल के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस व आम आदमी पार्टी को मिले कुल वोटों से भी ज्यादा है। मनोज तिवारी 30 नवंबर 2016 को दिल्ली बीजेपी के अध्यक्ष बने थे और इसी साल उनका कार्यकाल खत्म हो रहा है। अगले नवंबर में वो एक बार फिर तीन साल के लिए नियुक्त किये जा सकते हैं? ये बड़ा सवाल है। मनोज तिवारी की मदद के लिए बीजेपी ने केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर को दिल्ली का प्रभारी बनाया है। 

इसे भी पढ़ें: भाजपा का फॉर्मूला तैयार, दिल्ली में केजरीवाल को मिलेगी 'गंभीर' चुनौती

लेकिन दिल्ली बीजेपी का दूसरा खेमा जिसका नेतृत्व विजय गोयल करते हैं वो मनोज तिवारी को दोबारा अध्यक्ष चुने जाने के कितने पक्ष में होंगे यह एक बड़ा सवाल है? समय-समय पर गोयल और तिवारी के बीच के मतभेद की खबरें आती रहती हैं। कभी दिल्ली जल बोर्ड के दफ्तर पहुंचकर विजय गोयल धरने पर बैठ जाते हैं। जिसकी जानकारी प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी को भी नहीं होती है। कभी गोयल द्वारा अनधिकृत कालोनियों के रेगुलराइजेशन को लेकर दिल्ली सरकार की घेराबंदी महासम्मेलन आयोजित करने की खबर आती है। हालांकि भाजपा शीर्ष नेतृत्व ने कलह को पाटने की दिशा में कदम बढ़ाने का असर देखा गया जब गोयल द्वारा 31 अगस्त को प्रस्तावित रैली को स्थगित कर दिया। खबरों के अनुसार पार्टी की तरफ से विजय गोयल को स्थानीय संगठन के साथ मिलकर काम करने की सलाह भी दी गई है। 

इसे भी पढ़ें: विजय गोयल ने मोदी की तुलना शिवाजी से की, कहा- आतंक के खिलाफ निरंतर लड़ाई लड़ रहे हैं

तीसरा खेमा पूर्व प्रदेश अध्यक्ष विजेंद्र गुप्ता का है। विपक्ष के नेता विजेंद्र गुप्ता भी अलग किस्म की राजनीति अपनी तरफ से कर रहे हैं। वो भी खुद को पार्टी का युवा चेहरा मान रहे हैं। वो मानते हैं कि उनके पास लंबा अनुभव है। खासकर एमसीडी में जब पार्टी कमजोर थी तब से लेकर आज तक दिल्ली में पार्टी को मजबूत करने को लेकर अध्यक्ष के तौर पर और अब विधानसभा में बतौर विपक्ष के नेता के तौर पर अपने आपको शक्तिशाली मानते हैं। वहीं दूसरी तरफ भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा कभी सपना चौधरी को लेकर मनोज तिवारी पर सवाल उठाते हैं तो रमेश बिधूड़ी प्रदेश अध्यक्ष पर लोकसभा चुनाव में सहयोग नहीं करने के आरोप लगाते हैं। 

इसे भी पढ़ें: अयोग्यता के खिलाफ HC पहुंचे आप के बागी विधायक कपिल मिश्रा

ऐसे में भाजपा के लिए दिल्ली में अपने संगठन को एकजुट करना एक बड़ी चुनौती होगी। क्योंकि आतंरिक गुटबाजी और कलह की वजह से 15 साल तक सत्ता पर काबिज रहने वाली कांग्रेस के हश्र के रूप में बीजेपी के सामने एक बेमिसाल उदाहरण मौजूद है। एकजुटता का लिटमस टेस्ट करने के लिए उसके सामने अगले महीने होने वाले दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संघ चुनाव के रूप में एक बेहतरीन अवसर भी है। क्योंकि यह अक्सर देखा गया है कि छात्र संघ चुनाव खासकर दिल्ली के युवाओं का मिजाज बताते हैं। 

वैसे तो इस चुनाव में ईवीएम का बहाना बनाकर आम आदमी पार्टी की स्टूडेंट विंग सीवाईएसएस पहली ही कन्नी काट रही है। वैसे कई राजनीतिक जानकार आप के बैकआउट करने के पीछे की वजह पिछले बार के छात्र संघ चुनाव के नतीजों का उनके अनुरूप नहीं आना बता रहे हैं। जिसकी वजह से दिल्ली विश्वविद्यालय चुनाव में बैलेट पेपर का बहाना बनाकर आप की छात्र विंग ईवीएम से चुनाव होने पर नहीं लड़ने की बात कर रही है। उन्हें डर है कि नतीजे पिछले बार की माफिक ही आए और करारी मात मिली तो लोकसभा चुनाव के बाद दूसरी बार यह मैसेज सार्वजनिक हो जाएगा की जनता का साथ भाजपा के साथ है। बहरहाल, बीते दो दशक में भाजपा की दो पीढ़ी के नेताओं द्वारा राज्य में पार्टी को सफलता नहीं दिला सकने के बाद प्रदेश भाजपा संगठन में कई तरह के बदलाव और आधे चेहरों को बदल दिए जाने की भी खबरें है। वैसे तो भाजपा संगठन की नीतियों के अनुसार चुनावी वर्ष में अध्यक्ष नहीं बदलने की परंपरा है। जिसके तहत अमित शाह भाजपा अध्यक्ष पद पर बने रहे और जेपी नड्डा कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त हुए। ऐसे में आंतरिक गुटबाजी को पाटकर प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी पर ही केंद्रीय नेतृत्व भरोसा जताता है या फिर तिवारी विरोधी खेमा दोबारा से उनकी नियुक्ति में बाधक बन जाता है, यह एक बड़ा सवाल है? 

 

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़