वैश्विक कूटनीति का केंद्र बना भारत, जिस देश के राष्ट्राध्यक्ष को देखो वही मोदी से मिलने चला आ रहा है

रूस से तेल और हथियार खरीदने के मामले पर अमेरिका की आलोचनाओं का सीधा सामना करना हो या वैश्विक दक्षिण (Global South) की आवाज़ बुलंद करना—भारत ने यह संदेश दिया है कि वह अब केवल “फॉलोअर” नहीं, बल्कि निर्णय निर्माता है।
भारत की ओर इस समय एशिया से लेकर यूरोप तक के देशों का झुकाव साफ दिखाई दे रहा है। भूटान के प्रधानमंत्री त्शेरिंग टोब्गे और सिंगापुर के प्रधानमंत्री लॉरेन्स वोंग की भारत यात्रा और इस समय नई दिल्ली आये हुए जर्मनी के विदेश मंत्री का दौरा केवल संयोग नहीं, बल्कि यह उस बदलते वैश्विक समीकरण का प्रमाण है जिसमें भारत एक निर्णायक धुरी बनता जा रहा है।
हम आपको बता दें कि भूटान के महामहिम जे खेनपो और प्रधानमंत्री त्शेरिंग टोब्गे की भारत यात्रा का प्रमुख उद्देश्य बिहार के राजगीर में रॉयल भूटान टेंपल के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में भाग लेना है। यह केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि भारत-भूटान के गहरे सांस्कृतिक और आध्यात्मिक संबंधों का प्रतीक है। इसके अतिरिक्त प्रधानमंत्री टोब्गे का अयोध्या में श्रीराम मंदिर के दर्शन करना भारत-भूटान संबंधों को और भी भावनात्मक गहराई प्रदान करता है। भारत-भूटान संबंध सदैव “विशेष मित्रता” की परंपरा पर आधारित रहे हैं। यह यात्रा दिखाती है कि भारत न केवल राजनीतिक साझेदार है बल्कि आध्यात्मिक और सांस्कृतिक धरोहर का भी साझा संरक्षक है।
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वहीं सिंगापुर के प्रधानमंत्री लॉरेन्स वोंग की यह पहली भारत यात्रा है। यह यात्रा भारत-सिंगापुर संबंधों के 60 वर्ष पूरे होने के अवसर पर हो रही है। सिंगापुर, भारत की ‘एक्ट ईस्ट नीति’ का प्रमुख स्तंभ है और दोनों देशों के बीच आर्थिक, सामरिक और तकनीकी सहयोग लगातार बढ़ रहा है। प्रधानमंत्री मोदी और प्रधानमंत्री वोंग की बैठकें दोनों देशों के बीच कॉम्प्रिहेन्सिव स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप को नई ऊर्जा देंगी। इस यात्रा का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि सिंगापुर एशिया-प्रशांत क्षेत्र की राजनीति और व्यापार का एक अहम केंद्र है और भारत यहाँ अपनी सक्रिय उपस्थिति को मजबूत करना चाहता है।
इसके अलावा, इस समय भारत आए हुए जर्मनी के विदेश मंत्री की यात्रा यूरोप के साथ भारत की रणनीतिक साझेदारी को रेखांकित करती है। जर्मनी न केवल यूरोपीय संघ की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, बल्कि तकनीक, ऊर्जा परिवर्तन और सुरक्षा मामलों में अग्रणी भूमिका निभाता है। ऐसे समय में जब यूरोप रूस-यूक्रेन युद्ध से प्रभावित है और चीन के बढ़ते प्रभाव को लेकर चिंतित है, भारत उसके लिए एक भरोसेमंद साझेदार के रूप में उभर रहा है।
देखा जाये तो पिछले कुछ वर्षों में प्रधानमंत्री मोदी ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अमेरिका जैसे शक्तिशाली देशों के समक्ष भी भारत की स्वायत्तता और संप्रभुता को दृढ़ता से रखा है। रूस से तेल और हथियार खरीदने के मामले पर अमेरिका की आलोचनाओं का सीधा सामना करना हो या वैश्विक दक्षिण (Global South) की आवाज़ बुलंद करना—भारत ने यह संदेश दिया है कि वह अब केवल “फॉलोअर” नहीं, बल्कि निर्णय निर्माता है। इसी आत्मविश्वासी विदेश नीति का परिणाम है कि छोटे-बड़े, पड़ोसी-दूरस्थ सभी देश अब भारत के साथ अपने संबंधों को प्राथमिकता दे रहे हैं।
बहरहाल, भूटान का सांस्कृतिक जुड़ाव, सिंगापुर का रणनीतिक सहयोग और जर्मनी का यूरोपीय दृष्टिकोण— ये तीनों यात्राएँ मिलकर यह संकेत देती हैं कि भारत अब केवल क्षेत्रीय शक्ति नहीं, बल्कि वैश्विक राजनीति की नई धुरी बन चुका है। आने वाले वर्षों में भारत की यह बहुआयामी कूटनीति ही उसके लिए सबसे बड़ी ताकत सिद्ध होगी।
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