Mother Teresa Death Anniversary: एक अनुभव ने बदल ली मदर टेरेसा की जिंदगी, ऐसे बनीं गरीबों की मां

Mother Teresa
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प्रेम और शांति का दूत कही जाने वाली मदर टेरेसा का 05 सितंबर को हृदयाघात से निधन हो गया था। कम उम्र से ही उनके मन में समाज सेवा करने का जज्बा जगा था। 36 साल की उम्र में उनके एक अनुभव से मदर टेरेसा को उनके जीवन का उद्देश्य मिल गया था।

मानव समाज के कल्याण के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित करने वाली मदर टेरेसा का 05 सितंबर को निधन हो गया था। कम उम्र से ही उनके मन में समाज सेवा करने का जज्बा जगा था। जब वह इस क्षेत्र में आईं, तो उन्होंने अपने पहनावे को बदलकर साड़ी पहन ली। मदर टेरेसा को प्रेम और शांति का दूत भी कहा जाता है। उन्होंने अपना पूरा जीवन समाज सेवा में बिता दिया। तो आइए जानते हैं उनकी डेथ एनिवर्सरी के मौके पर मदर टेरेसा के जीवन से जुड़ी कुछ रोचक बातों के बारे में...

जन्म और परिवार

अल्बानिया में 26 अगस्त 1910 को मदर टेरेसा का जन्म हुआ था। वह बचपन से ही मिशिनरी जीवन से काफी ज्यादा प्रभावित थी। भारत के बंगाल में उनकी सेवा की कहानियां सुनते-सुनते महज 12 साल की उम्र में उन्होंने भारत जाने का विचार मन ही मन बना लिया। वहीं 18 साल की उम्र तक आते-आते उन्होंने फैसला कर लिया था कि वह अपना जीवन समाज सेवा को समर्पित कर देंगी।

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भारत में सेवा का मकसद

भारत आने के अपने इरादे को मजबूत करने के लिए उन्होंने साल 1928 में आयरलैंड के इंस्टीट्यूट ऑफ ब्लेस्ड वर्जिन मेरी जाने का फैसला किया था। यहां के सदस्यों को सिस्टर्स ऑफ लोरेटो कहा जाता है। इसके पीछे मदर टेरेसा का इरादा मिशनरी बनने के साथ ही अंग्रेजी भाषा सीखना था। क्योंकि भारत में सिस्टर्स ऑफ लोरेटों की निर्देश भाषा थी।

भारत में किया शिक्षण कार्य

साल 1929 में जब मदर टेरेसा भारत आईं, तो शुरूआती प्रशिक्षण का समय दार्जिलिंग में बिताया। यहां पर उन्होंने बंगाली सीखी और फिर कॉन्वेंट के पास सेंट थेरेसा स्कूल में पढ़ाने लगीं। साल 1931 में मदर टेरेसा ने अपनी पहली धार्मिक प्रतिज्ञा ली। उनके बचपन का नाम एक्नेस था, लेकिन भारत आकर उन्होंने अपना नाम मदर टेरेसा रख लिया। उन्होंने कलकत्ता में 20 सालों तक एक एनटैले के लोरेट कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ाया और साल 1944 में वह स्कूल की हेडमिस्ट्रेट बन गईं।

जीवन को मिला नया मोड़

हालांकि मदर टेरेसा को पढ़ाना काफी अच्छा लगता था, लेकिन वह आसपास की गरीबी और असहायों को देखकर दुखी हो जाया करती थीं। साल 1943 में बंगाल में आए अकाल और फिर अगस्त 1946 में कौमी हिंसा ने मदर टेरेसा की पीड़ा को बढ़ा दिया। इसी साल जब वह दार्जिलिंग जा रही थीं, तब उनकी आत्मा की आवाज ने उनको झझकोर दिया। उनको एहसास हुआ कि उन्हें गरीबों की सेवा कर उनके साथ रहना चाहिए। उन्होंने इसको ईश्वर का संदेश माना और शिक्षण कार्य छोड़कर कलकत्ता की झोपड़ियों में रहकर गरीबों और बीमार लोगों की सेवा करने लगीं।

खुद भी किया संघर्ष

मदर टेरेसा को शुरूआत में झोपड़ी में रहना पड़ा और लोगों का पेट भरने के लिए उन्होंने भीख मांगने तक का काम किया। इस दौरान वह खुद भी संघर्ष करती रहीं। लेकिन वह हर नए दिन के साथ अधिक मजबूती से सेवाकार्य में जुटी रहीं। इस बीच लोगों का उन पर ध्यान गया और धीरे-धीरे उनकी मदद के लिए लोग आगे आते गए।

मृत्यु

05 सितंबर 1997 को हृदयघात की वजह से मदर टेरेसा का निधन हो गया।

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