भारत की पहली महिला शिक्षिका थीं सावित्रीबाई फुले, महिला शिक्षा की अलख जगाई

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समाज में नई जागृति लाने के लिए कवयित्री के रूप में सावित्रीबाई फुले ने 2 काव्य पुस्तकें ''काव्य फुले'', ''बावनकशी सुबोधरत्नाकर'' भी लिखीं। उनके योगदान को लेकर 1852 में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सम्मानित भी किया।

उन्नीसवीं सदी के दौर में भारतीय महिलाओं की स्थिति बड़ी ही दयनीय थीं। जहां एक ओर महिलाएं पुरुषवादी वर्चस्व की मार झेल रही थीं, तो दूसरी ओर समाज की रूढ़िवादी सोच के कारण तरह-तरह की यातनाएं व अत्याचार सहने को विवश थीं। हालात इतने बदतर थे कि घर की देहरी लांघकर महिलाओं के लिए सिर से घूंघट उठाकर बात करना भी आसान नहीं था। लंबे समय तक दोहरी मार से घायल हो चुकीं महिलाओं का आत्मगौरव और स्वाभिमान पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका था। समाज के द्वारा उनके साथ किये जा रहे गलत बर्ताव को वे अपनी किस्मत मान चुकी थीं। इन विषम हालातों में दलित महिलाएं तो अस्पृश्यता के कारण नरक का जीवन भुगत रही थीं। ऐसे विकट समय में सावित्रीबाई फुले ने समाज सुधारक बनकर महिलाओं को सामाजिक शोषण से मुक्त करने व उनके समान शिक्षा व अवसरों के लिए पुरजोर प्रयास किया। 

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गौरतलब है कि देश की पहली महिला शिक्षक, समाज सेविका, मराठी की पहली कवियित्री और वंचितों की आवाज बुलंद करने वाली क्रांतिज्योति सावित्रीबाई का जन्म 3 जनवरी, 1831 को महाराष्ट्र के पुणे-सतारा मार्ग पर स्थित नैगांव में एक दलित कृषक परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम खण्डोजी नेवसे और माता का नाम लक्ष्मीबाई था। 1840 में मात्र 9 साल की उम्र में सावित्रीबाई का विवाह 13 साल के ज्योतिराव फुले के साथ हुआ। विवाह के बाद अपने नसीब में संतान का सुख नहीं होते देख उन्होंने आत्महत्या करने जाती हुई एक विधवा ब्राह्मण महिला काशीबाई की अपने घर में डिलीवरी करवा उसके बच्चे को दत्तक पुत्र के रूप में गोद ले लिया और उसका नाम यशंवत राव रख दिया। बाद में उन्होंने यशवंत राव को पाल-पोसकर व पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बनाया। 

सावित्रीबाई फुले और उनके पति ज्योतिराव फुले ने वर्ष 1848 में मात्र 9 विद्यार्थियों को लेकर एक स्कूल की शुरुआत की थी। ज्योतिराव ने अपनी पत्नी को घर पर ही पढ़ाया और एक शिक्षिका के तौर पर शिक्षित किया। बाद में उनके मित्र सखाराम यशवंत परांजपे और केशव शिवराम भावलकर ने उनकी शिक्षा की जिम्मेदारी संभाली। उन्होंने महिला शिक्षा और दलित उत्थान को लेकर अपने पति ज्योतिराव के साथ मिलकर छुआछूत, बाल विवाह, सती प्रथा को रोकने व विधवा पुनर्विवाह को प्रारंभ करने की दिशा में कई उल्लेखनीय कार्य किये। उन्होंने शुद्र, अति शुद्र एवं स्त्री शिक्षा का आरंभ करके नये युग की नींव रखने के साथ घर की देहरी लांघकर बच्चों को पढ़ाने जाकर महिलाओं के लिए सार्वजनिक जीवन का उदय किया। 

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ज्योतिराव फुले ने 28 जनवरी, 1853 को गर्भवती बलात्कार पीड़ितों के लिए बाल हत्या प्रतिबंधक गृह और 24 सितंबर, 1873 को सत्यशोधक समाज की स्थापना की। इस सत्यशोधक समाज की सावित्रीबाई फुले एक अत्यंत समर्पित कार्यकर्ता थीं। यह संस्था कम से कम खर्च पर दहेज मुक्त व बिना पंडित-पुजारियों के विवाहों का आयोजन कराती थी। इस तरह का पहला विवाह सावित्रीबाई की मित्र बाजूबाई की पुत्री राधा और सीताराम के बीच 25 दिसंबर, 1873 को संपन्न हुआ। इस ऐतिहासिक क्षण पर शादी का समस्त खर्च स्वयं सावित्रीबाई फुले ने उठाया। 4 फरवरी, 1879 को उन्होंने अपने दत्तक पुत्र का विवाह भी इसी पद्धति से किया, जो आधुनिक भारत का पहला अंतरजातीय विवाह था। दरअसल, इस प्रकार के विवाह की पद्धति पंजीकृत विवाहों से मिलती जुलती होती थी। जो आज भी कई भागों में पाई जाती है। इस विवाह का पूरे देश के पुजारियों ने विरोध किया और कोर्ट गए। जिससे फुले दंपति को कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। लेकिन, वे इससे विचलित नहीं हुए। 

इसके अलावा सावित्रीबाई फुले जब पढ़ाने के लिए अपने घर से निकलती थी, तब लोग उन पर कीचड़, कूड़ा और गोबर तक फेंकते थे। इसलिए वह एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थी और स्कूल पहुंचकर गंदी हुई साड़ी को बदल लेती थी। महात्मा ज्योतिराव फुले की मुत्यु 28 नवंबर, 1890 को हुई, तब सावित्रीबाई ने उनके अधूरे कार्यों को पूरा करने का संकल्प लिया। लेकिन, 1897 में प्लेग की भयंकर महामारी फैल गई। पुणे के कई लोग रोज इस बीमारी से मरने लगे। तब सावित्रीबाई ने अपने पुत्र यशवंत को अवकाश लेकर आने को कहा और उन्होंने उसकी मदद से एक अस्पताल खुलवाया। इस नाजुक घड़ी में सावित्रीबाई स्वयं बीमारों के पास जाती और उन्हें इलाज के लिए अपने साथ अस्पताल लेकर आती। यह जानते हुए भी यह एक संक्रामक बीमारी है, फिर भी उन्होंने बीमारों की देखभाल करने में कोई कमी नहीं रखी। एक दिन जैसे ही उन्हें पता चला कि मुंडवा गांव में म्हारो की बस्ती में पांडुरंग बाबाजी गायकवाड का पुत्र प्लेग से पीड़ित हुआ है तो वह वहां गई और बीमार बच्चे को पीठ पर लादकर अस्पताल लेकर आयी। इस प्रक्रिया में यह महामारी उनको भी लग गई और 10 मार्च, 1897 को रात को 9 बजे उनकी सांसें थम गई। 

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निश्चित ही सावित्रीबाई फुले का योगदान 1857 की क्रांति की अमर नायिका झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से कम नहीं आंका जा सकता, जिन्होंने अपनी पीठ पर बच्चे को लादकर उसे अस्पताल पहुंचाया। उनका पूरा जीवन गरीब, वंचित, दलित तबके व महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष करने में बीता। समाज में नई जागृति लाने के लिए कवयित्री के रूप में सावित्रीबाई फुले ने 2 काव्य पुस्तकें 'काव्य फुले', 'बावनकशी सुबोधरत्नाकर' भी लिखीं। उनके योगदान को लेकर 1852 में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सम्मानित भी किया। साथ ही केंद्र और महाराष्ट्र सरकार ने सावित्रीबाई फुले की स्मृति में कई पुरस्कारों की स्थापना की और उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया। उनकी एक मराठी कविता की हिंदी में अनुवादित पंक्तियां हैं- 'ज्ञान के बिना सब खो जाता है, ज्ञान के बिना हम जानवर बन जाते हैं इसलिए, खाली ना बैठो, जाओ, जाकर शिक्षा लो।'

-देवेन्द्रराज सुथार

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