Sher Shah Suri Death Anniversary: सिर्फ 5 साल में शेरशाह सूरी ने बदल दी थी भारत की तस्वीर, मिली थी शेर खां की उपाधि

शेरशाह सूरी 'सूरी राजवंश की नींव रखने वाला एक ऐसा शासक' जिसकी बहादुरी और साहस के किस्से हमारे इतिहास में मिलते हैं। उसने न सिर्फ अपनी वीरता के बल पर दिल्ली के तल्ख पर कब्जा किया, बल्कि दिल्ली को अपनी राजधानी भी बनाया। साल 1540 में शेरशाह ने मुगल शासक हुंमायू को युद्ध में बुरी तरह हराकर उन्हें मैदान छोड़ने पर विवश कर दिया था। मुगल बादशाह हुंमायू और शेरशाह सूरी एक-दूसरे के जान के प्यासे थे। लेकिन हुंमायू भी शेरशाह के पराक्रम का लोहा मानते थे। बता दें कि आज की के दिन यानी की 22 मई को शेरशाह सूरी की मौत हो गई थी। शेरशाह सूरी को चौसा की लड़ाई के बाद शेर खां की उपाधि से नवाजा गया था।
जन्म
साहसी योद्धा शेरशाह सूरी का जन्म बिहार के सासाराम जिला में 1486 में हुआ था। इनके बचपन का नाम फरीद खान था। जब यह 15 साल के हुए तो घर छोड़कर जौनपुर चले गए। यहां पर उन्होंने फारसी और अरबी भाषाओं का ज्ञान लिया। इसी दौरान शेरशाह के पिता ने उनके प्रशासनिक कौशल को देखते हुए एक परगने की जिम्मा सौंप दिया। तब शेरशाह ने किसानों पर सही लगान लगाने के अलावा भ्रष्टाचार को मिटाने का फैसला लिया।
ऐसे बनें शेर खां
साल 1552 में शेरशाह को बिहार के स्वतंत्र शासक बहार खान नूहानी का सहायक बना दिया गया। वहीं बहार खान शेरशाह की बुद्धिमत्ता और कुशलता से प्रभावित हुआ। जिसके बाद उसने अपने बेटे जलाल के शिक्षक के तौर पर नियुक्त कर दिया। जब एक दिन बहार खान ने शेरशाह को शेर का शिकार करने के लिए कहा तो उन्होंने बिना डरे शेर से मुकाबला किया और शेर के जबड़े को दो हिस्सों में कर उसे मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद बहार खान ने शेरशाह को 'शेर खां' की उपाधि से सम्मानित किया।
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जहां एक ओर शेरशाह का पराक्रम बढ़ रहा था, तो वहीं दूसरी ओर उनके दुश्मन भी बढ़ते जा रहे थे। बहार खान के अधिकारियों ने जलन के कारण उन्हें बराह खान के दरबार से निकलवा दिया। इसके बाद वह मुगल शासक बाबर की सेना में शामिल हो गए। अपनी योग्यता और पराक्रम के चलते उन्होंने बाबर की सेना में भी अलग पहचान हासिल की। बहार खान के दरबार से बाहर होने और बाबर के दरबार में शामिल होने के बाद भी शेरशाह की नजर लोहानी की सत्ता पर थी। क्योंकि वह जानते थे कि बहार खान के बाद लोहनी शासन को चलाने वाला कोई योग्य व्यक्ति नहीं था। जिसके बाद उन्होंने बहार खान की सेना की कमजोरियों के बारे में बारीकी से समझना शुरू कर दिया।
बिहार का सूबेदार
हालांकि बहार खान की मौत के बाद उनकी बेगम ने शेरशाह को बिहार का सूबेदार बना दिया। जिससे उनके आगे बढ़ने का रास्ता और साफ हो गया। 1537 में शेरशाह ने खुद को मुगलों को अपने वफादार होने का दावा करते हुए बड़ी चतुराई से बंगाल पर आक्रमण कर एक बड़े हिस्से पर अपनी सत्ता स्थापित कर ली। बता दें कि 1535 से 1537 में हुंमायू आगरा से दूर अन्य क्षेत्रों में मुगल विस्तार के लिए प्रयास कर रहा था। तभी शेरशाह ने आगरा में अपनी सत्ता को और मजबूत करने का काम किया। इसके अलावा शेरशाह ने बिहार को भी पूरी तरह अपने कब्जे में कर लिया।
चौंसा का युद्ध
हुमायूं और शेर शाह सूरी की मजबूत सेना के बीच साल 1539 में बिहार के पास चौसा नामक जगह पर कड़ा मुकाबला हुआ। इस युद्ध में हुंमायू को शेरशाह के सामने मुंह की खानी पड़ी। हुंमायू अपनी जान बचाने के लिए मैदान से भाग खड़ा हुआ। बता दें कि शेरशाह सूरी की सेना ने पूरी ताकत और पराक्रम के साथ मुगल सेना पर हमला किया था। जिस कारण मुगल सेना की एक बड़ी टुकड़ी को अपनी जान बचाने के लिए गंगा में कूदना पड़ा था। वहीं 1540 में हुंमायू ने अपना खोया हुआ राज्य प्राप्त करने के लिए बिलग्राम और कन्नौज की लड़ाई लड़ी। लेकिन इस दौरान भी कोई सफलता हाथ नहीं लगी। इसके बाद शेरशाह सूरी दिल्ली के सिंहासन पर बैठा और अपने साम्राज्य का विस्तार करने लगा।
शेरशाह सूरी के कार्य
रुपए की शुरुआत
भारतीय पोस्टल विभाग
ग्रैंड ट्रंक रोड का निर्माण
भ्रष्टाचारियों के खिलाफ नकेल
शेरशाह ने की थी रुपए की शुरूआत
बता दें कि सूरी वंश के शासक शेरशाह सूरी ने अपने शासनकाल में 1 रुपए की शुरूआत की थी। वर्तमान में यह एक रुपए न सिर्फ भारत बल्कि कई देशों की करंसी के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है।
कालिंजर का किला
साल 1544 में शेरशाह ने उत्तर प्रदेश के कालिंजर किले पर घेरा डाल दिया। जब 6 महीने की घेराबंदी के बाद उसे कामयाबी हासिल नहीं हुई तो उसने सेना को किले पर बारूद से हमला करने का आदेश दे दिया। तभी बारूद उसके पास आकर फट गया। जिससे वह बुरी तरह घायल हो गया। लेकिन इसके बाद भी वह दुश्मनों का डटकर सामना करता रहा। अंत में उसने कालिंजर के किले पर विजय हासिल कर ली। लेकिन अधिक घायल हो जाने के कारण 22 मई 1545 को शेरशाह का निधन हो गया। शेरशाह का मकबरा बिहार के सासाराम में बना हुआ है।
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