अटलजी का राजनीतिक ही नहीं साहित्यिक पक्ष भी प्रेरणादायी है

Atal ji s literary party is also inspirational

अटलजी राजनीति में रहते हुए भी साहित्य से जुड़े रहे। वे कहते हैं कि राजनीति और साहित्य दोनों ही जीवन के अंग हैं। वास्तव में ऐसा होता है कि जो लोग राजनीति से जुड़े हैं, वे साहित्य के लिए समय नहीं निकाल पाते।

पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी राजनीतिज्ञ होने के अलावा साहित्यकार भी हैं। उन्हें साहित्य विरासत में मिला था। वह कहते हैं, ‘रामचरितमानस’ तो मेरी प्रेरणा का स्रोत रहा है। जीवन की समग्रता का जो वर्णन गोस्वामी तुलसीदास ने किया है, वैसा विश्व-साहित्य में नहीं हुआ है। बचपन से ही उन्होंने कविताएं लिखनी शुरू कर दी थीं। स्वदेश-प्रेम, जीवन-दर्शन, प्रकृति तथा मधुर भाव की कविताएं उन्हें बाल्यावस्था से ही आकर्षित करती रही हैं। उनकी कविताओं में प्रेम है, करुणा है, वेदना है। एक पत्रकार के रूप में वे बहत गंभीर दिखाई देते हैं। वे कहते हैं, मेरे भाषणों में मेरा लेखक ही बोलता है, पर ऐसा नहीं कि राजनेता मौन रहता है। मेरे लेखक और राजनेता का परस्पर समन्वय ही मेरे भाषणों में उतरता है। यह जरूर है कि राजनेता ने लेखक से बहुत कुछ पाया है। साहित्यकार को अपने प्रति सच्चा होना चाहिए। उसे समाज के लिए अपने दायित्व का सही अर्थों में निर्वाह करना चाहिए। उसके तर्क प्रामाणिक हों, उसकी दृष्टि रचनात्मक होनी चाहिए। वह समसामयिकता को साथ लेकर चले, पर आने वाले कल की चिंता जरूर करे। वे भारत को विश्व शक्ति के रूप में देखना चाहते हैं। वे कहते हैं, मैं चाहता हूं भारत एक महान राष्ट्र बने, शक्तिशाली बने, संसार के राष्ट्रों में प्रथम पंक्ति में आए।

जब वह पांचवीं कक्षा में थे, तब उन्होंने प्रथम बार भाषण दिया था। लेकिन बड़नगर में उच्च शिक्षा की व्यवस्था न होने के कारण उन्हें ग्वालियर जाना पड़ा। उन्हें विक्टोरिया कॉलेजियट स्कूल में दाख़िल कराया गया, जहां से उन्होंने इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई की। इस विद्यालय में रहते हुए उन्होंने वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाग लिया तथा प्रथम पुरस्कार भी जीता। उन्होंने विक्टोरिया कॉलेज से स्नातक स्तर की शिक्षा ग्रहण की। कॉलेज जीवन में ही उन्होंने राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना आरंभ कर दिया था। वह 1943 में कॉलेज यूनियन के सचिव रहे और 1944 में उपाध्यक्ष भी बने। ग्वालियर की स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद वह कानपुर चले गए। यहां उन्होंने डीएवी महाविद्यालय में प्रवेश लिया। उन्होंने कला में स्नातकोत्तर उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त की। इसके बाद वह पीएचडी करने के लिए लखनऊ चले गए। पढ़ाई के साथ-साथ वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य भी करने लगे। परंतु वह पीएचडी करने में सफलता प्राप्त नहीं कर सके, क्योंकि पत्रकारिता से जुड़ने के कारण उन्हें अध्ययन के लिए समय नहीं मिल रहा था। उस समय राष्ट्रधर्म नामक समाचार-पत्र पंडित दीनदयाल उपाध्याय के संपादन में लखनऊ से मुद्रित हो रहा था। तब अटलजी इसके सह सम्पादक के रूप में कार्य करने लगे। पंडित दीनदयाल उपाध्याय इस समाचार-पत्र का संपादकीय स्वयं लिखते थे और शेष कार्य अटलजी एवं उनके सहायक करते थे। राष्ट्रधर्म समाचार-पत्र का प्रसार बहुत बढ़ गया. ऐसे में इसके लिए स्वयं की प्रेस का प्रबंध किया गया, जिसका नाम भारत प्रेस रखा गया था। वह मासिक पत्रिका राष्ट्रधर्म के प्रथम संपादक रहे हैं। वह प्रथमांक से 26 अक्टूबर, 1950 तक इसके संपादक रहे।

अटल जी कहते हैं कि छात्र जीवन से ही मेरी इच्छा संपादक बनने की थी। लिखने-पढ़ने का शौक और छपा हुआ नाम देखने का मोह भी। इसलिए जब एमए की पढ़ाई पूरी की और कानून की पढ़ाई अधूरी छोड़ने के बाद सरकारी नौकरी न करने का पक्का इरादा बना लिया और साथ ही अपना पूरा समय समाज की सेवा में लगाने का मन भी। उस समय पूज्य भाऊ राव देवरस जी के इस प्रस्ताव को तुरंत स्वीकार कर लिया कि संघ द्वारा प्रकाशित होने वाले राष्ट्रधर्म के संपादन में कार्य करूंगा, श्री राजीव लोचन जी भी साथ होंगे। अगस्त 1947 में पहला अंक निकला और इसने उस समय के प्रमुख साहित्यकार सर सीताराम, डॉ. भगवान दास, अमृतलाल नागर, श्री नारायण चतुर्वेदी, आचार्य वृहस्पति व प्रोफेसर धर्मवीर को जोड़कर धूम मचा दी।

कुछ समय के पश्चात 14 जनवरी 1948 को भारत प्रेस से मुद्रित होने वाला दूसरा समाचार पत्र पांचजन्य भी प्रकाशित होने लगा। अटलजी इसके प्रथम संपादक बनाए गए। इस समाचार-पत्र का संपादन पूर्ण रूप से वही करते थे। 15 अगस्त, 1947 को देश स्वतंत्र हो गया था। कुछ समय के पश्चात 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या हुई। इसके बाद भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रतिबंधित कर दिया। इसके साथ ही भारत प्रेस को बंद कर दिया गया, क्योंकि भारत प्रेस भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रभाव क्षेत्र में थी। भारत प्रेस के बंद होने के पश्चात अटलजी इलाहाबाद चले गए। यहां उन्होंने क्राइसिस टाइम्स नामक अंग्रेज़ी साप्ताहिक के लिए कार्य करना आरंभ कर दिया। परंतु जैसे ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगा प्रतिबंध हटा, वह पुन: लखनऊ आ गए और उनके संपादन में स्वदेश नामक दैनिक समाचार-पत्र प्रकाशित होने लगा। परंतु हानि के कारण स्वदेश को बंद कर दिया गया। वर्ष 1949 में काशी से साप्ताहिक 'चेतना’ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इसके संपादक का कार्यभार अटलजी को सौंपा गया। उन्होंने इसे सफलता के शिखर तक पहुंचा दिया।

फिर वर्ष 1950 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रतिबंध हटने के बाद दैनिक स्वदेश का पुन: प्रकाशन शुरू हो गया। दुर्भाग्यवश वर्ष 1952 में प्रथम लोकसभा चुनाव के बाद आर्थिक संकट के कारण स्वदेश को बंद करना पड़ा। उस समय अटलजी ने इसका अंतिम संपादकीय लिखा, जिसका शीर्षक था अलविदा। यह संपादकीय बहुत चर्चित हुआ। इसके बाद वह दिल्ली आ गए और यहां से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र वीर अर्जुन में कार्य करने लगे। यह दैनिक एवं साप्ताहिक दोनों आधार पर प्रकाशित हो रहा था।

अपने संपादक कार्यकाल के बारे में अटलजी कहते हैं, उन दिनों संपादन का कार्य बड़े दायित्व का कार्य समझा जाता था। उसके साथ प्रतिष्ठा भी जुड़ी होती थी। वेतन तथा अन्य सुविधाओं पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता था। हम तो अवैतनिक संपादक ही रहे। केवल जरूरी खर्च भर के लिए ही पैसे लेते थे। सुविधाएं नाममात्र कीं, किंतु विचारधारा के प्रचार का एक अद्भुत संतोष था। दैनिक समाचार-पत्रों के संपादन के बारे में वे कहते हैं, दैनिक पत्र के संपादन का आनंद तो और ही है। उसका अपना अलग ही आनंद होता है। मुझे याद है, शाम से जो कार्य प्रारंभ होता था कि कौन कितनी देर रात समाचारों को खोजता है और उनके प्रकाशन में आगे रहता है। प्राय: प्रतिदिन भोर में जब चिड़ियां चहचहाने लगती थीं, तो थकान से चूर होकर खाट पर लेटते थे और ऐसी गहरी नींद आती थी कि उसका स्मरण कर इस समय भी मन पुलकित हो जाता है।

अटलजी कहते हैं, ‘रामचरितमानस’ तो मेरी प्रेरणा का स्रोत रहा है। जीवन की समग्रता का जो वर्णन गोस्वामी तुलसीदास ने किया है, वैसा विश्व-साहित्य में नहीं हुआ है। काव्य लेखन के बारे में उनका कहना है, साहित्य के प्रति रुचि मुझे उत्तराधिकार के रूप में मिली है। परिवार का वातावरण साहित्यिक था। मेरे बाबा पंडित श्यामलाल वाजपेयी बटेश्वर में रहते थे। उन्हें संस्कृत और हिन्दी की कविताओं में बहुत रुचि थी। यद्यपि वे कवि नहीं थे, परंतु काव्य प्रेमी थे। उन्हें दोनों ही भाषाओं की बहुत सी कविताएं कंठस्थ थीं। वे अकसर बोलचाल में छंदों को उदधृत करते थे। मेरे पिता पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी ग्वालियर रियासत के प्रसिद्ध कवि थे। वे ब्रज और खड़ी बोली में काव्य लेखन करते थे। उनकी कविता ’ईश्वर प्रार्थना’ विद्यालयों में प्रात: सामूहिक रूप से गाई जाती थी। यह सब देख-सुन कर मन को अति प्रसन्नता मिलती थी। पिता जी की देखा-देखी मैं भी तुकबंदी करने लगा। फिर कवि सम्मेलनों में जाने लगा। ग्वालियर की हिंदी साहित्य सभा की गोष्ठियों में कविताएं पढ़ने लगा। लोगों द्वारा प्रशंसा मिली प्रशंसा ने उत्साह बढ़ाया। 

अटलजी कहते हैं, सच्चाई यह है कि कविता और राजनीति साथ-साथ नहीं चल सकतीं। ऐसी राजनीति, जिसमें प्राय: प्रतिदिन भाषण देना जरूरी है और भाषण भी ऐसा जो श्रोताओं को प्रभावित कर सके, तो फिर कविता की एकांत साधना के लिए समय और वातावरन ही कहां मिल पाता है। मैंने जो थोड़ी-सी कविताएं लिखी हैं, वे परिस्थिति-सापेक्ष हैं और आसपास की दुनिया को प्रतिबिम्बित करती हैं।

अपने कवि के प्रति ईमानदार रहने के लिए मुझे काफी कीमत चुकानी पड़ी है, किंतु कवि और राजनीतिक कार्यकर्ता के बीच मेल बिठाने का मैं निरंतर प्रयास करता रहा हूं। कभी-कभी इच्छा होती है कि सब कुछ छोड़कर कहीं एकांत में पढ़ने, लिखने और चिंतन करने में अपने को खो दूं, किंतु ऐसा नहीं कर पाता। मैं यह भी जानता हूं कि मेरे पाठक मेरी कविता के प्रेमी इसलिए हैं कि वे इस बात से खुश हैं कि मैं राजनीति के रेगिस्तान में रहते हुए भी, अपने हृदय में छोटी-सी स्नेह-सलिला बहाए रखता हूं।

अटलजी राजनीति में रहते हुए भी साहित्य से जुड़े रहे। वे कहते हैं कि राजनीति और साहित्य दोनों ही जीवन के अंग हैं। वास्तव में ऐसा होता है कि जो लोग राजनीति से जुड़े हैं, वे साहित्य के लिए समय नहीं निकाल पाते। इसी तरह साहित्य से जुड़े लोग राजनीति के लिए समय नहीं दे पाते। किंतु ऐसे लोग भी हैं, जो दोनों से जुड़े होते हैं और दोनों के लिए ही समय देते हैं। परंतु आज के राजनेता साहित्य से दूर हैं, इसी कारण उनमें मानवीय संवेदना का स्रोत सूख-सा गया है। कवि संवेदनशील होता है। तानाशाहों में क्रूरता इसीलिए आ जाती है, क्योंकि वे संवेदनहीन होते हैं। एक कवि के हृदय में दया, क्षमा, करुणा और प्रेम होता है, इसलिए वह खून की होली नहीं खेल सकता। साहित्यकार को पहले अपने प्रति सच्चा होना चाहिए। इसके पश्चात उसे समाज के प्रति अपने दायित्य का सही अर्थों में निर्वाह करना चाहिए। वह भले ही वर्तमान को लेकर चले, किंतु उसे आने वाले कल की भी चिंता करनी चाहिए। अतीत में जो श्रेष्ठ है, उससे वह प्रेरणा ले, परंतु यह कभी न भूले कि उसे भविष्य का सुंदर निर्माण करना है। उसे ऐसे साहित्य की रचना करनी है, जो मानव मात्र के कल्याण की बात करे।

अटलजी ने कई पुस्तकें लिखी हैं. इसके अलावा उनके लेख, उनकी कविताएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं, जिनमें राष्ट्रधर्म, पांचजन्य, धर्मयुग, नई कमल ज्योति, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादिम्बनी और नवनीत आदि सम्मिलित हैं। पत्रकार के रूप में अपना जीवन आरंभ करने वाले अटलजी को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। राष्ट्र के प्रति उनकी समर्पित सेवाओं के लिए 25 जनवरी, 1992 में राष्ट्रपति ने उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने 28 सितंबर 1992 को उन्हें ’हिंदी गौरव’ से सम्मानित किया। इस अवसर पर उन्हें 51 हजार रुपये की धनराशि प्रदान की गई, परंतु उन्होंने उसी समय इसे सम्मान सहित संस्थान को अपनी ओर से भेंट कर दिया। अगले वर्ष 20 अप्रैल 1993 को कानपुर विश्वविद्यालय ने उन्हें डी लिट की उपाधि प्रदान की। उनके सेवाभावी और स्वार्थ त्यागी जीवन के लिए उन्हें 1 अगस्त 1994 में लोकमान्य तिलक पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके पश्चात 17 अगस्त 1994 को संसद ने उन्हें श्रेष्ठ सासंद चुना गया तथा पंडित गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके बाद 27 मार्च, 2015 को भारत रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इतने महत्वपूर्ण सम्मान पाने वाली अटलजी कहते हैं, मैं अपनी सीमाओं से परिचित हूं। मुझे अपनी कमियों का अहसास है। निर्णायकों ने अवश्य ही मेरी न्यूनताओं को नजरांदाज करके मुझे निर्वाचित किया है। सद्भाव में अभाव दिखाई नहीं देता है। यह देश बड़ा है अद्भुत है, बड़ा अनूठा है। किसी भी पत्थर को सिंदूर लगाकर अभिवादन किया जा सकता है।

अटलजी ने जीवन में अनेक कष्ट भी झेले, किंतु उन्होंने कभी हार नहीं मानी। हर समस्या को उन्होंने एक चुनौती के रूप में लेकर साहस से उसका सामना किया।

-डॉ. सौरभ मालवीय

(लेखक- माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय नोएडा में सहायक प्राध्यापक हैं।)

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