भाजपा को हरियाणा में खट्टर को थोड़ा पहले ही विदा कर देना चाहिए था

manohar lal khattar
ANI

मनोहर लाल खट्टर की राजनीतिक यात्रा भाजपा के एक कार्यकर्ता के तौर पर शुरू हुई थी। उसके बाद उन्होंने हरियाणा में ही पार्टी के स्थानीय स्तर के कई कार्यालयों में कार्य किया। वर्ष 2010 में पार्टी ने उन्हें नारायणगढ़ निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ाया, जिसमें वे रामकिशन गुर्जर से हार गए।

आमतौर पर राजनीति के क्षेत्र में आने वाले तूफानों की भविष्यवाणी करना बेहद मुश्किल कार्य होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो राजनीतिक तूफानों का पुरोवाक् लिखना बहुत कम लोग ही जानते हैं... और जो जानते हैं वे तूफानों के आने पर विचलित नहीं होते, बल्कि शांत और प्रसन्न किंतु गतिशील बने रहते हैं। देखा जाए तो मंगलवार को हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के साथ कुछ−कुछ ऐसा ही हुआ। दरअसल, घटनाक्रम कुछ इस प्रकार आगे बढ़ा कि 11 मार्च को गुरुग्राम पहुंचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की भूरी−भूरी प्रशंसा की और दूसरे दिन दोपहर तक खट्टर सरकार से बाहर हो गए या कर दिए गए, जिसे जो उचित लगे उसे वही समझ लेने की यहां पूरी गुंजाइश है। गौरतलब है कि खट्टर के साथ व्यतीत किए गए अपने पुराने दिनों की याद ताजा करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने मनोहर लाल की प्रगतिशील मानसिकता के बारे में खुलकर बात की थी। गुरुग्राम में खट्टर के साथ मंच साझा करते हुए उन्होंने कहा− 'जब दरी पर सोने का जमाना था, तब भी हम साथ थे। उस समय इनके (खट्टर के) पास एक मोटरसाइकिल थी। हम लोग उसी पर सवार होकर हरियाणा भ्रमण करते थे।' प्रधानमंत्री ने कहा कि खट्टर मोटरसाइकिल चलाते थे और वे पीछे बैठा करते थे। हम रोहतक से निकलते थे और गुरुग्राम आकर रुकते थे।

आश्चर्य होता है कि 11 मार्च को प्रधानमंत्री ने ये बातें कहीं और 12 मार्च को सुबह अचानक ही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और जननायक जनता पार्टी (जजपा) के बीच दरार एवं मुख्यमंत्री खट्टर के इस्तीफे की चर्चा शुरू हो गई। दृश्य मीडिया जगत् यानी टीवी के खबरों की दुनिया में यह खबर सनसनी की तरह फैली और जब तक यह अपना पूरा प्रभाव छोड़ती तब तक यह खबर अपनी अंतिम परिणति तक पहुंच चुकी थी। तात्पर्य यह कि मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका था। राजनीतिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो मुख्यमंत्री खट्टर को तो जाना ही था, बल्कि सच कहा जाए तो उन्हें थोड़ा और पहले जाना चाहिए था। इससे नई सरकार को जनता के बीच अपना फेस−ऑफ करने तथा काम के बल पर अपनी इमेज बनाने का भरपूर समय मिल सकता था। गौरतलब है कि खट्टर का दूसरा कार्यकाल इसी वर्ष अक्तूबर में पूरा होना था। जाहिर है कि अक्तूबर में हरियाणा में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में लगभग 69 वर्षीय थके−हारे से दिखाई देने वाले सहज और सरल स्वभाव के स्वामी मनोहर लाल खट्टर के भरोसे भाजपा हरियाणा के दंगल में नहीं उतरना चाहती थी। यही नहीं, कुछ ही महीने पूर्व हरियाणा में हुए सांप्रदायिक दंगे के दौरान मुख्यमंत्री खट्टर का ढिलाई से पेश आना भी उनकी विदाई का एक बड़ा कारण रहा है। दरअसल, सांप्रदायिक दंगे के प्रति उनके सख्त नहीं होने से सरकार की छवि धूमिल हुई थी, जो भाजपा सुप्रीमो को रास नहीं आया था।

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इसके अतिरिक्त खट्टर को हटाए जाने का एक प्रमुख कारण राज्य में लगभग 10 वर्षों तक सत्ता की बागडोर संभालने वाली खट्टर सरकार के विरुद्ध एंटी इंकम्बैंसी का फैक्टर भी माना जा रहा है। वैसे देखा जाए तो मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की विदाई के बाद मनोहर लाल खट्टर की विदाई भी लगभग तय ही मानी जा रही थीं, क्योंकि मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री के तौर पर शिवराज सिंह चौहान की छवि बेहद अच्छी मानी जा रही थी। साथ ही शासन और प्रशासन में उनकी भूमिका भी किसी प्रकार के वाद−विवाद अथवा संदेह से परे थी। उसके बावजूद जब उन्हें बैठा दिया गया, तब भला मनोहर लाल खट्टर की विदाई कैसे नहीं होती। वैसे शिवराज सिंह और मनोहर लाल, दोनों को इस बार पार्टी ने एक ही तरीके से सरकार से बाहर का रास्ता दिखाया। दोनों घटनाओं में कई समानताएं भी हैं, यथा दोनों को अचानक हटाया जाना, दोनों के करीबियों को ही मुख्यमंत्री के रूप में चुना जाना और इन दोनों के हाथों ही नए मुख्यमंत्रियों को मुस्कुराते हुए ताज पहनवाना आदि। हालांकि दोनों घटनाओं में एक बड़ा अंतर भी है और वह यह कि दोनों पूर्व मुख्यमंत्रियों की मुस्कराहटों में बड़ा अंतर था। एक ओर जहां शिवराज सिंह चौहान की मुस्कराहट के पीछे कुछ खोने का दर्द और अफसोस का भाव स्पष्ट देखा जा सकता था, वहीं, मनोहर लाल खट्टर की मुस्कराहट हमेशा की तरह सहज, सरल और शालीन बनी हुई थी। गौरतलब है कि राजनीति में मुस्कराहटों का अपना एक फलसफा होता है। ये मुस्कराहटें बहुत कुछ कहती हैं। ये पीछे छूट चुके समय के दर्द और दुख को तो बताती ही हैं, साथ ही आगत खुशियों और परेशानियों को भी बयां करने में सक्षम होती हैं।

गौर करें तो उपर्युक्त दोनों घटनाओं में ऐसा ही हुआ है। जहां शिवराज सिंह चौहान नाराज और दुखी हैं, वहीं मनोहर लाल खट्टर खुश और आश्वस्त हैं। मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के बाद दोनों नेताओं की भाव−भंगिमाओं को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि शिवराज सिंह अपनी विदाई को लेकर अनजान थे, जबकि मनोहर लाल को पता था कि अब राज्य में उनकी भूमिका खत्म हो गई है और केंद्र में मोदी जी के साथ कार्य करने का समय आ चुका है। बहरहाल, घटनाक्रम इतनी तीव्रता से आगे बढ़ता चला गया कि लोग एक के बाद एक क्रमशः बदलते परिदृश्यों में उलझकर रह गए। यह सोचकर लोग हैरत में थे कि 11 मार्च को मादी जी ने खट्टर की प्रशंसा की, 12 को दोपहर तक वे हटा दिए गए और शाम होते−होते उनके बेहद करीबी माने जाने वाले और कभी उनके मातहत रहने वाले राजनेता नायब सिंह सैनी राज्य के 11वें मुख्यमंत्री बना दिए गए। बता दें कि मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी हरियाणा में भाजपा का बड़ा ओबीसी चेहरा हैं। फिलहाल वे भाजपा से लोकसभा के सदस्य हैं, जो हरियाणा में कुरुक्षेत्र निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। सैनी राजनीति में आने से पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़े थे। आरएसएस में रहते हुए ही उनकी मुलाकात तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर से हुई थी, जिसके कुछ समय बाद ही वे भाजपा में शामिल हो गए थे।

इस प्रकार उनकी राजनीतिक यात्रा भाजपा के एक कार्यकर्ता के तौर पर शुरू हुई थी। उसके बाद उन्होंने हरियाणा में ही पार्टी के स्थानीय स्तर के कई कार्यालयों में कार्य किया। वर्ष 2010 में पार्टी ने उन्हें नारायणगढ़ निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ाया, जिसमें वे रामकिशन गुर्जर से हार गए। पुनः 2014 में उन्हें पार्टी ने टिकट दिया और इस बार उन्होंने 24,361 मतों से जीत दर्ज की। बाद में वे हरियाणा सरकार में राज्य मंत्री भी बनाए गए थे। मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी पार्टी के लिए ओबीसी का वोट बैंक माने जाते हैं। वे लंबे समय से पार्टी के लिए एक वफादार सिपाही के रूप में जो भी जिम्मेदारी दी गई, उसे बेहद कुशलतापूर्वक पूरा करते रहे हैं। उनकी इसी वफादारी एवं कार्य कुशलता के गुण को पुरस्कृत करते हुए पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व की ओर से उन्हें इतनी बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गई है। अब उनके पास समय बहुत कम बचा है। विधानसभा चुनाव की बात करें तो इसकी तैयारियों के लिए उनके पास अधिकतम सात महीने ही बचे हैं, जबकि लोकसभा चुनाव के लिए तो उतना समय भी नहीं बचा है। जाहिर है कि इस बचे−खुचे समय में ही उन्हें पार्टी और केंद्रीय नेतृत्व के भरोसे पर खरा उतरने के लिए हरसंभव प्रयास करना होगा।

−चेतनादित्य आलोक

(वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार एवं राजनीतिक विश्लेषक, रांची)

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