सत्ता के लिए गठबंधन तो हो जाते हैं लेकिन स्वार्थ हावी होते ही सरकारें गिर जाती हैं

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शिवसेना का उदय ही हिंदुत्ववादी विचारधारा के मुद्दे पर हुआ है। ऐसे में सिर्फ सत्ता पाने के लिए कांग्रेस, एनसीपी जैसी विपरीत विचारधारा वाली पार्टियों से गठबंधन करके लंबे समय तक सरकार चला पाना शिवसेना के लिए मुश्किल ही होगा।

हमारे देश की राजनीति में इस समय गठबंधन सरकारों का दौर चल रहा है। केंद्र में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार चल रही है। इसी तरह देश के कई प्रदेशों में गठबंधन की सरकारें काम कर रही हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के साथ गठबंधन कर सरकार बनाने का प्रयास कर रही है। कट्टर हिंदुवादी विचारधारा वाली पार्टी शिवसेना का कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी जैसी सेकुलर पार्टियों के साथ गठबंधन करना लोगों के गले नहीं उतर पा रहा है। विशेषकर महाराष्ट्र की जनता इसे एक ऐसा बेमेल गठबंधन मान रही है जो अधिक समय तक चलने वाला नहीं होगा।

शिवसेना का उदय ही हिंदुत्ववादी विचारधारा के मुद्दे पर हुआ है। ऐसे में सिर्फ सत्ता पाने के लिए कांग्रेस, एनसीपी जैसी विपरीत विचारधारा वाली पार्टियों से गठबंधन करके लंबे समय तक सरकार चला पाना शिवसेना के लिए मुश्किल ही होगा। शिवसेना के सुप्रीमो रहे स्वर्गीय बालासाहेब ठाकरे अपने हिंदुवादी एजेंडे के चलते ही महाराष्ट्र में शिवसेना का प्रभाव कायम करने में सफल रहे थे। 1995 से 1999 के कार्यकाल में बालासाहेब अपनी हिन्दुवादी छवि के बल पर ही महाराष्ट्र की सत्ता हासिल करने में सफल रहे थे। उस दौरान शिवसेना नेता मनोहर जोशी और नारायण राणे मुख्यमंत्री बने थे।

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कभी सत्ता के लिये विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता शिवसेना प्रमुख के आवास मातोश्री पर माथा टेका करते थे। मगर आज सत्ता के लिये शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे का कांग्रेस, एनसीपी जैसी धुर विरोधी विचारधारा वाली पार्टियों के नेताओं के यहां चक्कर लगाना महाराष्ट्र के लोगों को नहीं भा रहा है। हाल ही में संपन्न विधानसभा चुनावों में शिवसेना के 56 विधायक जिताने वाले विधानसभा क्षेत्रों के मतदाता भी शिवसेना नेताओं की गतिविधियों को देखकर खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। महाराष्ट्र के लोगों का मानना है कि उन्होंने भाजपा शिवसेना गठबंधन को वोट दिए थे ना कि शिवसेना-कांग्रेस-एनसीपी के गठबंधन को।

कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन को तो महाराष्ट्र की जनता ने चुनाव में सिरे से खारिज कर दिया था। प्रदेश की जनता द्वारा हालिया विधानसभा चुनाव में ठुकराये गये दलों का शिवसेना के साथ गठबंधन कर पिछले दरवाजे से सरकार बनाना महाराष्ट्र के मतदाताओं को अच्छा नहीं लग रहा है। महाराष्ट्र के लोगों का मानना है कि कांग्रेस-एनसीपी जैसे दलों के साथ जाकर उद्धव ठाकरे ने अपनी आगे की राजनीतिक साख खराब कर ली है। कांग्रेस एनसीपी के साथ जाने से शिवसेना के कट्टर हिंदुवादी समर्थक भी भाजपा की तरफ खिसकने लगेंगे। ऐसे में आगे चलकर शिवसेना को राजनीतिक दृष्टि से बड़ा नुकसान उठाना पड़ेगा जिसका शायद ठाकरे को अभी अहसास नहीं है।

लगातार दो बार 2014 व 2019 के विधानसभा चुनाव में पराजित हुये कांग्रेस और एनसीपी के नेताओं को लगने लगा है कि यदि शिवसेना के साथ रहकर पिछले दरवाजे से भी सत्ता में भागीदारी मिलती है तो उसे लेने में ही उसका भला है। उन दलों के नेताओं को पता है कि पूरे देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लहर चल रही है और यदि शिवसेना से अलग हटकर भारतीय जनता पार्टी आगे अकेले भी चुनाव लड़ती है तो महाराष्ट्र में आसानी से सरकार बना सकती है। ऐसे में शिवसेना को अपने साथ रख कर राजनीतिक रूप से कमजोर किया जा सकता है। इसी रणनीति के तहत राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी प्रमुख शरद पवार ने कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी को शिवसेना से गठबंधन करने के लिए तैयार किया है।

पुराना इतिहास देखा जाए तो भारत में गठबंधन सरकारों की उम्र ज्यादा नहीं होती है। 1977 में पहली बार केंद्र में जनता पार्टी की गठबंधन की सरकार बनी थी। जो आपसी विवादों के चलते ज्यादा समय तक नहीं चल पाई थी। उस समय भी कांग्रेस ने जनता पार्टी सरकार के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई व चौधरी चरण सिंह के बीच मनमुटाव पैदा करवा दिया था। कांग्रेस ने चौधरी चरण सिंह को समर्थन देकर प्रधानमंत्री तो बनवा दिया मगर उनकी केंद्र सरकार कुछ महिनो में ही गिर गई थी। 1980 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस भारी बहुमत से जीत गयी थी।

1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में केंद्र में एक बार फिर से जनता दल, भाजपा व वामपंथियों की गठबंधन सरकार बनी थी लेकिन आपसी खींचतान के चलते 1990 में उन्हें भी प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा था। इस बार भी कांग्रेस ने जनता दल के नेता चंद्रशेखर को भड़का कर वीपी सिंह के खिलाफ कर दिया था। जिस कारण वीपी सिंह को प्रधानमंत्री का पद छोड़ना पड़ा था। फिर 1990 में कांग्रेस के समर्थन से चंद्रशेखर देश के प्रधानमंत्री बने जो मात्र 8 महीने के बाद लोकसभा चुनाव में बुरी तरह से परास्त हो गए थे। उसके बाद 1991 में हुये चुनावों में कांग्रेस फिर से एक बार सरकार बनाने में सफल हुई थी।

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1996 में भारतीय जनता पार्टी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी गठबंधन सरकार के प्रधानमंत्री बने लेकिन वह सरकार कुछ दिनों में गिर गई। फिर 1996 में जनता दल के नेता एचडी देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने लेकिन 1997 में उन्हें भी आपसी खींचतान के चलते पद से इस्तीफा देना पड़ा। 1997 में इंद्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने लेकिन उन्हें भी 1998 में पद छोड़ना पड़ा था। ऐसे ही कुछ उदाहरण विभिन्न प्रदेशों में गठबंधन सरकारों के देखे जा सकते हैं। जम्मू-कश्मीर में दो विपरीत विचारधारा वाली पार्टियों भारतीय जनता पार्टी व पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने मिलकर गठबंधन सरकार बनाई मगर आधे कार्यकाल में ही सरकार को इस्तीफा देना पड़ा था। इस सरकार के हटने का मूल कारण दोनों दलों की विचारधारा में टकराव को माना जाता है।

12 मई 2018 को कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में सत्तारूढ़ कांग्रेस हार गई थी। वहां भारतीय जनता पार्टी 104 सीटें जीतकर सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी। मगर कांग्रेस ने जनता दल एस से हाथ मिलाकर गठबंधन सरकार बना ली जो एक साल भी नहीं चल पाई। उससे पूर्व कर्नाटक में भाजपा और जनता दल सेक्युलर के गठबंधन की सरकार बनी थी मगर वह भी अपना कार्यकाल पूरा करने से पहले ही सत्ता से चली गई थी।

उत्तर प्रदेश में दो विपरीत विचारधारा वाले दल भारतीय जनता पार्टी व बहुजन समाज पार्टी ने मिलकर सरकार बनाई थी मगर आधे समय में ही सरकार को सत्ता से हटना पड़ा था। उसके बाद 1993 में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने गठबंधन कर सरकार बनाई जिसमें मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने थे। मगर बीच रास्ते में ही बसपा नेता मायावती ने धोखा दे दिया और 2 जून 1995 को सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया था। उस समय मुलायम सिंह ने बसपा विधायकों को तोड़ कर अपनी सरकार बचा ली थी।

दिल्ली में कांग्रेस से गठबंधन कर आप ने सरकार बनाई मगर वह सरकार 49 दिन ही चल पाई थी। उसके बाद 2015 में हुये विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का एक भी विधायक नहीं जीता था। आप पार्टी के 70 में से 67 विधायक जीते। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आज भी आप की सरकार चल रही है।

गठन के 19 साल के समय में ही झारखंड में 10 सरकारें बन चुकी हैं। वहां तीन बार राष्ट्रपति शासन लग चुका है। झारखंड में हर बार गठबंधन सरकार बनी मगर कोई भी सरकार अपना आधा कार्यकाल भी पूरा नहीं कर पाई। 2014 में जरूर भाजपा ने आजसू के साथ गठबंधन कर सरकार बनाई थी। मगर बाद में मुख्यमंत्री रघुबर दास ने झारखंड विकास मार्चा के चार विधायकों को भाजपा में शामिल करवा कर पूर्ण बहुमत से पांच साल सरकार चलाई है।

-रमेश सर्राफ धमोरा

(स्वतंत्र पत्रकार)

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