आनंद मोहन सिंह की रिहाई से बिहार में किस दल के समीकरण बिगड़े और किसके बन गये?
हममें से कई लोगों को बिहार की राजनीति का वह दौर भी याद होगा जब सवर्णों को कांग्रेस का वोटर माना जाता था। कल तक जो कांग्रेस के वोटर थे आज भाजपा के वोटर हैं। और सबसे बड़ी बात यह है कि वे भाजपा में अपना भविष्य देख रहे हैं।
बिहार के महागठबंधन में इन दिनों मरता क्या नहीं करता वाली स्थिति है। जेल मैनुअल में हुई तब्दीली और बाहुबली नेता आनंद मोहन की रिहाई से तो यही लगता है कि वोट बैंक के लिए महागठबंधन अब कुछ भी करने को तैयार है। गोपालगंज के डीएम जी. कृष्णैया की हत्या मामले में आनंद मोहन उम्रकैद की सजा काट रहे थे। हालांकि आनंद मोहन की रिहाई कोई इत्तेफाक नहीं है। इसकी पटकथा पिछले कुछ वर्षों से लिखी जा रही थी। सो अब यह पटकथा पूरी हो गई है। लेकिन दिलचस्प यह है कि रिहाई की यह पटकथा उन लोगों ने लिखी है जो कभी उनके धुर विरोधी हुआ करते थे। बहुत से लोगों को मंडल कमीशन का वह दौर याद होगा। 1990 में जनता दल के टिकट पर जब पहली बार आनंद मोहन महिषी विधानसभा से विधायक चुने गए तो सबसे पहला काम उन्होंने मंडल कमीशन का विरोध करने का किया। इसके खिलाफ वे सड़कों पर उतरे। राजपूतों के बीच अपनी पकड़ बनाई और अन्य सवर्ण वोटरों के मन में अपने प्रति सहानुभूति जगाने में वे कामयाब रहे। वैशाली लोकसभा उपचुनाव में उनकी पत्नी लवली आनंद ने आरजेडी को पटखनी दी और संसद पहुंच गईं। लेकिन अब यह सब पुराने दिनों की बात है। राजनीति में कोई भी संबंध स्थाई नहीं होता। सो कल के धुर विरोधी आज एक साथ नजर आ रहे हैं। लेकिन बदलती राजनीति के इस दौर में भी लोगों को यह जानने का पूरा हक है कि उन विचारधाराओं का क्या हुआ जिसकी राजनीति ये राजनेता कर रहे थे? क्या राजद और जदयू ने मंडल कमीशन का मोह त्याग दिया है या फिर आनंद मोहन यह मानने लगे हैं कि मंडल कमीशन का विरोध करके उन्होंने बड़ी भूल की थी?
पिछले कुछ वर्षों में राजद ने भी अपनी छवि सुधारने की कोशिश की है। आम तौर पर राजद को सवर्ण विरोधी और पिछड़ों-दलितों की राजनीति करने वाला दल माना जाता है। लेकिन आनंद मोहन की छवि ठीक इसके विपरीत है। राजद का ‘माय समीकरण’ आज भी यह भूल पाने की स्थिति में नहीं है कि आनंद मोहन की छवि न सिर्फ बाहुबली नेता वाली है, बल्कि वे दलित और पिछड़ा विरोधी भी हैं। दूसरी ओर राजद है जो आज भी माय समकीरण को लेकर बेफिक्र और सवर्ण वोटों की सेंधमारी करने में लगा है। उसे लग रहा है कि आनंद मोहन के आ जाने से उनके खाते में बिहार के राजपूतों का वोट भी आ जाएगा। बिहार में राजपूत वोट 6 से 8 प्रतिशत है। लेकिन यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण होगा कि आनंद मोहन के आ जाने से राजपूत के तमाम वोट महागठबंधन के खाते में जाएंगे। बिहार की राजनीति में जाति आज भी सत्य है लेकिन समय कबिलाई सरदारों के जमाने से थोड़ा आगे निकल चुका है। आनंद मोहन के आने या उनके कहने से राजपूतों के कुछ वोट इधर-उधर हो सकते हैं लेकिन पूरा राजपूत समाज महागठबंधन के पक्ष में उठ खड़ा होगा, यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण ही है। महागठबंधन के लिए यह दो नाव पर सवारी करने जैसा हो सकता है। युद्धों के इतिहास में एक बात अक्सर देखने को मिलती है कि राजा मुख्य किले को लेकर बेफिक्र है और उसने दूसरे किले पर चढ़ाई शुरू कर दी है। दुश्मन को यह बात पता है कि राजा और उसके सैनिकों का ध्यान अभी दूसरे किले पर लगा है सो दुश्मन मुख्य किले को अपने कब्जे में ले लेता है। सारे हथियार और गोला-बारूद मुख्य किले में ही है, सो राजा दूसरे किले की लड़ाई भी हार जाता है।
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हममें से कई लोगों को बिहार की राजनीति का वह दौर भी याद होगा जब सवर्णों को कांग्रेस का वोटर माना जाता था। कल तक जो कांग्रेस के वोटर थे आज भाजपा के वोटर हैं। और सबसे बड़ी बात यह है कि वे भाजपा में अपना भविष्य देख रहे हैं। उनके सोचने का ढंग भी बदला है और इसलिए राजपूत हो या भूमिहार, ब्राह्मण हो या कायस्थ, उन्हें आनंद मोहन जैसे नेताओं में अपना कोई भविष्य नजर नहीं आ रहा है। पिछले कुछ वर्षों में भाजपा ने दलितों-पिछड़ों को अपनी ओर अकर्षित करने में कामयाबी पाई है। और निश्चित रूप से दलितों-पिछड़ों को यह समझाने में कामयाब होगी कि डीएम जी. कृष्णैया के हत्यारोपियों को रिहा कर महागठबंधन ने दलित विरोधी काम किया है। क्योंकि तेलंगाना के रहने वाले आइएएस अधिकारी जी. कृष्णैया दलित समुदाय से आते थे और ईमानदार अधिकारी माने जाते थे। आने वाले चुनावों में संभव है कि बिहार की राजनीति में कुछ पुराने समीकरण टूटे और कुछ नए समीकरण बने। हालांकि भाजपा ने भी अभी तक खुलकर आनंद मोहन की रिहाई का विरोध नहीं किया है। भाजपा तब भी चुप थी जब आनंद मोहन की रिहाई के लिए जेल मैनुअल में बदलाव किया जा रहा था। शायद भाजपा को भी राजपूत वोटों की चिंता थी। भाजपा अब आनंद मोहन की रिहाई का विरोध करने लगी है लेकिन दूसरे तरीके से। अब भाजपा कह रही है कि आनंद मोहन की रिहाई तो ठीक है लेकिन उनके साथ 27 अन्य अपराधियों को क्यों रिहा किया गया है? दूसरी ओर भाजपा यह भी बताने की कोशिश कर रही है कि आनंद मोहन को रिहा कर महागठबंधन ने दलित विरोधी काम किया है।
इससे भी ज्यादा दिलचस्प हैं आनंद मोहन के वे समर्थक जो उनकी रिहाई के अवसर पर उनसे मिलने सहरसा पहुंचे थे। बिहार और कोसी के विभिन्न क्षेत्रों से सहरसा पहुंचे उनके कई समर्थकों का कहना यह था कि वे आनंद मोहन की रिहाई का स्वागत करते हैं लेकिन वे लोग आनंद मोहन को जदयू-राजद के साथ नहीं देखना चाहते। वे आनंद मोहन को भाजपा के साथ देखना पसंद करते हैं।
महागठबंधन ने एक जमाने के ‘जानी दुश्मन’ को भी एक साथ लाने की कोशिश की है। पिछले वर्ष नवंबर में बेटी की सगाई के अवसर पर आनंद मोहन पैरोल पर रिहा होकर आए थे। इसके लिए पप्पू यादव को भी न्योता भेजा गया था। गलबहियां करते हुए दोनों की तस्वीरें सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुई थी। यूं तो यह एक औपचारिक मुलाकात थी लेकिन इसके कई राजनीतिक मायने निकाले गए। यह सवाल भी दागा गया कि क्या एक जमाने के ‘जानी दुश्मन’ अब एक साथ आएंगे? कोसी क्षेत्र में इन दोनों की ‘जानी दुश्मनी’ के कई किस्से आज भी मशहूर हैं। दोनों गुटों के बीच कई बार गैंगवार की घटनाएं हो चुकी हैं। 90 के दशक में दोनों गुटों के बीच आपसी वर्चस्व को लेकर हुए संघर्ष में कई जानें जा चुकी हैं। तो सवाल उठता लाजिमी था ही। लेकिन बिहार के वर्तमान राजनीतिक परिदृयय पर गौर करें तो पाएंगे कि महागठबंधन के लिए पप्पू यादव आज ज्यादा लाभदायक हैं, न कि आनंद मोहन। इसके कई कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि पप्पू यादव माले नेता अजीत सरकार हत्या मामले में सुबूतों के अभाव में बरी किए जा चुके हैं लेकिन डीएम जी. कृष्णैया हत्या मामले में आनंद मोहन को नीचली अदालत ने फांसी की सजा सुनाई थी, जिसे हाइकोर्ट ने उम्रकैद में बदल दिया। आनंद मोहन के समर्थक भले यह कहें कि डीएम हत्याकांड मामले में वे निर्दोष हैं लेकिन सत्य तो यही है कि इस पर कोर्ट भी मुहर लगा चुका है। इसलिए ऐसा कहना कि वे पूरी तरह निर्दोष हैं, कहीं न कहीं कोर्ट की अवमानना ही है। दूसरा और सबसे बड़ा प्रमुख कारण यह है कि जेल से रिहा होने के बाद पप्पू यादव ने लगातार अपनी छवि सुधारने की कोशिश की। बाहुबली नेता वाली छवि को त्याग कर वे लोगों के बीच गए और उनके सुख-दु:ख से नाता जोड़ने की कोशिश की। ‘माय समीकरण’ को आज भी पप्पू यादव के प्रति सहानुभूति है और बहुत से लोगों को यह जानकर हैरानी हो सकती है कि सवर्णों के मन में भी उनके प्रति सहानुभूति उपजने लगी है। हालांकि आज भी उनके खिलाफ कई संगीन मामले विभिन्न अदालतों में लंबित हैं। दूसरी ओर आनंद मोहन को बाहुबली वाली नेता की छवि से बाहर निकलने में अभी लंबा वक्त लगेगा।
जदयू-राजद इस सत्य से परिचित हैं कि पप्पू यादव उनके लिए अधिक फायदेमंद हो सकते हैं लेकिन वे पप्पू यादव के भरोसे रहना नहीं चाहते। दोनों के बीच एक अंतरविरोध है जो साफ दिखता है। राजद छोड़कर पप्पू यादव ने जनाधिकार पार्टी के नाम से अपनी दूसरी पार्टी बना ली है। उनकी पत्नी रंजीता रंजन कांग्रेस से सांसद रह चुकी हैं और जानी-मानी नेत्री हैं। कयास यह भी लगाया जा रहा है कि पप्पू यादव की पार्टी का विलय कांग्रेस में हो सकता है। ऐसी परिस्थिति जदयू और राजद दोनों के लिए विचलित करने वाली हो सकती है। भाजपा के मजबूत होने से कांग्रेस के साथ गठबंधन करना इनकी मजबूरी है। लेकिन जदयू और राजद कभी नहीं चाहेंगे बिहार में कांग्रेस फिर से मजबूत हो। क्योंकि इससे भी नुकसान उन्हीं को है, भाजपा को नहीं। आनंद मोहन की रिहाई से वोट बैंक कितना प्रभावित होगा, यह तो समय बताएगा लेकिन इतना तय है कि उनकी रिहाई से आने वाले कुछ दिनों तक बिहार की राजनीति का पारा चढ़ा रहेगा।
-सच्चिदानंद सच्चू
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