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नीतीश कुमार के कड़वे बोलों को कब तक सहेगी भाजपा ? क्या बिहार में सब ठीकठाक है ?
- संतोष पाठक
- जनवरी 13, 2021 15:34
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इस बार छोटे भाई की भूमिका में बिहार के मुख्यमंत्री के तेवर शुरुआत से ही बदले-बदले से नजर आ रहे हैं। भाषण देते हुए शांति से अपनी बात रखने वाले नीतीश कुमार की सबसे बड़ी राजनीतिक खासियत यही मानी जाती थी कि वो कम बोलते हैं, नपा-तुला बोलते हैं।
बिहार में मिलकर सरकार चला रहे एनडीए के दो सबसे बड़े घटक दल भाजपा और जेडीयू हाल ही में लगातार 2 दिनों तक अपने-अपने कार्यकर्ताओं और नेताओं के साथ मिलकर भविष्य की राजनीतिक लड़ाई लड़ने की रणनीति बनाते नजर आए। मुख्यमंत्री नीतीश की पार्टी जेडीयू की राज्य कार्यकारिणी की बैठक राजधानी पटना में हुई तो वहीं भाजपा का दो दिवसीय प्रशिक्षण शिविर राजगीर में चला। दोनों ही जगह, दोनों ही पार्टियों के नेता यह दावा करते नजर आए कि नीतीश सरकार पूरे 5 वर्ष तक चलेगी और अपना कार्यकाल पूरा करेगी। लेकिन क्या वाकई ऐसा ही होने जा रहा है ? क्या वाकई बिहार में भाजपा और जेडीयू गठबंधन में सब कुछ ठीकठाक चल रहा है ?
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राजनीति में आमतौर पर कहा जाता है- अंत भला तो सब भला यानि अगर चुनावी जीत हासिल हो गई और सरकार बन गई तो फिर बिना किसी किंतु-परंतु के सत्ता का सुख भोगना चाहिए। लेकिन भारतीय राजनीति में हमेशा से ही नए कीर्तिमान स्थापित करने वाला बिहार इस बार भी एक नया ही ट्रेंड स्थापित करता नजर आ रहा है। बिहार में विधानसभा चुनाव हुए, नीतीश कुमार के नेतृत्व में भाजपा ने चुनाव लड़ा और जनता दल यूनाइटेड के कम सीटों पर जीत हासिल करने के बावजूद भाजपा ने मुख्यमंत्री पद पर अपना दावा ठोंकने की बजाय नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही सरकार बनाई। लेकिन चुनावी जीत हासिल कर सरकार बनाने के बावजूद बिहार में कई बार ऐसा लगता है जैसे भाजपा और जेडीयू एक लंबी लड़ाई लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। ये और बात है कि दोनों ही दलों के नेता सार्वजनिक तौर पर यह बयान देते नहीं थकते कि सरकार और गठबंधन स्थिर है और नीतीश सरकार 5 साल का अपना कार्यकाल पूरा करेगी।
बदले-बदले से नीतीश नजर आते हैं..
इस बार छोटे भाई की भूमिका में बिहार के मुख्यमंत्री के तेवर शुरुआत से ही बदले-बदले से नजर आ रहे हैं। भाषण देते हुए शांति से अपनी बात रखने वाले नीतीश कुमार की सबसे बड़ी राजनीतिक खासियत यही मानी जाती थी कि वो कम बोलते हैं, नपा-तुला बोलते हैं। कड़वी से कड़वी बात भी मुस्कुराते हुए इस अंदाज में बोल जाते हैं कि विरोधियों को भी यह समझ नहीं आता कि वो नीतीश कुमार पर कैसे निशाना साधें। लेकिन इस बार विधानसभा के पहले सत्र में ही लोगों ने एक नए ही नीतीश कुमार को देखा। पहले तो वो अपनी आदत के मुताबिक खामोश रहे लेकिन बाद में विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव पर फूट पड़े। इससे पहले इतने क्रोध में इतना तीखा बोलते हुए पिछले 15 सालों में नीतीश कुमार को किसी ने नहीं देखा था। अपने गुस्से भरे तेवर के जरिए नीतीश तेजस्वी से ज्यादा सहयोगी भाजपा को संदेश देते नजर आए कि उन्हें अब चिराग में तेल डालना बिल्कुल पसंद नहीं है और नतीजा यह हुआ कि अपने आप को भाजपा का हनुमान बताने वाले चिराग पासवान अभी तक पैदल हैं।
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बिहार में जारी है शाह-मात का खेल- क्या चाहते हैं नीतीश ?
बिहार की मुख्य विपक्षी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल लगातार नीतीश सरकार को गिराने की धमकी दे रही है लेकिन लगता है कि नीतीश इससे ज्यादा परेशान नहीं हैं। हकीकत में वो साथ मिलकर सरकार चलाने वाली भाजपा से दो-दो हाथ करने के मूड में ज्यादा नजर आ रहे हैं। क्योंकि चुनाव परिणाम ने राज्य में सत्ता का संतुलन गड़बड़ा दिया है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू सहयोगी भाजपा से छोटी पार्टी बन गई है। दूसरे, भाजपा की आंतरिक संरचना भी बदल गई है। सीएम नीतीश के साथ आदर्श और भरोसेमंद सहयोगी की भूमिका निभाने वाले सुशील मोदी को भाजपा ने राज्यसभा सदस्य बनाकर दिल्ली भेज दिया है। उनकी जगह दो उप-मुख्यमंत्री बनाकर नीतीश को दोनों तरफ से घेरने की कोशिश की गई है। हालत यह हो गई है कि अब नीतीश कुमार को भाजपा के बिहार प्रभारी भूपेंद्र यादव के साथ डील करना पड़ रहा है। राज्य में भाजपा अब बिग बॉस की भूमिका में आना चाहती है लेकिन नीतीश उसे बिग बॉस मानने को तैयार नहीं और इसलिए छोटे दल के नेता के तौर पर मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद से ही नीतीश लगातार अपना कद बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं।
सबसे पहले उन्होने पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद छोड़कर उस पर अपने सबसे भरोसेमंद सहयोगी राज्यसभा सांसद आरसीपी सिंह को बैठाया। ऐसा करके उन्होंने प्रोटोकॉल स्थापित करने की कोशिश की कि बतौर मुख्यमंत्री सरकार चलाने की जिम्मेदारी उनकी है लेकिन जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर अब भाजपा नेताओं के साथ बातचीत करने और सहयोगी के रूप में बराबरी का हक हासिल करने की जिम्मेदारी जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर आरसीपी सिंह निभाएंगे। यानि अगर आने वाले दिनों में जेडीयू नेताओं की तरफ से भाजपा के खिलाफ बयानबाजी होती है तो बीच-बचाव करने के लिए भाजपा नेता सीधे नीतीश कुमार से संपर्क स्थापित नहीं करें।
राजनीतिक बयानबाजी करने का जिम्मा भी संभाल लिया है नीतीश कुमार ने
नीतीश कुमार की एक खासियत और रही है कि वो मीडिया से बहुत कम बात करते रहे हैं। मुख्यमंत्री कार्यालय से लेकर विधानसभा तक, पत्रकार सवालों की झड़ी लगाते नजर आते थे लेकिन नीतीश मुस्कुराते हुए हाथ जोड़कर निकल जाया करते थे। लेकिन इस बार तो पटना का हर पत्रकार नीतीश कुमार के रवैये से काफी हैरत में नजर आ रहा है। पत्रकार जब भी कोई सवाल लेकर नीतीश का नाम लेते हैं तो नीतीश कुमार खुद ही रुक कर जवाब देना शुरू कर देते हैं। बीच में तो कई दिन ऐसे भी गुजरे जब दिनभर में नीतीश कुमार ने 4-5 बार पत्रकारों के सवालों के जवाब दिए। साफ-साफ लग रहा है कि अपनी चुप्पी त्यागकर नीतीश खूब घूम रहे हैं, मीडिया से बात कर रहे हैं और हर सवाल का जवाब दे रहे हैं।
भाजपा से जुड़े सवालों पर तो नीतीश कुछ ज्यादा ही तेजी से प्रतिक्रिया देते नजर आते हैं। हाल ही में भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव और बिहार प्रभारी भूपेंद्र यादव ने भाजपा नेताओं के साथ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मुलाकात की। इसके बाद भाजपा नेताओं के हवाले से अखबारों में खबर छपी कि मुख्यमंत्री से बात हो गई है और मकर संक्रांति के बाद मंत्रिमंडल का विस्तार हो जायेगा। अखबार में यह खबर पढ़ने के तुरंत बाद मुख्यमंत्री सामने आते हैं, मीडिया को बयान देते हैं कि भाजपा नेताओं से मुलाकात के दौरान मंत्रिमंडल विस्तार पर कोई बातचीत नहीं हुई है। खुलकर भाजपा पर हमला बोलते हुए नीतीश कुमार यह भी बोल जाते हैं कि मंत्रिमंडल विस्तार में देरी भाजपा की वजह से हो रही है क्योंकि इससे पहले तो एक बार में ही पूरी कैबिनेट बन जाया करती थी। इससे ज्यादा खुल कर कोई मुख्यमंत्री अपने सहयोगी पर हमला नहीं कर सकता था।
जेडीयू राज्य कार्यकारिणी की बैठक में छलका नीतीश का दर्द
लोजपा से चोट खाए नीतीश कभी खुलकर तो कभी दबी जुबान में इसके लिए भाजपा पर निशाना साधते नजर आ रहे हैं। पार्टी की राज्य कार्यकारिणी की बैठक में नीतीश ने भाजपा का नाम लिए बिना उसे पीठ में छुरा भोंकने वाला और विश्वासघाती तक करार दिया गया। नीतीश बोले, उनसे गलती हुई कि वो समझ नहीं पाए कौन दोस्त है और कौन दुश्मन। इससे पहले जेडीयू नेता अपने उम्मीदवारों के हार का ठीकरा चिराग पासवान पर फोड़ रहे थे लेकिन बैठक में कई नेताओं ने खुलकर तो कई ने इशारों-इशारों में भाजपा पर निशाना साधा। यह कहा गया कि जिन 72 सीटों पर उनके उम्मीदवार चुनाव हारे, उन पर चक्रव्यूह रच कर उन्हें हराया गया। पार्टी ने यह माना कि इसमें से 36 सीटें जेडीयू बड़े अंतर से जीत रही थी लेकिन गठबंधन के भविष्य पर सवाल खड़ा कर षड्यंत्र के तहत इन्हें हराया गया।
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जिसके समर्थन से बने मुख्यमंत्री- उसी पर हमला, कब तक चलेगा ?
भाजपा पर हमला बोलने के साथ ही लगे हाथ नीतीश कुमार यह कहने से भी नहीं चूकते कि सरकार पूरे पांच साल चलेगी। लेकिन सवाल यह खड़ा हो रहा है कि जिस भाजपा के समर्थन के बल पर नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने बैठे हैं, वह कब तक अपनी आलोचना को बर्दाश्त कर पाएगी। यह तो सब जानते हैं कि बिहार में भाजपा के युवा नेताओं का बहुमत अपना मुख्यमंत्री बनाना चाहता था लेकिन एक खास रणनीति के तहत पूरे देश में एक सही संदेश देने के मकसद से भाजपा आलाकमान ने यह फैसला किया कि छोटा दल होने के बावजूद जेडीयू से नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री का पद संभालें। लेकिन अगर इसी अंदाज में नीतीश कुमार हर जगह भाजपा पर राजनीतिक हमला बोलते नजर आए, जेडीयू के नेता खुल कर भाजपा को षड्यंत्रकारी बताते नजर आए तो भाजपा आखिर इसे कब तक बर्दाश्त कर पाएगी ? कहीं ऐसा तो नहीं कि नीतीश कुमार खुद यह चाहते हैं कि भाजपा उनकी सरकार गिरा दे ताकि उनके लिए अन्य विकल्पों की तलाश करना आसान हो जाए और उनकी छवि पर कोई आंच भी नहीं आए।
-संतोष पाठक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)
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- ललित गर्ग
- जनवरी 20, 2021 13:11
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निःसंदेह बेहतर सड़कें समय की मांग हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे भीषण दुर्घटनाओं का गवाह बनती रहें। बेहतर हो कि हमारे नीति-नियंता यह समझें कि जानलेवा सड़क हादसे को रोकने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने की सख्त जरूरत है।
भारत का सड़क यातायात तमाम विकास की उपलब्धियों एवं प्रयत्नों के असुरक्षित एवं जानलेवा बना हुआ है, सुविधा की खूनी एवं हादसे की सड़कें नित-नयी त्रासदियों की गवाह बन रही है। सड़क सुरक्षा माह के उद्घाटन कार्यक्रम में केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी की ओर से दी गई यह जानकारी हतप्रभ करने वाली है कि देश में प्रतिदिन करीब 415 लोग सड़क दुर्घटनाओं में जान गंवाते हैं। कोई भी अनुमान लगा सकता है कि एक वर्ष में यह संख्या कहां तक पहुंच जाती होगी? इसका कोई मतलब नहीं कि प्रति वर्ष लगभग डेढ़ लाख लोग सड़क हादसों में जान से हाथ धो बैठे। इन त्रासद आंकड़ों ने एक बार फिर यह सोचने को मजबूर कर दिया कि आधुनिक और बेहतरीन सुविधा की सड़कें केवल रफ्तार के लिहाज से जरूरी हैं या फिर उन पर सफर का सुरक्षित होना पहले सुनिश्चित किया जाना चाहिए। हर सड़क दुर्घटना को केन्द्र एवं राज्य सरकारें दुर्भाग्यपूर्ण बताती हैं, उस पर दुख व्यक्त करती हैं, मुआवजे का ऐलान भी करती हैं लेकिन एक्सीडेंट रोकने के गंभीर उपाय अब तक क्यों नहीं किए जा सके हैं? जो भी हो, सवाल यह है कि इस तरह की तेज रफ्तार सड़कों पर लोगों की जिंदगी कब तक इतनी सस्ती बनी रहेगी? सच्चाई यह भी है कि पूरे देश में सड़क परिवहन भारी अराजकता का शिकार है। सबसे भ्रष्ट विभागों में परिवहन विभाग शुमार है।
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‘दुर्घटना’ एक ऐसा शब्द है जिसे पढ़ते ही कुछ दृश्य आंखों के सामने आ जाते हैं, जो भयावह होते हैं, त्रासद होते हैं, डरावने होते हैं, खूनी होते हैं। खूनी सड़कों में सबसे शीर्ष पर है यमुना एक्सप्रेस-वे। इस पर होने वाले जानलेवा सड़क हादसे कब थमेंगे? यह प्रश्न इसलिए, क्योंकि इस पर होने वाली दुर्घटनाओं और उनमें मरने एवं घायल होने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। यही नहीं, देश की अन्य सड़कें इसी तरह इंसानों को निगल रही हैं, मौत का ग्रास बना रही हैं। इनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। सड़क दुर्घटनाओं में लोगों की मौत यही बताती है कि अपने देश की सड़कें कितनी अधिक जोखिम भरी हो गई हैं। बड़ा प्रश्न है कि फिर मार्ग दुर्घटनाओं को रोकने के उपाय क्यों नहीं किए जा रहे हैं? सच यह है कि बेलगाम वाहनों की वजह से सड़कें अब पूरी तरह असुरक्षित हो चुकी हैं। सड़क पर तेज गति से चलते वाहन एक तरह से हत्या के हथियार होते जा रहे हैं वहीं सुविधा की सड़कें खूनी मौतों की त्रासद गवाही बनती जा रही हैं।
सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय लोगों के सहयोग से वर्ष 2025 तक सड़क हादसों में 50 प्रतिशत की कमी लाना चाहता है, लेकिन यह काम केवल सड़क सुरक्षा माह के माध्यम से लोगों को जागरूक करने भर से होने वाला नहीं है। सड़क हादसों के प्रति लोगों को सजग करने का अपना एक महत्व है, लेकिन बात तो तब बनेगी जब मार्ग दुर्घटनाओं के मूल कारणों का निवारण करने के लिए ठोस कदम भी उठाए जाएंगे। कुशल ड्राइवरों की कमी को देखते हुए ग्रामीण एवं पिछड़े इलाकों में ड्राइवर ट्रेनिंग स्कूल खोलने की तैयारी सही दिशा में उठाया गया कदम है, लेकिन इसके अलावा भी बहुत कुछ करना होगा। हमारी ट्रैफिक पुलिस एवं उनकी जिम्मेदारियों से जुड़ी एक बड़ी विडम्बना है कि कोई भी ट्रैफिक पुलिस अधिकारी चालान काटने का काम तो बड़ा लगन एवं तन्मयता से करता है, उससे भी अधिक रिश्वत लेने का काम पूरी जिम्मेदारी से करता है, प्रधानमंत्रीजी के तमाम भ्रष्टाचार एवं रिश्वत विरोधी बयानों एवं संकल्पों के यह विभाग धड़ल्ले से रिश्वत वसूली करता है, लेकिन किसी भी अधिकारी ने यातायात के नियमों का उल्लघंन करने वालों को कोई प्रशिक्षण या सीख दी हो, नजर नहीं आता। यह स्थिति दुर्घटनाओं के बढ़ने का सबसे बड़ा कारण है।
जरूरत है सड़कों के किनारे अतिक्रमण को दूर करने की, आवारा पशुओं के प्रवेश एवं बेघड़क घुमने को भी रोकने की। दोनों ही स्थितियां सड़क हादसों का कारण बनती हैं, खासकर तब और भी जब ऐसे ठिकानों पर बस, ट्रक और अन्य वाहन खड़े कर दिए जाते हैं। यह ठीक नहीं कि ढाबे भारी वाहनों के लिए पार्किंग स्थल बन जाएं। यह भी समझने की जरूरत है कि सड़क किनारे बसे गांवों से होने वाला हर तरह का बेरोक-टोक आवागमन भी जोखिम बढ़ाने का काम करता है। इस स्थिति से हर कोई परिचित है, लेकिन ऐसे उपाय नहीं किए जा रहे, जिससे कम से कम राजमार्ग तो अतिक्रमण और बेतरतीब यातायात से बचे रहें। इसमें संदेह है कि उलटी दिशा में वाहन चलाने, लेन की परवाह न करने और मनचाहे तरीके से ओवरटेक करने जैसी समस्याओं का समाधान केवल सड़क जागरूकता अभियान चला कर किया जा सकता है। इन समस्याओं का समाधान तो तब होगा जब सुगम यातायात के लिए चौकसी बढ़ाई जाएगी और लापरवाही का परिचय देने अथवा जोखिम मोल लेने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी, चालान काटना या नये-नये जुर्माने की व्यवस्था करने से सड़क दुर्घटनाएं रूकने वाली नहीं हैं। यह ठीक नहीं कि जानलेवा सड़क दुर्घटनाओं का सिलसिला कायम रहने के बाद भी राजमार्गों पर सीसीटीवी और पुलिस की प्रभावी उपस्थिति नहीं दिखती।
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यह गंभीर चिंता का विषय और विडम्बनापूर्ण है कि हर रोज ऐसी दुर्घटनाओं और उनके भयावह नतीजों की खबरें आम होने के बावजूद बाकी वाहनों के मालिक या चालक, सरकार और परिवहन विभाग कोई सबक नहीं लेते। सड़क पर दौड़ती गाड़ी मामूली गलती से भी न केवल दूसरों की जान ले सकती है, बल्कि खुद चालक और उसमें बैठे लोगों की जिंदगी भी खत्म हो सकती है। पर लगता है कि सड़कों पर बेलगाम गाड़ी चलाना कुछ लोगों के लिए मौज-मस्ती एवं फैशन का मामला होता है लेकिन यह कैसी मौज-मस्ती या फैशन है जो कई जिन्दगियां तबाह कर देती है। ऐसी दुर्घटनाओं को लेकर आम आदमी में संवेदनहीनता की काली छाया का पसरना त्रासद है और इससे भी बड़ी त्रासदी सरकार की आंखों पर काली पट्टी का बंधना है। हर स्थिति में मनुष्य जीवन ही दांव पर लग रहा है। इन बढ़ती दुर्घटनाओं की नृशंस चुनौतियों का क्या अंत है? बहुत कठिन है दुर्घटनाओं की उफनती नदी में जीवनरूपी नौका को सही दिशा में ले चलना और मुकाम तक पहुंचाना, यह चुनौती सरकार के सम्मुख तो है ही, आम जनता भी इससे बच नहीं सकती।
निःसंदेह बेहतर सड़कें समय की मांग हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे भीषण दुर्घटनाओं का गवाह बनती रहें। बेहतर हो कि हमारे नीति-नियंता यह समझें कि जानलेवा सड़क हादसे को रोकने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने की सख्त जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट भी तल्ख टिप्पणी कर चुका है कि ड्राइविंग लाइसेंस किसी को मार डालने के लिए नहीं दिए जाते। सच्चाई यह भी हैं कि नियमों के उल्लंघन की एवज में पुलिस की पकड़ में आने वाले लोग बिना झिझक जुर्माना चुकाकर अपनी गलती के असर को खत्म हुआ मान लेते हैं। परिवहन नियमों का सख्ती से पालन जरूरी है, केवल चालान काटना समस्या का समाधान नहीं है। देश में 30 प्रतिशत ड्राइविंग लाइसेंस फर्जी हैं। परिवहन क्षेत्र में भारी भ्रष्टाचार है लिहाजा बसों का ढंग से मेनटेनेंस भी नहीं होता। इनमें बैठने वालों की जिंदगी दांव पर लगी होती है। देश भर में बसों के रख-रखाव, उनके परिचालन, ड्राइवरों की योग्यता और अन्य मामलों में एक-समान मानक लागू करने की जरूरत है, तभी देश के नागरिक एक राज्य से दूसरे राज्य में निश्चिंत होकर यात्रा कर सकेंगे।
सड़क हादसों में मरने वालों की बढ़ती संख्या ने आज मानो एक महामारी का रूप ले लिया है। इस बारे में राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े दिल दहलाने वाले हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, दुनिया के अट्ठाईस देशों में ही सड़क हादसों पर नियंत्रण की दृष्टि से बनाए गए कानूनों का कड़ाई से पालन होता है। इंसानों के जीवन पर मंडरा रहे सड़क हादसों के डरावने दृश्य एवं दुर्घटनाओं पर काबू पाने के लिये प्रतीक्षा नहीं, प्रक्रिया आवश्यक है। तेज रफ्तार से वाहन दौड़ाते वाले लोग सड़क के किनारे लगे बोर्ड़ पर लिखे वाक्य ‘दुर्घटना से देर भली’ पढ़ते जरूर हैं, किन्तु देर उन्हें मान्य नहीं है, दुर्घटना भले ही हो जाए।
-ललित गर्ग
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- ललित गर्ग
- जनवरी 19, 2021 13:27
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एक सकारात्मक वातावरण के अन्तर्गत आने वाले समय में अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण पूरा होने तक ऐसे जागृति अभियान और हिन्दुत्व को संगठित करने के कार्यक्रम चलते रहेंगे जिनसे भारत सहित संपूर्ण विश्व में फैले हिंदुओं के अंदर हिंदुत्व चेतना जागृत रहे।
अयोध्या में भव्य श्रीराम मन्दिर निर्माण को लेकर देशभर में चल रहा निधि समर्पण अभियान जहां सामाजिक समता एवं सौहार्द का दर्पण है वहीं भारतीय जनता पार्टी एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हिन्दुत्व सशक्तिकरण का माध्यम भी है। विश्व हिन्दू परिषद इसके माध्यम से ऊंच-नीच, संकीर्णता, स्वार्थ एवं जातिवाद का भेद मिटाकर हिन्दू समाज को एकजुट एवं सशक्त करने में जुटी है। राम मंदिर निर्माण संघ के लिए हिंदुओं के पुनर्जागरण और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का लक्ष्य हासिल करने का एक महत्वपूर्ण चरण रहा है।
आजादी के बाद से ही हिन्दुत्व को कमजोर करने एवं हिन्दू आस्था केन्द्रों के प्रति राजनीतिक उपेक्षाएं बढ़ती ही गयी थीं। वैसे मध्यकाल एवं विशेष मुस्लिम शासकों ने बड़ी मात्रा में हिन्दू आस्था के केन्द्रों एवं हिन्दू-आस्था को ध्वस्त किया। संघ एवं उससे जुड़े संगठन ही एकमात्र ऐसी रोशनी रही है जिन्होंने हिन्दुओं के अंदर यह भाव पैदा किया कि उनके आस्था केंद्रों पर चोट पहुंचाई गई, उनको तोड़ा गया, दूसरे मजहब के केंद्र बनाए गए, जबरन धर्म परिवर्तन किया गया, शिक्षा पद्धति में हिन्दुत्व की उपेक्षा की गयी और अब उन सबको मुक्त कराना हमारा धर्म है एवं दायित्व भी। संघ धीरे-धीरे लोगों के अंदर ये भावनाएं पैदा करने में सफल हुआ है। उनके अंदर यह विश्वास कायम हो रहा है कि भाजपा सत्ता में रहेगी तो आस्था केंद्रों की मुक्ति का रास्ता आसान होगा, न केवल आस्था केन्द्रों का बल्कि हिन्दुत्व के अजेंडे़ को भी तभी पूरा किया जा सकेगा।
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संघ और भाजपा के एजेंडे में श्रीराम मन्दिर के अलावा कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाना, समान नागरिक संहिता लागू करना, गोवंश हत्या निषेध और लव जिहाद को रोकने के आशय वाले कानूनों का निर्माण करना शामिल है। एक बड़ा मसला अब मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि और काशी में श्रीविश्वनाथ की मुक्ति का है। मथुरा से संबंधित मामले न्यायालय में विचाराधीन हैं। संघ चाहता है कि मथुरा की तरह ही काशी विश्वनाथ और संपूर्ण भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में छोटे-बड़े मंदिरों के मामले न्यायालयों में डाले जाएं। हिन्दुत्व आस्था एवं संस्कृति को बहुत जतन से बर्बरतापूर्वक कुचला गया, अब पुनः हिन्दुत्व संस्कृति को गरिमा प्रदान करते हुए उसे जीवंत करने का अभियान चल रहा है। हिन्दू घोर अंधेरी रात के साक्षी रहे हैं, एक-दूसरे का हाथ नहीं थामेंगे तो सुबह की दहलीज पर नहीं पहुंच पायेंगे।
एक सकारात्मक वातावरण के अन्तर्गत आने वाले समय में मंदिर का निर्माण पूरा होने तक ऐसे जागृति अभियान और हिन्दुत्व को संगठित करने के कार्यक्रम चलते रहेंगे जिनसे भारत सहित संपूर्ण विश्व में फैले हिंदुओं के अंदर हिंदुत्व चेतना जागृत रहे। संघ अपनी स्थापना के समय से ही हिंदू राष्ट्र की बात करता है। संघ नौ दशकों बाद दुनिया के सबसे बड़े संगठन के रूप में खुद को स्थापित कर पाया है तो इसका कारण स्पष्ट नीति, सकारात्मक सोच, संस्कृति-विचार एवं अपनी जड़ों को मजबूती प्रदान करना है।
दुनिया के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना केशव बलराम हेडगेवार ने की थी। भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लक्ष्य के साथ 27 सितंबर 1925 को विजयदशमी के दिन आरएसएस की स्थापना केशव बलिराम हेडगेवार व संघ के कार्यकर्ताओं द्वारा की गई थी। हेडगेवार के साथ विश्वनाथ केलकर, भाऊजी कावरे, अण्णा साहने, बालाजी हुद्दार, बापूराव भेदी आदि थे। उस वक्त हिंदुओं को सिर्फ संगठित करने का विचार था। संघ परिवार या भाजपा का मानना है कि भारत हिंदू राष्ट्र था, है और रहेगा।
संघ का दावा है कि उसके एक करोड़ से ज्यादा जीवनदानी समर्पित सदस्य हैं। संघ परिवार में 80 से ज्यादा समविचारी या आनुषांगिक संगठन हैं। दुनिया के करीब 40 देशों में संघ सक्रिय है। मौजूदा समय में संघ की 56 हजार से अधिक दैनिक शाखाएं लगती हैं। करीब 13 हजार 847 साप्ताहिक मंडली और 9 हजार मासिक शाखाएं भी हैं। संघ ने अपने लंबे सफर में कठोर संघर्ष के उपरान्त कई उपलब्धियां अर्जित कीं जबकि तीन बार उस पर प्रतिबंध भी लगा। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या को संघ से जोड़कर देखा गया, संघ के दूसरे सरसंघचालक गुरु गोलवलकर को बंदी बनाया गया। लेकिन 18 महीने के बाद संघ से प्रतिबंध हटा दिया गया। दूसरी बार आपातकाल के दौरान 1975 से 1977 तक संघ पर पाबंदी लगी। तीसरी बार छह महीने के लिए 1992 के दिसंबर में लगी, जब 6 दिसंबर को अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिरा दी गई थी। तमाम वितरीत परिस्थितियों एवं अवरोधों के, संघ हर बार अधिक तेजस्विता एवं प्रखरता से उभर कर सामने आया।
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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सम्पूर्ण साहस, सूझबूझ एवं तय सोच के साथ वैसे कदम उठा रहे हैं जिनकी चाहत संघ परिवार के एक-एक कार्यकर्ता और समर्थक के अंदर सालों से कायम रही है। दिशा एवं दशा, समय और संयोग भी उनका साथ दे रहा है। उदाहरण के लिए अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का रास्ता उच्चतम न्यायालय ने साफ कर दिया। इसके पूर्व तीन तलाक को अपराध करार देने के कानून का आधार भी न्यायालय के फैसले ने ही प्रदान किया। अयोध्या पर न्यायालय के फैसले के बाद पूरा संघ परिवार मंदिर निर्माण की प्रक्रिया को अपनी सोच के अनुसार आगे बढ़ा रहा है। संपूर्ण देश को इससे जोड़ने का कार्यक्रम भी अनुकूल माहौल निर्मित कर रहा है। क्योंकि संघ ने धीरे-धीरे अपनी पहचान एक अनुशासित और राष्ट्रवादी संगठन की बनाई। जिससे न केवल देश में बल्कि दुनिया में इसके समर्थन का माहौल बन रहा है। सच तो यह है कि संस्कृति, मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं का कोई मजहब और सम्प्रदाय नहीं होता। अगर संवेदनहीनता एक तरफ है और वह समस्याओं की जड़ में है, तो वैसी ही संवेदनहीनता उस तरफ भी पायी जाती है जिधर आरोप लगाने वाले होते हैं। सबसे बड़ी बात अपने भीतर के न्यायाधिपति के सामने खड़े होकर खुद को जांचने, सुधारने, संगठित होने और आगे का रास्ता तय करने की होती है।
संघ साफ तौर पर हिंदू समाज को उसके धर्म और संस्कृति के आधार पर शक्तिशाली बनाने की बात करता है। संघ से निकले स्वयंसेवकों ने ही भाजपा को स्थापित किया। संघ एवं भाजपा के प्रयासों से आज समूचा देश राममय बना है, भगवान श्रीराम सबके हैं, इसलिये उनके मन्दिर निर्माण में सबसे सहयोग लेने के प्रयास हो रहे हैं। इसी मन्दिर के लिये गुरु गोविन्द सिंह ने भी दो बार युद्ध लड़ा। गुरुनानक देवजी जब अयोध्या आये थे तब अपने शिष्य मर्दाना को बोला था कि यह मेरे पूर्वजों की धरती है। जैन धर्म के 24 में से 22 तीर्थंकरों की यह कल्याणक भूमि है तो महात्मा बुद्ध श्रीराम के वंश से जुड़े थे। बाबा साहब अंबेडकर ने कई बार अयोध्या का जिक्र किया तो महात्मा गांधी ने तो अपने प्राण ही श्रीराम को पुकारते हुए त्यागे थे। हिन्दू संस्कृति सबसे प्राचीन ही नहीं, समृद्ध और जीवंत संस्कृति भी है। यह राष्ट्रीयता की द्योतक है। अतः राष्ट्रीयता को सशक्त एवं समृद्ध हमें अपने सांस्कृतिक तत्वों से करना चाहिए अन्यथा मानसिक दासता हमें अपनी संस्कृति के प्रति गौरवशील नहीं रहने देगी। यह भारत भूमि जहां राम-भरत की मनुहारों में 14 वर्ष पादुकाएं राज-सिंहासन पर प्रतिष्ठित रहीं, महावीर और बुद्ध जहां व्यक्ति का विसर्जन कर विराट बन गये, श्रीकृष्ण ने जहां कुरुक्षेत्र में गीता का ज्ञान दिया और गांधीजी संस्कृति के प्रतीक बनकर विश्व क्षितिज पर एक आलोक छोड़ गये, उस देश में एक समृद्ध संस्कृति को धुंधलाने के प्रयत्न होना, सत्ता के लिये मूल्यों एवं संस्कृति को ध्वस्त करना, कुर्सी के लिये सिद्धान्तों का सौदा, वैभव के लिये अपवित्र प्रतिस्पर्धा और विलास के हाथों राष्ट्र को कमजोर करने का षड्यंत्र होना लगातार चुभन पैदा करता रहा है, अब इन धुंधलकों के बीच रोशनी का अवतरण हो रहा है तो उसका स्वागत होना चाहिए। संघ परिवार एवं भाजपा इस दिशा में जितना प्रखर होकर चलेंगे, देश उतना ही सशक्त होगा। जितने मजबूत इनके इरादे होंगे, उतना ही जन-समर्थन बढ़ेगा।
-ललित गर्ग
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- अजय कुमार
- जनवरी 18, 2021 13:44
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2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी ने हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद की ऐसी अलख जलाई की शहर से लेकर गाँव तक में मोदी-मोदी होने लगा, लेकिन इसका यह मतलब नहीं था कि बीजेपी ने गाँव-देहात में अपने संगठन को मजबूत कर लिया था। बीजेपी पर शहरी पार्टी होने का ठप्पा लगा था।
भारतीय जनता पार्टी का ग्राफ लगातार बढ़ता जा रहा है। 1980 में गठन के बाद 1984 के लोकसभा चुनाव में दो सीटें जीतने वाली बीजेपी के आज तीन सौ से अधिक सांसद हैं। कई राज्यों में उसकी सरकारें हैं, लेकिन बीजेपी आज भी सर्वमान्य पार्टी नहीं बन पाई है। दक्षिण के राज्यों में उसकी पकड़ नहीं के बराबर है। कर्नाटक को छोड़ दें तो दक्षिण के राज्यों- आन्ध्र प्रदेश, केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना में आज भी बीजेपी ज्यादातर मुकाबले में नजर नहीं आती है। इसी के चलते बीजेपी पर पूरे देश की बजाए उत्तर भारतीयों की पार्टी होने का ठप्पा चस्पा रहता है। उत्तर भारत में भी बीजेपी को लेकर बुद्धिजीवियों और राजनैतिक पंडितों की अलग-अलग धारणा है। कभी बीजेपी को बनिया (व्यापारियों) और ब्राह्मणों की पार्टी कहा जाता था, तो ऐसे लोगों की भी संख्या कम नहीं थी जो बीजेपी को शहरी पार्टी बताया करते थे। इस अभिशाप को मिटाने के लिए बीजेपी को काफी पापड़ बेलने पड़े तो प्रभु राम ने उसका (बीजेपी) बेड़ा पार किया।
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अयोध्या में भगवान राम की जन्मस्थली के पांच सौ वर्ष पुराने विवाद में ‘कूद’ कर बीजेपी ने ऐसा रामनामी चोला ओढ़ा कि वह बनिया-ब्राह्मण की जगह हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद की लम्बरदार बन बैठी। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की राजनैतिक इकाई भारतीय जनता पार्टी ने वर्षों से अलग-अलग अपनी ढपली बजाने वाले हिन्दुओं को भगवान राम के नाम पर एकजुट करके उसे बीजेपी का वोट बैंक भी बना दिया, लेकिन फिर भी बीजेपी के ऊपर शहरी पार्टी होने का ठप्पा तो लगा ही रहा। यह वह दौर था जब बीजेपी को छोड़कर कांग्रेस सहित अन्य तमाम गैर-भाजपाई दल मुस्लिम तुष्टिकरण की सियासत में लगे हुए थे। वहीं हिन्दुओं के वोट बंटे रहें, इसके लिए साजिशन हिन्दुओं के बीच जातिवाद घोलकर उनके वोटों में बिखराव पैदा किया गया। यादवों के रहनुमा मुलायम बन गए और मायावती दलितों को साधने में सफल रहीं। हिन्दुओं के वोट बैंक में बिखराव के सहारे ही बिहार में लालू यादव और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह ने वर्षों तक सत्ता हासिल करने में कामयाबी हासिल की। बसपा सुप्रीम मायावती ने भी कई बार दलित-मुस्लिम वोट बैंक के सहारे सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने में कामयाबी हासिल की। यह सब तब तक चलता रहा जब तक कि भारतीय जनता पार्टी में मोदी युग का श्रीगणेश नहीं हुआ था।
2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी ने हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद की ऐसी अलख जलाई की शहर से लेकर गाँव तक में मोदी-मोदी होने लगा, लेकिन इसका यह मतलब नहीं था कि बीजेपी ने गाँव-देहात में अपने संगठन को मजबूत कर लिया था। बीजेपी पर शहरी पार्टी होने का ठप्पा लगा था। इस ठप्पे को हटाने के लिए ही मोदी सरकार ने तमाम विकास योजनाओं का रूख गांव-देहात और अन्नदाताओं की तरफ मोड़ दिया। फसल बीमा योजना, कृषि में मशीनीकरण, जैविक खेती, सॉइल हेल्थ कार्ड और प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना ऐसी प्रमुख योजनाएं हैं जो केंद्र सरकार के द्वारा चलाई जा रही हैं। किसानों से लगातार संवाद किया जा रहा है। किसानों की माली हालत सुधारने के लिए कई राहत पैकजों की भी घोषणा की गई। नया कृषि कानून भी इसका हिस्सा है जिसको लेकर आजकल पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ किसानों ने मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा भी खोल रखा है। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने नये कृषि कानून पर अंतरिम रोक लगा कर एक कमेटी भी गठित कर दी है।
एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी किसानों को लेकर कई कदम उठा रहे हैं तो दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश की योगी सरकार भी केन्द्र सरकार के पदचिन्हों पर चलते हुए कई किसान योजनाएं लेकर आई है। इसी क्रम में उत्तर प्रदेश में सिंचन क्षमता में वृद्धि तथा सिंचाई लागत में कमी लाकर कृषकों की आय में वृद्धि करने के उद्देश्य से स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणाली को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। 50 लाख किसान ड्रिप स्प्रिंकलर सिंचाई योजना से लाभान्वित हुए। योजना में लघु एवं सीमांत कृषकों को 90 प्रतिशत एवं सामान्य कृषकों को 80 फीसदी का अनुदान मिला है। लघु, सीमांत, अनुसूचित जाति एवं जनजाति के कृषक समूह के लिए मिनी ग्रीन ट्यूबवेल योजना की भी शुरुआत की गई है। योजना के तहत नलकूप के सबमर्सिबल पम्प का संचालन सौर ऊर्जा के माध्यम से किया जाएगा।
योगी सरकार खेतों की मुफ्त में जुताई और बुवाई का भी कार्यक्रम लेकर आई है। पहले चरण में ये योजना यूपी के लखनऊ, वाराणसी और गोरखपुर समेत 16 जिलों में लागू की गई। इसके तहत लघु और सीमांत किसानों को राहत देने के लिए योगी सरकार ने ट्रैक्टरों से मुफ्त में खेतों की जुताई और बुवाई कराने जैसी बड़ी सुविधा दी गई है। मुख्यमंत्री कृषक योजना के तहत 500 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। हाल ही में किसान सम्मान निधि योजना के तहत 2.13 करोड़ किसानों के बैंक खातों में 28,443 करोड़ रुपये हस्तांतरित किये गये। देश के किसानों के लिए यह सब योजनाएं केन्द्र की मोदी सरकार लाई है तो यूपी की योगी सरकार अपने प्रदेश के किसानों की माली हालत सुधारने में लगी है।
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बात सरकार से अलग संगठन की कि जाए तो भारतीय जनता पार्टी इसमें भी अपनी पूरी ताकत झोंके हुए है। शहर के चौक-चौराहों से निकलकर बीजेपी गाँव-देहात में चौपालों तक दस्तक देने लगी है। इसीलिए भारतीय जनता पार्टी पंचायत चुनावों में भी ताल ठोंकने लगी है। कई राज्यों के पंचायत चुनाव में बीजेपी अपनी ताकत दिखा भी चुकी है। इसी क्रम में उत्तर प्रदेश में भी भारतीय जनता पार्टी ने गांव की सरकार के चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है। भाजपा पंचायत चुनाव को लेकर बेहद गंभीर है। अबकी बार बीजेपी अपने चुनाव चिन्ह कमल के निशान पर पंचायत चुनाव लड़ने जा रही है ताकि भविष्य में बीजेपी ताल ठोक कर कह सके कि उसकी पहुंच गाँव-गाँव तक है।
दरअसल, पार्टी अभी तक त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव (जिला पंचायत, क्षेत्र पंचायत और ग्राम पंचायत) में अपने उम्मीदवारों को सिर्फ समर्थन देती थी, सिंबल नहीं दिया जाता था। प्रत्याशी को बीजेपी समर्थित कहा जाता था, लेकिन मौजूदा बीजेपी नेतृत्व का मानना है कि हर राजनीतिक दल को खुद का कर्तव्य मानकर हर चुनाव में उम्मीदवार उतारने चाहिए क्योंकि चुनाव के दौरान सियासी दलों को अपनी नीतियां और योजनाओं को आमजन के सामने रखने का खास अवसर मिलता है। चुनाव सियासी दलों की परीक्षा समान हैं।
-अजय कुमार
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