नागरिकता कानून पर विपक्ष से सँवाद करे सरकार तो सुलझ सकते हैं उलझे तार

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डॉ. संजीव राय । Jan 24 2020 7:20PM

आरोप-प्रत्यारोप की बजाय बेहतर यह होगा कि सरकार इस मुद्दे पर बातचीत की पहल करे। ज़रूरी नहीं है कि एक संवाद आयोजित होने से असहमति खत्म हो जाएगी लेकिन बातचीत का रास्ता खुला रखने से किसी भी मुद्दे के एक रचनात्मक हल की उम्मीद बंधी रहती है।

संशोधित नागरिकता कानून को लेकर उठ रही शंकाओं और इसके समर्थन के तर्क, दोनों ही सोशल मीडिया के ज़रिये दुनिया भर में फ़ैल रहे हैं लेकिन पक्ष और विपक्ष के बीच जो संवाद होना चाहिए, वह नहीं हो रहा है। देश में पुलिस और न्यायालय पहले से ही काम के दबाव में हैं। लम्बे होते विरोध प्रदर्शनों के चलते शांति भंग होने की आशंका में तैनात पुलिस, उनके अपराधियों को पकड़ने के काम को ही प्रभावित करेगी। शाहीन बाग़ में चल रहे धरने से नोएडा-कालिंदी कुंज का रास्ता महीनों से बंद है और इसका असर दूसरे रास्तों पर ट्रैफिक जाम के रूप में देखने को मिल रहा है। 

नए नागरिकता कानून को लेकर बहस सड़क-संसद से होते हुए सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच चुकी है। सुप्रीम कोर्ट ने अपना पक्ष साफ़ कर करते हुए फिलहाल इस कानून पर रोक लगाने से मना कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को निर्देशित किया है कि वह अगले एक महीने में अपना पक्ष प्रस्तुत करे। आगे अब इस मामले की सुनवाई पांच जजों की बेंच करेगी। हालांकि सरकार के प्रतिनिधि सार्वजनिक मंचों से नए नागरिकता कानून में किसी भी तरह के बदलाव से इंकार कर रहे हैं लेकिन विपक्ष और कई ट्रेड यूनियन, अनेक नागरिक संगठन और छात्र संगठन कानून में बदलाव करने की मांग को लेकर महीनों से आंदोलनरत हैं।

उत्तर प्रदेश और दिल्ली में कई जगहों पर हिंसा, लाठीचार्ज और आगजनी की घटनाएं हुईं। कुछ लोगों की जान गई, गिरफ़्तारी हुई, बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारी घायल भी हुए। पुलिस के ऊपर आरोप है कि उसने  बेकसूर लोगों को पीटा और केस में फंसाया है। पुलिस के अपने तर्क हैं लेकिन बहुत से लोग कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद सबूतों के अभाव में निरपराध सिद्ध हुए। 

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दिल्ली, मुंबई, गया, प्रयागराज, हैदराबाद, गौहाटी, कोच्चि आदि शहरों में नए नागरिकता कानून को लेकर कुछ प्रदर्शन लगातार हो रहे हैं। कुछ स्थानों पर इस कानून के समर्थन में भी नागरिकों द्वारा रैली निकाली गई है। कहीं विरोध में कोई गीत-कविता गा रहा है तो कोई उसकी शिकायत और प्रतिरोध में लगा है। भारतीय जनता पार्टी ने इस कानून के समर्थन में देश भर के लिए कार्यक्रम बनाये हैं और जल्दी ही उनके कार्यकर्त्ता घर-घर जाकर लोगों को इस कानून के बारे में समझायेंगे। इससे बेहतर होता कि सरकार और विपक्ष मिलकर एक समिति का गठन करते जो उन बिंदुओं को रेखांकित करें, जिस पर विपक्ष को आपत्ति है। लेकिन सीधा संवाद नहीं होने से जहाँ सरकार को बार-बार अपना स्टैंड रखना पड़ रहा है वहीँ जो विरोध में हैं उन्हें अपनी आवाज़ सुनाने के लिए नए-नए तरीके अपनाने पड़ रहे हैं।

आरोप-प्रत्यारोप और मानव संसाधनों की सीमित उपयोगिता की बजाय बेहतर यह होगा कि सरकार इस मुद्दे पर बातचीत की पहल करे। ज़रूरी नहीं है कि एक संवाद आयोजित होने से असहमति खत्म हो जाएगी लेकिन बातचीत का रास्ता खुला रखने से किसी भी मुद्दे के एक रचनात्मक हल की उम्मीद बंधी रहती है। संवाद का रास्ता अन्याय और बहिष्करण की भावना को खत्म करता है। दुनिया में शीत-युद्ध और परमाणु बम के ख़तरे भी बातचीत से टाले गए तो यह तो हमारा आंतरिक मामला है।

वैसे भी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में लोगों द्वारा चुनी हुई सरकार अपने नागरिकों से चुनाव के पहले और बाद में संवाद ही तो करती है तो क्यों नहीं इस मुद्दे पर भी बातचीत की पहल की जाए। कौन चाहेगा कि  दूसरे देश के लोग हमें इस कानून पर नसीहत दें ? इस मुद्दे पर लम्बा गतिरोध अन्ततः किसी के हित में नहीं है, न सरकार के और न विपक्ष और न बाज़ार के। हम गाँधी जी की 150वीं जयंती मना रहे हैं और ऐसे में अपनों से संवाद के लिए हमको और किसी मौके का इंतज़ार क्यों होना चाहिए।

-डॉ. संजीव राय

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