Bihar में BJP ने यादव उम्मीदवारों की संख्या घटाई तो JDU ने मुस्लिमों को कम टिकट दिये, NDA की रणनीति में आया दिलचस्प मोड़

Modi Nitish
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2014 के बाद से भाजपा ने लगातार प्रयास किया कि वह बिहार में यादव और मुस्लिमों जैसे पारंपरिक रूप से राजद समर्थक वर्गों में सेंध लगाए। 2015 और 2020 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने कई यादव उम्मीदवार उतारकर यह संकेत दिया था कि वह “लालू के यादव वोट बैंक” को तोड़ने के लिए तैयार है।

बिहार विधानसभा चुनावों से पहले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने अपने उम्मीदवार चयन में एक स्पष्ट रणनीतिक मोड़ लिया है। जहां पिछली बार भाजपा और जद (यू) दोनों दल यादव समुदाय को साधने की कोशिश में लगे थे, वहीं इस बार उन्होंने उस सामाजिक प्रयोग से पीछे हटकर अपने पारंपरिक समर्थन आधार को सुदृढ़ करने पर ध्यान केंद्रित किया है। भाजपा ने इस बार केवल 6 यादव उम्मीदवार उतारे हैं, जबकि 2020 में यह संख्या 16 थी। इसी तरह नीतीश कुमार की जद (यू) ने भी यादव प्रत्याशियों की संख्या 18 से घटाकर 8 कर दी है। इसकी बजाय भाजपा ने कई सीटों पर कुशवाहा, निशाद और वैश्य समुदायों को टिकट देकर संकेत दिया है कि पार्टी अब गैर-यादव पिछड़ों और परंपरागत उच्च जातियों पर भरोसा बढ़ा रही है।

इसके अलावा, जद (यू) ने अपने मुस्लिम प्रत्याशियों की संख्या भी 11 से घटाकर केवल 4 कर दी है। यह इस बात का प्रमाण है कि अब वह यह मानकर चल रही है कि मुस्लिम मतदाता स्थायी रूप से राजद खेमे में जा चुके हैं। नीतीश की पार्टी ने 25 टिकट कुर्मी-कोयरी (कुशवाहा) जातियों को और 22-22 टिकट ऊँची जातियों व अत्यंत पिछड़े वर्गों को दिए हैं।

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हम आपको बता दें कि 2014 के बाद से भाजपा ने लगातार प्रयास किया कि वह बिहार में यादव और मुस्लिमों जैसे पारंपरिक रूप से राजद समर्थक वर्गों में सेंध लगाए। 2015 और 2020 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने कई यादव उम्मीदवार उतारकर यह संकेत दिया था कि वह “लालू के यादव वोट बैंक” को तोड़ने के लिए तैयार है। परंतु वास्तविकता यह है कि यादव समुदाय ने राजद से अपनी निष्ठा नहीं तोड़ी— बल्कि 2024 के लोकसभा चुनावों में उसने और मजबूती से INDIA गठबंधन के साथ खड़ा होना चुना।

यही कारण है कि भाजपा और जद (यू) दोनों ने अब अपने प्रयोगों को सीमित कर दिया है। भाजपा ने स्पष्ट रूप से यह मान लिया है कि “यादव-मुस्लिम समीकरण” को तोड़ना अब निकट भविष्य में संभव नहीं। इसलिए पार्टी ने अपना ध्यान ‘कोर वोट बैंक’, यानी उच्च जातियों, गैर-यादव ओबीसी, ईबीसी और अनुसूचित जातियों के भीतर एक मजबूत एकजुटता बनाने पर केंद्रित कर दिया है।

राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, यह वही फार्मूला है जिसने भाजपा को 2019 के लोकसभा चुनावों में बिहार में बड़ी सफलता दिलाई थी। तब एनडीए ने गैर-यादव पिछड़ों और दलितों के बीच जातीय रेखाओं को पार करते हुए ‘नरेंद्र मोदी बनाम लालूवाद’ का नारा उभारा था। अब वही रणनीति बिहार विधानसभा चुनावों में दोहराई जा रही है— बस अधिक संगठित रूप में।

दूसरी ओर, राजद ने भी अपने हिस्से का सबक सीख लिया है। पार्टी को यह एहसास हो गया है कि केवल यादव-मुस्लिम समीकरण, जिसकी नींव लालू प्रसाद यादव ने 1990 के दशक में रखी थी, अब सत्ता वापसी के लिए पर्याप्त नहीं है। इसलिए इस बार राजद ने अति पिछड़ों, दलितों और महिलाओं को भी अपने गठबंधन में जगह देने की कोशिश की है।

तेजस्वी यादव का प्रयास है कि वह “सामाजिक न्याय” की पुरानी अवधारणा को “नव-समाजवाद” के नए संस्करण में ढालें, यानी आर्थिक असमानता और बेरोजगारी को जातीय सीमाओं से ऊपर उठाकर नया जनाधार बनाएं। परंतु एनडीए का ‘सामाजिक संकेंद्रण मॉडल’ इस कोशिश के लिए एक सीधी चुनौती है क्योंकि भाजपा और जद (यू) अब उन वर्गों में पैठ बना चुके हैं जो कभी लालू के ‘पिछड़ा-आधारित गठबंधन’ की आत्मा थे।

उधर, नीतीश कुमार की जद (यू) इस बार अधिक असुरक्षित स्थिति में है। पार्टी ने जब 2022 में एक बार फिर भाजपा के साथ हाथ मिलाया, तब से उसके मुस्लिम वोटर लगभग पूरी तरह छिटक चुके हैं। अब नीतीश का भरोसा अपने जातीय आधार कुर्मी-कोयरी वोट बैंक और भाजपा समर्थक ऊँची जातियों पर है। लेकिन नीतीश के सामने दुविधा यह भी है कि भाजपा की बढ़ती संगठनात्मक ताकत उनके पारंपरिक इलाकों में भी सेंध लगा रही है। ऐसे में जद (यू) के लिए यह चुनाव “जीत की रणनीति” से अधिक “अस्तित्व की परीक्षा” बन गया है।

भविष्य का परिदृश्य देखें तो बिहार के इस चुनावी मैदान में दो समानांतर रणनीतियाँ आमने-सामने हैं। पहली है एनडीए की रणनीति। इसके तहत कम दायरे में परंतु मजबूत और अनुशासित वोट बैंक को संगठित किया जा रहा है। दूसरी है राजद-INDIA गठबंधन की रणनीति। इसके तहत पारंपरिक आधार को बरकरार रखते हुए नए सामाजिक समूहों को जोड़ने का प्रयास चल रहा है। यदि एनडीए का ‘कोर वोट बैंक मॉडल’ सफल होता है, तो यह बिहार की राजनीति में “यादव-मुस्लिम एकाधिकार” के दौर का अंत हो सकता है। वहीं अगर राजद का ‘विस्तारित गठबंधन’ काम कर जाता है, तो यह संदेश जाएगा कि बिहार की राजनीति अब धर्म या जाति की संकीर्ण रेखाओं से बाहर निकलने लगी है।

बिहार का जनादेश किस दिशा में जाएगा? यदि इस सवाल की पड़ताल करें तो उभर कर आता है कि बिहार चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन का नहीं, बल्कि सामाजिक प्रतिनिधित्व के नए संतुलन का चुनाव है। भाजपा-जद (यू) गठबंधन की यह रणनीति बताती है कि एनडीए अब प्रयोग नहीं, स्थायित्व चाहता है— चाहे इसके लिए उसे सामाजिक विस्तार का कुछ हिस्सा क्यों न छोड़ना पड़े। यह रणनीति अल्पकालिक रूप से कारगर हो सकती है क्योंकि एनडीए के पास अब भी ऊँची जातियों, गैर-यादव पिछड़ों और दलित वर्गों का ठोस समर्थन है। परंतु दीर्घकाल में यह मॉडल तभी टिकेगा जब इन वर्गों की आकांक्षाएँ केवल जातीय संतुलन नहीं, बल्कि विकास और रोजगार की ठोस उपलब्धियों से जुड़ सकें।

बहरहाल, बिहार की राजनीति इस बार जातीय गणित से ज्यादा रणनीतिक मनोविज्ञान पर निर्भर करेगी। एनडीए का नारा है— “स्थिरता और सुशासन”, जबकि राजद का नारा है— “न्याय और अवसर।” अब देखना यह है कि बिहार की जनता किस वादे को अधिक विश्वसनीय मानती है— स्थायित्व का वादा या परिवर्तन का सपना।

-नीरज कुमार दुबे

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
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